कोरोना की तीसरी लहर की चिंता हमें छोड़ देनी चाहिए। हो सकता है इसके बाद हमें किसी चौथी और पांचवीं लहर को लेकर डराया जाए। हमें अब लहऱों और उनके 'पीक' की गिनती नहीं करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि मरने वालों के सही आंकड़े बताने में देश और दुनिया को धोखा दिया जा रहा है। हम पर राज करने वाले लोगों ने हमारा भरोसा और यक़ीन खो दिया है। इतनी तबाही के बाद भी जो भक्त गांधारी मुद्राओं में अपने राजाओं का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें एक सभ्य देश का 'नागरिक' मानने के बजाय व्यवस्था की 'नगर सेना' मान लिया जाना चाहिए।
हमें असली चिंता उस लहर की करनी चाहिए, जो कोरोना का टीका पूरी जनता को लग जाने और वैज्ञानिक तौर पर महामारी के समाप्त हो जाने की घोषणा के बाद भी हमारे बीच क़ायम रहने वाली है। ध्यान रखना होगा कि इस सैटेलाइट युग में भी मौतों के सही आंकड़े छुपाने के असफल और संवेदनहीन प्रयासों की तरह ही उस लहर से उत्पन्न होने वाले संताप और मौतों को भी ख़ारिज किया जाएगा जिसकी कि हम बात करने जा रहे हैं। इस लहर की लाशें नदियों और जलाशयों में श्मशानों को तलाशती नहीं मिलेंगी।
बात आगे बढ़ाने से पहले एक सच्ची कहानी : शहर इंदौर के एक चौराहे (खजराना) पर 10 मई की एक रात एक युवक ने एक युवती का पर्स लूट लिया था। ख़बर के मुताबिक़ पर्स में 3200 रुपए, मोबाइल और दस्तावेज थे। युवती के शोर मचाने पर इलाक़े में गश्त कर रही पुलिस ने आरोपी युवक को पकड़ लिया। पूछताछ में युवक ने बताया कि लॉकडाउन के कारण मज़दूरी न मिलने से घर में खाने को कुछ भी नहीं बचा था इसलिए जीवन में 'पहली बार' यह अपराध करना पड़ा। पुलिस की जांच में युवक की बात सच निकली। युवक के घर किराना और अन्य ज़रूरत का सामान भेजा गया। यह केवल एक उदाहरण उस दूसरी लहर का नतीजा है, जो अभी चल रही है। तीसरी का आना अभी शेष है।
कोरोना की पहली लहर का नतीजा लाखों (या करोड़ों?) अप्रवासी मज़दूरों की घरवापसी था। उनमें से कुछ की सड़कों और रेल की पटरियों पर कुचलकर मर जाने की खबरें थीं। कहा जाता है कि जो मज़दूर उस समय अपने घरों को लौटे थे, उनमें से कोई एक चौथाई काम-धंधों के लिए दोबारा महानगरों की ओर रवाना ही नहीं हुए। और अब दूसरी लहर के बाद तो लाखों लोग एक बार फिर अपने घरों में पहुंच गए हैं। ये लोग वे हैं जिनके लिए न शहरों में अस्पताल और ऑक्सीजन है और न ही उनके गांवों में। पहली लहर में तो सिर्फ़ नौकरियों और काम-धंधों से ही हाथ धोना पड़ा था। इस समय बात जान पर भी आन पड़ी है। इन लोगों के लिए टीका भी सिर्फ़ माथे पर लगाने वाला रह गया है। तीसरी लहर के परिणामों का अंदाज़ लगाया जा सकता है।
एक अनुमान है कि महामारी के दौरान ग़रीबी की रेखा (यानी 375 रुपए प्रतिदिन से कम की आय पर जीवन-यापन) से नीचे जीवन जीने वालों की संख्या में 23 करोड़ लोग और जुड़ गए हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन की व्यवस्था भी हो जाएगी, बिस्तरों की संख्या भी बढ़ जाएगी, नदियों में तैरती हुई लाशों के पोस्टमोर्टम और अंतिम संस्कार भी हो जाएंगे, टीके भी एक बड़ी आबादी को लग जाएंगे पर जो नहीं हो सकेगा वह यह कि कोरोना की प्रत्येक नई लहर करोड़ों लोगों को बेरोज़गार और बाक़ी बहुतेरों को ज़िंदा लाशों में बदलकर ग़ायब हो जाएगी!
जिन लहरों से हम अब मुख़ातिब होने वाले हैं, उनका 'पीक' कभी भी शायद इसलिए नहीं आएगा कि वह नागरिक को नागरिक के ख़िलाफ़ खड़ा करने वाली साबित हो सकती है। जो नागरिक अभी व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़ा है वही महामारी का संकट ख़त्म हो जाने के बाद अपने आपको उन नागरिकों से लड़ता हुआ पा सकता है जिनके पास खोने के लिए अपने जिस्म के अलावा कुछ नहीं बचा है।
घर में खाने का इंतज़ाम करने के लिए किसी का भी पर्स छीनकर अपना 'पहला अपराध' करने की घटनाएं केवल किसी एक चौराहे या बंद गली में ही नहीं हो रही हैं या होने वाली हैं। ये कई स्थानों पर अलग-अलग स्वरूपों में हो रही हैं। मृत शरीरों से कफ़न निकालकर उन्हें साफ़-सुथरा कर फिर से बेचने, मरीज़ों का सामान चुरा लेने गो कि एक मानवीय त्रासदी के दौरान भी अमानवीय कृत्यों से समझौता कर लेने की मजबूरी को महामारी से उत्पन्न हुए जीवन-यापन के संघर्ष से जोड़कर देखने का सरकारी अर्थशास्त्र अभी विकसित होना बाक़ी है।
शवों को गंगा में फेंक दिया जाना वह भी हज़ारों की संख्या में, किसी अचानक से आए भूकंप में जीवित लोगों के ज़मीन में दफ़न हो जाने की प्राकृतिक आपदा से भी ज़्यादा भयावह है। वह इस मायने में कि इसके मार्फ़त व्यवस्था के चेहरे से वह नकाब उतर रहा है, जो किसी विदेशी शासन प्रमुख की उपस्थिति में गंगा तट पर मंत्रोच्चारों के बीच होने वाली आरती में नज़र नहीं आता। महामारी की दूसरी लहर के दौरान ही हम जिस तरह के दुःख और मानव-निर्मित यातनाओं से रूबरू हैं, कल्पना ही कर सकते हैं कि आगे आने वाली कोई भी नई लहर हमें अंदर से किस हद तक तोड़ सकती है।
हमारे दुःख का कारण यह नहीं है कि एक राष्ट्र के रूप में हम में तकलीफ़ों से मुक़ाबला करने की क्षमता नहीं बची है। कारण यह है कि हमारे शासक हमें संकटों के प्रति गुमराह करते रहते हैं। हरेक सच को व्यवस्था और नेतृत्व के प्रति षड्यंत्र का हवाला देकर नागरिकों से छुपाया जाता है। सरकारें जब सीमाओं के हिंसक युद्धों में प्राप्त होने वाली सैन्य सफलताओं को राजनीतिक सत्ताएं हासिल करने का हथियार बनाने लगती हैं, तब वे भीतरी अहिंसक संघर्षों में भी नागरिकों के हाथों पराजय को स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पातीं। इस समय यही हो रहा है।
हमें न बीते हुए कल का सच बताया जा रहा है और न ही आने वाले संकट और उससे निपटने की तैयारियों के बारे में कुछ कहा जा रहा है। हमारी मौजूदा स्थिति को लेकर अगर पश्चिम के संपन्न राष्ट्रों में बेचैनी है और वे सिहर रहे हैं तो उसके कारणों की तलाश हम अपने आसपास के चौराहों पर भी कर सकते हैं। पूछा तो यह जाना चाहिए कि नागरिकों को अब किस तरह की लहर से लड़ाई के लिए अपनी तैयारी करना चाहिए? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)