उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुई घटना, जिसमें मोबाइल गेम के लत के शिकार बच्चे ने अपनी मां की हत्या कर दी, इसे सिर्फ एक घटना तक सीमित करके नहीं देखा जाना चाहिए,इसके दीर्घकालिक परिदृश्यों पर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक है। आधुनिकता की इस दौड़ में आखिर किस तरह के समाज का निर्माण होता जा रहा है, जिसमें भावनाओं के नाम पर हमारा बैक बैलेंस जीरो है। क्या इस घटना को भी आपने सिर्फ एक खबर के रूप में इसे पढ़कर छोड़ दिया या इसके कारण और परिणाम के बारे में सोचने का प्रयास किया?
तकनीकी संपन्नता के लिहाज से देखें तो मोबाइल फोन्स जरूर हमारी प्रगति का अभिन्न अंग रहे हैं, पर स्वास्थ्य के लिहाज से इसके अधिक इस्तेमाल को कभी भी स्वीकार्यता नहीं मिली, मनोविज्ञान तो इसे घातक हथियार के रूप में मानता आ रहा है। विशेषकर जिस तरह से छोटे-छोटे बच्चों के बीच इसकी सहज उपलब्धता देखने को मिल रही है, वह संभव है कि कुछ पल के लिए यह दिखाता हो कि आपका बच्चा टेक्नोफ्रेंडली है, पर इसके गंभीर दुष्प्रभाव इन मासूमों से उनके जीवन का सबसे कीमती पल छीनते जा रहे हैं।
मोबाइल फोन से बढ़ती बच्चों की दोस्ती से भी ज्यादा गंभीर है,उनका मोबाइल और ऑनलाइन गेम्स के प्रति बढ़ता लगाव। पबजी-ब्लू व्हेल जैस आक्रामक गेम्स बच्चों को हिंसक बनाते जा रहे हैं। लखनऊ में सामने आई घटना इसी का उदाहरण है। बच्चे की उम्र 16 साल की है। इसी उम्र वाले एक दशक पहले से आज के बच्चों में जमीन-आसमान का फर्क नजर आएगा, जो विषय सबसे गंभीर और चिंताजनक है वह है बच्चों में भावनात्मक हानि। एक सरसरी नजर डालें तो इसके लिए मोबाइल को काफी हद तक जिम्मेदार माना जा सकता है।
नादानियों को नज़रअंदाज़ करना बड़ी नादानी
बच्चों का स्वभाव ही गलतियां करने वाला होता है, यही उन्हें आगे चीजें सही कैसे करने है, उसकी राह दिखाता है,पर बच्चों की गलतियों और उद्दंडता के बीच फर्क करना और समय रहते उसे सुधारना हर माता-पिता का नैतिक कर्तव्य है। बच्चों में कंडक्ट डिसऑर्डर की दिक्कतें बढ़ती देखी जा रही हैं। इसे आसान भाषा में ऐसे समझा जा सकता है-बच्चों का ऐसे व्यवहार को बार-बार दोहराना जिससे दूसरों को कष्ट पहुंचता हो, साथ के बच्चों को दिक्कत महसूस होती हो जैसे साथियों को धमकाना, मारना,चिढ़ाना, चोरी करना आदि कंडक्ट डिसऑर्डर की समस्या का परिचायक है। ऐसे आदतों को नजरअंदाज करना, या माता-पिता द्वारा इस पर समर्थन मिलना भविष्य में उनके लिए कुंआ खोदने जैसा है। बचपन में इसी तरह की प्रवृत्ति आगे चलकर हिसंक रूप ले सकती है। ऐसे में जब भी पहली बार बच्चों के इस तरह के गलत व्यहार को नोटिस करें, उसे तुरंत टोके और सुधार करें। पहले दिन आपकी नजरअंदाजगी, भविष्य के लिए घातक हो सकती है।
ऑनलाइन गेम्स से बदल रहा बच्चों का स्वभाव
ऑनलाइन गेम्स बच्चों के प्राकृतिक स्वभाव में स्थायी परिवर्तन का कारण बनते जा रहे है। विशेषकर हिंसक प्रवृत्ति वाले गेम्स मस्तिष्क में रासायनिक और हार्मोनल असंतुलन का कारण बनते जा रहे हैं। लखनऊ की घटना इसका एक हालिया उदाहरण है, पर यह अकेला मामला नहीं है, वैश्विक स्तर पर देखें तो ऑनलाइन गेम्स के लती बच्चों में आक्रामकता के ऐसे दर्जनों मामले देखने को मिल जाएंगे। इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने की आवश्यकता है।
मोबाइल और ऑनलाइन गेम्स की प्रकृति का बच्चों के स्वभाव पर सीधा असर होता है, यानी कि यदि बच्चा आक्रामक गेम्स खेलने में अधिक समय बिता रहा है, ऐसे गेम्स जिसमें टास्क हों, मार-पीट, खून-खराबा आदि हों, तो यह बच्चे के दिमाग को उसी के अनुरूप परिवर्तित करने लगती है। यही कारण है कि जिन बच्चों को बचपन में सहज रहना सिखाया जाता है, वह आदत उनके जीवन के अंत तक बनी रहती है। आप देखिए जो बच्चे बचपन से ही समरसता, सदभाव, प्रेम और पारिवारिक कार्यों में रुचि लेते हैं, वह स्वभाव उनके वृद्धावस्था तक बना रहता है। इसी तरह से जो बच्चे हिंसक और आक्रामक प्रवृत्ति के गेम्स अधिक खेलते हैं, ऐसे कंटेट अधिक देखते हैं, उनमें उसी तरह का स्वभाव भी विकसित हो जाता है। यह गेम्स, तेजी से लत का रूप लेने लगते हैं, फिर जो इस लत को जबरदस्ती छुड़ाने की कोशिश करता है, वह बच्चों के लिए दुश्मन बन जाता है। इस खतरे की गंभीरता को समझते हुए माता-पिता को बच्चों की दिनचर्या, उनके व्यवहार, संगत और कार्यों की बारीकी से नजर रखनी चाहिए।
हिंसक गेम्स और बच्चों की व्यवहारिक समस्याएं वैश्विक चिंतन का विषय
हिंसक गेम्स से बच्चों में उपज रही व्यवहारिक समस्याएं निश्चित तौर पर वैश्विक स्तर पर गंभीर चिंता का विषय हैं। यह केवल मानसिक स्वास्थ्य तक ही सीमित विषय नहीं है। इसके गंभीर पहलुओं पर माता-पिता से लेकर सरकार और वैश्विक स्वास्थ्य संगठनों को गंभीर चिंतन-मनन करने की जरूरत है। बच्चा मोबाइल पर क्या देख रहा है, उसका दूसरों से व्यवहार कैसा है, क्या वह दूसरों की भावनाओं की कद्र करता है? इन विषयों पर हर माता-पिता को ध्यान देना होगा।
दूसरी तरफ, जिस तरह से बच्चों तक मोबाइल की सहज उपलब्धता है, ऐसे में वो क्या देखें, गेम्स कैसे हों, कंटेंट की प्रकृति आदि के निर्धारण के लिए डेवलपर्स से लेकर मोबाइल तक इसे पहुंचाने के लिए जिम्मेदार माध्यमों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी पर विचार करना होगा। इसे 'बाजार' से ऊपर उठकर 'भविष्य निर्धारण' के रूप में देखने की अधिक आवश्यकता है। सबसे आवश्यक, सरकार यह निर्धारित करे कि जो कुछ कंटेट हम तक आसानी से पहुंच रहा है, उसका मनोवैज्ञानिक रूप से क्या प्रभाव हो सकता है? इस बात को ध्यान में रखकर फिल्टरेशन प्रक्रिया को और सख्त किया जाए।
इन सबके बीच बात घूम फिरकर फिर एक बार माता-पिता की जिम्मेदारियों पर आ जाती है। बच्चों के भविष्य निर्धारण की पहली कड़ी माता-पिता ही हैं, ऐसे में उन्हें कु्म्हार की भूमिका निभाने की आवश्यकता है, जो मिट्टी के बर्तन को खूबसूरती देने के लिए अंदर से हाथ लगाए रखता है और बाहर से थपकियां देता है। सबसे पहली बात-15 साल से कम आयु के बच्चों को अनावश्यक रूप से मोबाइल न दें, इस उम्र में मोबाइल की बहुत आवश्यकता भी नही हैं। दे भी रहे हैं तो इस बात का सख्ती से निर्धारण करें कि बच्चा किस तरह के कंटेट देख रहा है, किस तरह के गेम्स खेलता है, सोशल मीडिया पर क्या चीजें देखते है,उसके दोस्तो का ग्रुप कैसा है आदि। दूसरा-बच्चे का व्यवहार किस तरह का है?अगर बच्चा बात-बात पर गुस्सा करता है, जानवरों-साथियों के साथ हिंसक बर्ताव करता है, बड़ों के डांटने पर वह बदला लेने की भावना रखता है, उत्पात मचाने में उसे खुशी मिलती है तो इन बातों को सामान्य समझने की गलती न करें। संभव है इस तरह की चीजों को पहली बार देखकर अनदेखा करने की आपकी गलती बच्चों को हिंसक बना दे, और आप ऐसा बिल्कुल नहीं चाहेंगे।
(लेखक कन्सलटेंट साइकेट्रिस्ट है औऱ सुसाइड प्रिवेंशन पॉलिसी की एडवोकेसी कर रहे हैं)