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राजनीतिक होली

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आरिफा एविस

हर साल की तरह इस बार भी माघ के बाद फाल्गुन लग चुका था। मौसम का मिज़ाज क्या बदला, राजनीतिक मिजाज भी बदल गया पर अपना मिज़ाज जैसा था वैसा ही रहा बिलकुल विपक्ष की तरह। जैसे-जैसे रात छोटी हुई, अपनी नींद भी बड़ी होने लगी।
 
रात और नींद का रिश्ता भी चोली-दामन जैसा ही है। मैं नेताओं की तरह बिस्तर में चिरनिद्रा में लीन थी और ख्याली पुलाव नहीं, ख्वाब में पुलाव देख रही थी। तभी अम्मी मेरे सिर से चादर हटाते हुए बड़बड़ाई, 'एक यह मोहतरमा है कि चैन की नींद सो रही है और हम हैं कि रात की नींद भी हराम हो रही है। कब से आवाज दे रही हूं, पर तुम्हारे कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है। उठो, सर पर सूरज सवार हो चुका है।'
 
अम्मी की बात सुनकर मुझे गुस्सा आ गया, 'क्या है अम्मी, आप आलाकमान की तरह 20 घंटे काम करती हो तो इससे मुझे क्या? कम से कम मुझे तो सोने दो। कभी-कभार तो नींद का मौका मिलता है, वरना गरीब आदमी को नींद कहां? उसकी नींद तो रोजी-रोटी के चक्कर में ही उड़नछू रहती है।'
 
'अच्छा अब नेताओं की तरह बक-बक न करो। जरा इस लड़के को पढ़ा दो, वर्ना तुम्हारे पढ़े-लिखे होने का क्या फायदा?' 
 
अम्मी के पीछे छोटा भाई अमन मुंह लटकाए खड़ा था। मैंने उसे आंखों ही आंखों में देखा और पता लगा लिया कि जरूर यह हर बार की तरह अपना स्कूल का काम करवाने आया होगा। उसे देख मुझे तरस आया। ये स्कूल वाले सिर्फ कागजों में पढ़ाते, असली पढ़ाई तो घर वाले ही करते हैं।
 
अम्मी के जाते ही नेताओं की तरह उसका रंग बदल गया और बोला, 'आपी जल्दी करो, मुझे स्कूल में होली पर निबंध दिखाना है। और हां, 'हम देखेंगे' की तरह तर्जुमा मत कर देना। निबंध हिन्दी में ही लिखना, वरना मुझ पर फ़तवा न लागू हो जाए।'
 
'अजीब मुसीबत है? जिस तरह नेता अपना भाषण अपने एक्सपर्ट से लिखवा वाहवाही लूटते हैं, उसी तरह मेरा भाई मुझसे।' बड़बड़ाते हुए मैंने भी आव देखा न ताव। किसी युद्ध में लड़ रहे सैनिक की तरह अपनी कलम की तलवार निकाली और होली पर निबंध लिख मारा, न मालूम उस पर मास्टरजी कितने नंबर देंगे?
 
'होली', यह विभिन्न रंगों का त्योहार है। इसमें लफंगी रंग, हुडदंगी रंग, चेला-चपाटी रंग, देशभक्ति और देशद्रोही रंग भी खूब लगाया जाता है, क्योंकि 'बुरा न मानो होली' है। बाकी कोई बुरा भी मान जाए तो कोई कर भी क्या सकता है? किसी विषय को राजनीतिक मुद्दा बनाना हो तो उसमें राजनीतिक रंग डाल दो फिर देखो रंगों के कमाल।
 
राजनीति में भी तो कुछ ही रंगों की भरमार है। ऐसा लगता है, जैसे बाकी रंग राजनीति से कतराते हैं। वक्त-बेवक्त इन रंगों पर दूसरे रंग चढ़ जाते हैं, मानो रंग न हो रंगरेज की दुकान हो। वैसे तो दिखावट में एक रंग दूसरे का विरोधी होता है, मजाल है कि दोनों रंग आपस में मिल जाएं।
 
पर राजनीति में रंगों का घालमेल चलता है, कोई आज स्याह है तो कल सफेद भी हो सकता है। राजनीति में होली खेलने के लिए किसी पंचांग की जरूरत नहीं होती। जब चाहो होली-दिवाली मना लो। नीली, पीली, लाल, भगवा, हरा, गुलाबी, सफेद सब अपने आप में अलग और एक-दूसरे से जुड़े हैं।
 
यूं तो यह पर्व पारंपरिक रूप से 2 दिन मनाया जाता है, लेकिन अब इसकी कोई निश्चितता नहीं। जिसे देखो वो अपने हिसाब से मना ले। जब चाहे और जहां चाहे मना ले, बस बहाना चाहिए। एक बात और, इन राजनीतिक पार्टियों की ईद-ए-गुलाबीया, धुलेंडी, धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन मनाने का कोई हिसाब-किताब नहीं है कि कब तक और किस दिन मनाना है। इनकी तो अपने मन की गंगा और अपने मन की जमुना बहती रहती है।
 
कहने को होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला भारतीय लोगों का त्योहार है लेकिन खूनी होली देश से लेकर विदेशों में आए दिन खेली ही जाती है जिसके लिए किसी खास मौसम की जरूरत नहीं। अब इसे मनाने के लिए किसी होलिका को जलाने की जरूरत नहीं, जिंदा इंसानों और उनके मकानों-दुकानों को जला देने से ही काम चल जाता है। हां, नारा जोरदार होना चाहिए। ख़ून की होली खेलने के अपने नियम हैं। कोई अपने घर से खेलता है, तो कोई मंचों का इस्तेमाल करके प्यार और सद्भाव की धमकी देकर।
 
हां, कभी-कभी इसका रंग-रूप बदल जरूर जाता है, मसलन जातिगत खूनी होली, धार्मिक सौहार्द व दंगे-फसाद की होली, स्थानीय विशेष की होली, लोगों के उजाड़न की होली। ऐसी होली किसी धर्म विशेष से नहीं जुड़ी होती, इसके लिए तो राजनीतिक रंग ही सर्वोपरि है। राजनीति से बड़ा कोई धर्म नहीं।
 
वैसे इन दिनों नागरिकता छीनने की होली भी खेली जा रही है। विरोध करने वाले को विद्रोही का गुब्बारा फेंक दो, फिर देखो फर्जी देशभक्ति होली का रंग, असली देशभक्त गोली से लेकर गाली रंग इस्तेमाल करके दुश्मन को लपेट देते हैं।
 
अब आने वाले सालों में डिटेंशन सेंटर में भी होली मिलन समारोह होगा, जहां नागरिक बनाम अनागरिक एक दूसरे रंग लगाएंगे, इसके लिए सरकार 3 विशेष प्रकार के रंग लाई है। वैसे एक राज्य में इनमें से एक रंग का इस्तेमाल हो चुका है, जो बहुत पक्का रंग है।
 
राजनीतिक लोग आपस में आरोप-प्रत्यारोप के गुब्बारे आए दिन फेंकते रहते हैं। संसद में जुबानी गुलाल-अबीर की बौछार भी करते रहते हैं। इनकी एक खास पहचान है कि रंगहीन होते हुए भी ये सभी रंगों को मिलकर काला रंग बनाते हैं और ये स्याह लोग सफेदपोश कहलाते हैं।
 

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