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राष्ट्रवाद : विविधता ही भारत की मूल पहचान

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बरुण कुमार सिंह

किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए सांप्रदायिक सद्भाव बहुत जरूरी है। विभिन्न संप्रदायों के आपस में लड़ने से राष्ट्र कमजोर होता है। सांप्रदायिक विद्वेष से सामाजिक शांति भंग होती है और राष्ट्र की आर्थिक प्रगति बाधक होती है। विभिन्न संप्रदाय और राष्ट्रवाद से हमारा यहां अभिप्राय भारतीय दृष्टिकोण के संबंध में है।


 
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व इसका समन्वयवादी दृष्टिकोण है। यहां विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग आपस में हिल-मिलकर रहते हैं, पर कभी-कभी इनमें आपसी झड़पें हो जाती हैं। इन झड़पों से हमें निराश नहीं होना चाहिए। लेकिन हाल के वर्षों में सांप्रदायिकता का जहर बड़ी तेजी से फैलने लगा है। असहिष्णुता के तर्क को लेकर इसके पक्ष-विपक्ष में काफी घमासान मचा है। यह भारत के विकास के लिए शुभ नहीं है। हमें सांप्रदायिक वैमनस्य को मिटाने की हरसंभव कोशिश करनी चाहिए। 
 
सांप्रदायिक वैमनस्य वह आग है जिसमें सब कुछ जलकर स्वाहा हो सकता है। भारतीय संस्कृति में असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं है। लगता है, सांप्रदायिकता कहीं से थोपी गई है। हमें किसी प्रकार की साजिश का शिकार नहीं होना चाहिए। भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, इसमें सबको अपने-अपने धर्म के अनुसार चलने की पूरी स्वतंत्रता है। विदेशी कूटनीति के चलते यहां कभी-कभी सांप्रदायिक दंगे हो जाते हैं। भारत के मुसलमान, ईसाई, पारसी इत्यादि धर्मों को मानने वाले यहां के सच्चे नागरिक हैं। इन्होंने भारत के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण बार-बार दिया है।
 
अभी वर्तमान राजनीति के कोलाहल में हम देख रहे हैं कि किस प्रकार हमारी राजनीतिक व्यवस्था को राजनेतागणों ने अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के सामने एक गंभीर चुनौती उत्पन्न कर दी है, ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजनीतिक चाहत की इच्छाशक्ति ने भी राजनीतिक संप्रदायवाद की भावनाओं को उभारकर आधुनिक राष्ट्रवाद के लिए एक विकराल समस्या खड़ी कर दी है जिसका दंड वर्तमान पीढ़ी के लोगों को भोगना पड़ रहा है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि किस प्रकार संप्रदायवादरूपी राजनीतिक हथियार हमारी राष्ट्रवाद की भावना को गहरी ठेस पहुंचा रहा है।
 
एक समय था, जब हिन्दुस्तान को 'सोने की चिड़िया' कहा जाता था। दुनिया को विज्ञान से लेकर चिकित्सा तक का ज्ञान हमने कराया। लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू की कई बातें ऐसी हैं, जो भारत की सुनहरी तस्वीर को बदरंग करती हैं। आज भी हम एक तरह से निरक्षरता, सांप्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव, अंधविश्वास और टालू रवैए के गुलाम हैं। आज भी देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं के लिए लोग परेशान हैं। हर काम को करने के लिए आंदोलन करने पड़ रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। लोगों के कल्याण के लिए बनी योजनाएं समय से पूरी नहीं हो पा रही हैं।
 
सही मायनों में देश में व्याप्त नक्सलवाद और आतंकवाद को भी इन्हीं समस्याओं के कारण बढ़ावा मिला है। ऐसे में लोगों में कुंठा की भावना उत्पन्न होती है। वर्तमान परिस्थितियों को देखकर हर वर्ग की जरूरत को ध्यान में रखकर उनके कल्याण के लिए नीति बनाने की जरूरत है। नई पीढ़ी को सही शिक्षा नहीं मिल पा रही है अर्थात गुणवत्ता वाली शिक्षा नहीं मिल रही है, स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी अस्पतालों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है और युवाओं को रोजगार नहीं मिल पा रहा है। हालांकि इधर सरकार द्वारा कौशल विकास योजना का अलग से मंत्रालय गठित किए जाने के बाद कुछ आशाएं बढ़ी हैं कि हमारे युवा हुनरमंद होंगे। इसमें सरकार के साथ-साथ अन्य सहयोगी संस्थाएं भी आगे आई हैं।
 
मजहब (संप्रदाय) आपस में बैर करना नहीं सिखाता। कुछ स्वार्थी लोग होते हैं, जो संप्रदाय विशेष के लोगों में किसी भिन्न संप्रदाय के लोगों के प्रति अविश्वास का भाव पैदा कर देते हैं। हमारी राष्ट्रीयता यह मांग करती है कि ऐसे लोगों की पहचान करे और उन्हें कड़ा से कड़ा दंड दे। इकबाल ने इसलिए कहा है-
 
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
हिन्दी है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।’
 
हिन्दू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई- यह भारत सबका है। सबके आपसी सद्भाव से ही भारत का अपेक्षित विकास संभव है। संप्रदायों को अपनी-अपनी सांप्रदायिक संकीर्णता से ऊपर उठकर भारत के विकास में अपना अमूल्य योगदान करना चाहिए। संप्रदायवाद की भावना राष्ट्रवाद की एकता के विकास में बहुत बड़ी बाधा है। विभिन्न संप्रदाय और राष्ट्रवाद के प्रति लोगों के संकीर्ण विचार होने के कारण क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन देना, अपने क्षेत्र को प्रेम करना गलत नहीं माना जा सकता, परंतु जब इस प्रेम के साथ दूसरे क्षेत्र या राज्य के प्रति घृणा की भावना उमड़ पड़े, तब यह राष्ट्रीय एकता के लिए चुनौती सिद्ध हो जाता है। संप्रदाय के नाम पर आपसी संघर्ष राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। सांप्रदायिक दंगे राष्ट्र के माथे पर कलंक हैं।
 
संप्रदायवाद और राष्ट्रवाद की भावना को देखने के लिए हमें राजनीतिक क्षेत्रवाद की समस्या, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा नैतिक अवधारणाओं के साथ-साथ पिछले अतीत के इतिहास को भी देखने की जरूरत है तभी विभिन्न संप्रदायवाद और राष्ट्रवाद की सार्थकता स्पष्ट होगी कि किस प्रकार संप्रदायवाद की भावना ने राष्ट्रवादरूपी चट्टान की एकता को तोड़ दिया जिसके कारण भारत का विभाजन अवश्यंभावी हो गया। यहां यह कहने की जरूरत नहीं है कि अंग्रेज यहां फूट डालने में सफल रहे फलत: भारत एवं पाकिस्तान 2 स्वतंत्र गणराज्य बने। स्वतंत्र तो हम राष्ट्रवादी भावना के पनपने के कारण अवश्य हुए, परंतु संप्रदायवाद की भावना के कारण ही भारत को 2 खंडों में विभाजित करना पड़ा।
 
पिछले इतिहास को देखने से यह पता चलता है कि वर्तमान समय व पीढ़ी पर उसका क्या प्रभाव पड़ा है? वह उसका सकारात्मक पहलू है या नकारात्मक पहलू? वर्तमान में विभिन्न संप्रदाय और राष्ट्रवाद के प्रति हमारा आधार दृष्टिकोण क्या है? यूं तो हम सभी संप्रदायवादरूपी समस्या को देख रहे हैं और इसका राष्ट्रवाद पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है या एक तरह से कहें कि यह राष्ट्रवाद के लिए एक गंभीर चुनौती है और आने वाला भविष्य भी उससे अछूता नहीं है। इतिहास के पीछे जो घटना घट चुकी है उसको कुरेदने से हमें कुछ मिल तो नहीं सकता है लेकिन उस समय जो गलतियां हम कर चुके हैं, उसमें सुधार तो अवश्य ला सकते हैं। नहीं तो पिछली शताब्दियों में जो घटना घट चुकी है जिससे कि वर्तमान पीढ़ी अभी अछूती नहीं है। अगर अभी भी हम समय रहते अपने दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव न ला सके तो आने वाली हमारी पीढ़ी को संप्रदायवाद का विषपान करना पड़ेगा और राष्ट्रीयता खतरे में पड़ जाएगी।
 
 

धर्म संप्रदायवाद की निष्पक्षता में बाधक होता है। हिन्दू-मुसलमान, अरब-यहूदी, सिख, ईसाई इत्यादि के लिए किसी एक मत पर मतैक्य होना कठिन है, क्योंकि धार्मिक दृष्टिकोण से वे एक-दूसरे को शत्रु मानते हैं। हिन्दू-मुस्लिम किसी भी अप्रिय घटना के लिए एक-दूसरे को उसका जिम्मेदार ठहराकर उस पर दोषारोपण करते हैं। इसका प्रमुख कारण उनके बीच द्वेषभाव है। धार्मिक तथ्यों का स्वरूप चयनात्मक होता है। पूर्वग्राही विचारों के कारण एक ही घटना को इतिहासकार विभिन्न ढंग से पेश करता है। घटना एक ही है, लेकिन आपसी मतैक्य न होने के कारण ही औरंगजेब द्वारा हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त करने की निंदा सर यदुनाथ सरकार ने की है, पर फारुक्की ने इसका समर्थन किया है।
 
विविधिता ही इस देश की विशेषता है। किसी क्षेत्र का निर्माण भूगोल, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज, राजनीतिक-आर्थिक विकास इत्यादि जैसे तत्वों के आधार पर होता है। इसी आधार पर अंग्रेजों के जमाने में प्रशासनिक क्षेत्रों अथवा राज्यों का गठन हुआ था। अपने क्षेत्र से अधिक लगाव रखना व्यक्ति के लिए स्वाभाविक है, परंतु जब इस लगाव की भावना द्वारा दूसरे क्षेत्र की अलगाववाद की भावना जुट जाती है, तब क्षेत्रवाद की समस्या उपस्थित हो जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में भी भाषाओं के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन कर दिया गया। इस कदम से एक ओर भाषायी प्रेम और विकास को प्रोत्साहन मिला, परंतु दूसरी ओर देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति की भावना को गहरी ठेस लगी।
 
राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा सांप्रदायिक भावना है। भारत में इस भावना का उदय अंग्रेजों की नीति के फलस्वरूप हुआ। इतिहास के पन्नों को उलटने से यह स्पष्ट होता है कि किसी भी समाज में किसी भी समय सामाजिक समता विद्यमान नहीं रही है। सामाजिक समता को एक आदर्श ही माना जा सकता है जिसे व्यावहारिक रूप देने की आवश्यकता है। सामाजिक विषमताएं सदा से उपस्थित रही हैं और भारत भी इससे अछूता नहीं है। आज भी भारत को सामाजिक विषमताओं की समस्या से जूझना पड़ रहा है। जाति भेद, लिंग भेद, संप्रदाय भेद, अस्पृश्यता, अमीर-गरीब का विभेद इत्यादि जैसी सामाजिक विषमताएं भारत में विद्यमान हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में अनेक प्रावधान कर सामाजिक समता की स्थापना का प्रयास किया है। सामाजिक समता को व्यावहारिक रूप देने के लिए संवैधानिक प्रावधानों के साथ-साथ अन्य कदम उठाने की भी आवश्यकता है।
 
आज भारत के सामने अनेक समस्याएं उपस्थित हैं। भारत में राष्ट्रवाद की सफलता तब तक संभव नहीं है, जब तक कि सामाजिक समता की स्थापना नहीं की जाती है। सामाजिक समता को एक आदर्श ही माना जा सकता है। सामाजिक समता के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। भारत विविधताओं का देश है। यहां एक ओर स्वर्ण निवास करते हैं, तो दूसरी ओर हरिजन, आदिवासी और पिछड़ी जाति के लोग। एक ओर धनी लोग हैं, तो दूसरी ओर निर्धन। एक ओर साक्षर हैं, तो दूसरी ओर निरक्षर। देश में अनेक भाषा-भाषी और विभिन्न जातियों के लोग निवास करते हैं।
 
समाज के संपन्न वर्गों का नैतिक कर्तव्य है कि वे हमारे ही समाज के निचले तबकों को आगे लाने में अपने कदम बढ़ाएं। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां एवं कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा सीएसआर के माध्यम से सहयोग दिया जा रहा है। लेकिन भारत इतना बड़ा देश है एवं जनसंख्या अधिक होने के कारण जो सहयोग दिया जाता है उससे भी बहुत सारे लोग वंचित रह जाते हैं अत: इसके साथ समाज के उन सुविधा-संपन्न लोगों के जुड़ने की जरूरत है जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाभ पहुंचाया जाए। 
 
आज शादी-विवाह, बर्थ-डे पार्टी एवं विवाह की सालगिरह आदि अन्य उत्सवों के आयोजनों पर लाखों-करोड़ों रुपए चंद घंटों में फूंक दिए जा रहे हैं। लेकिन इन्हीं वर्गों से पूछिए कि ये जितना एक आयोजन में खर्च कर देते हैं अगर उसका 10-20 प्रतिशत उस आयोजन के खर्च से काटकर अपने ही समाज से जुड़े लोगों के सामाजिक उत्थान के नाम पर प्रतिवर्ष एक दिव्यांग, एक मजदूर या गरीब के बेटे-बेटी की पढ़ाई का खर्च, एक गरीब कन्या की शादी का खर्च एवं एक वंचित के इलाज का खर्च उठाएं तो न जाने कितने लोगों का भला होगा और ऐसे लोग इनका उपकार भी मानेंगे।
 
सर्वेक्षण में तो हर साल करोड़पतियों एवं अरबपतियों की संख्या में इजाफा हो रहा है, लेकिन समाज के प्रति उनकी भागीदारी कुछ अपवादों को छोड़कर काफी निराशाजनक है। अत: ये लोग अपनी भागीदारी से भाग रहे हैं तो सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि सरकार इनसे सख्ती से पेश आए। 
3-स्टार, 5-स्टार एवं फॉर्म हाउसों या अन्य आयोजन स्थलों में जो उत्सव आयोजित होते हैं एवं इन आयोजनों में खर्च की कोई सीमा नहीं है। उनसे सामाजिक कल्याण के नाम पर 20-30 प्रतिशत का टैक्स उत्सव आयोजन करने वालों से डंडे की चोट पर शक्ति लगाकर सरकार वसूल करे एवं इस हेतु सख्त से सख्त कार्रवाई करें, क्योंकि जो सिर्फ निमंत्रण पत्र देने के लिए ही 500-1000 रु. प्रति कार्ड खर्च कर देते हैं, ये उत्सव आयोजन के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर देते हैं, अगर 20 लाख से 1 करोड़ रुपए प्रति आयोजन पर खर्च होते हैं तो प्रत्येक आयोजन से 10-30 प्रतिशत टैक्स लिया जाए। अगर 10 प्रतिशत टैक्स लगाया जाए तो 2 लाख से 20 लाख रुपए तक के टैक्स की आमदनी सिर्फ एक आयोजन के उत्सव से सरकार को प्राप्त होगी।
 
इस तरह इन छोटी-छोटी राशि से एक बहुत बड़ी राशि सरकार के पास एकत्रित हो जाएगी जिसे सामाजिक उत्थान के लिए समाज के वंचित लोगों पर खर्च किया जा सकता है इसलिए नीति-निर्माता को ऐसी नीति बनानी चाहिए जिसमें सबको समान अवसर मिले। हम लोग मिलकर इस कार्य हेतु एक-एक कदम बढ़ाएं तो न जाने कितने लोगों का भला होगा। 
 
दुःख के अभाव में सुख का और अंधेरे के अभाव में उजाले का कोई महत्व नहीं होता। इस दृष्टि से 20वीं सदी के लंबे कालखंड की समीक्षा करते हैं तो समझ में आता है कि भारत ने दासता, राजतंत्र से अर्द्ध शताब्दी से आगे तक की लंबी यात्रा करके अनगिणत अनुभवों के आधार पर अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए संप्रभुता संपन्न राष्ट्र के रूप में सारी दुनिया को अचंभे में डाल दिया है। इस यात्रा से आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और वैज्ञानिक दूरियां तो घटी हैं किंतु धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक दूरियां बढ़ी भी हैं। यही कारण है कि मानव मूल्य तिरोहित हुए हैं। 
 
वास्तव में हर देश की मूल संस्कृति ही उस देश की पहचान हुआ करती है। भारतीय संस्कृति की पहचान बहुत कुछ यहां की आदिम मूल संस्कृति से है। वह वन-पहाड़, नदी-घाटी से जन्मती है और वट-वृक्ष की तरह बढ़कर सुखद शीतल छाया प्रदान करती है।
 
इसका एक ही उत्तर है कि इसके लिए संपूर्ण रूप से राष्ट्रीय संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता है। राष्ट्र का एक धर्म, एक भाषा, एक राष्ट्रीयता एवं एक सर्वमान्य शिक्षा होना अनिवार्य है। इसके लिए भारतीय मन-मस्तिष्क को विकसित करना होगा। हमारे पास क्या नही हैं? इतना अधिक है कि भारतीयता के प्रति विदेशी आकर्षित हो रहे हैं। यहां का अध्यात्म, यहां का पहनावा, यहां का दर्शन, यहां का जीवन, यहां की चिकित्सा पद्धति, यहां की कलाएं उन्हें प्रभावित कर रही हैं और हम हैं कि उनका दुष्चरित्र ग्रहण करते जा रहे हैं। 


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