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नाम बदलने का राजनीतिक इतिहास

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सिद्धार्थ झा

विलियम शेक्सपियर ने एक बार कहा था- 'नाम में क्या रखा है? किसी चीज का नाम बदल देने से भी चीज वही
रहेगी। गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा।' लेकिन मुझे लगता है कि नाम में बहुत कुछ रखा है। व्यवहार, गुण-अवगुण ये सब बाद की बातें हैं। नाम आपका एक खाका खींच देता है, जो मन-मस्तिष्क पर तस्वीर बना देता है। 
 
आज नाम इसलिए प्रासंगिक हो उठा है, क्योंकि केंद्र सरकार ने उत्तरप्रदेश की बहुत ही ख्यातिप्राप्त चिर-परिचित जगह का नया नामकरण किया गया है। मुगलसराय एक ऐसा ही नाम है जिससे देशी ही नहीं, विदेशी भी भली-भांति परिचित हैं, क्योंकि यहां से न सिर्फ उनके लिए काशी का रास्ता जाता है बल्कि सारनाथ की ख्याति इसे दूर-दूर तक लोकप्रिय करती है। इसका नाम अब 'दीनदयाल स्टेशन' कर दिया गया है। 
 
मुगलसराय स्टेशन का नाम संस्कृति, इतिहास और सभ्यता को दर्शाता है। ये काशी का अहम हिस्सा है। मुगलसराय के इतिहास में अगर हम झांकें तो इसमें हमारे अतीत की खुशबू महकती है जिसको भारत से अलग करना कठिन है। भले ही राष्ट्रवाद के दौर में हम सांस्कृतिक पुनरुत्थान के नाम पर मुगलिया इतिहास की अनदेखी करें लेकिन नाम बदलने से जज्बात नहीं बदला करते। 
 
शायर मुनव्वर राना ने कहा था-
 
दूध की नहर मुझसे नहीं निकलने वाली/
नाम चाहे मेरा फरहाद भी रखा जाए। 
 
अतीत के झरोखों में झांकें तो मुगलसराय सिर्फ एक स्टेशन भर नहीं रहा कभी। मुगल साम्राज्य के दौर में अक्सर लोग पश्चिम-दक्षिण से उत्तर-पूरब जाते वक्त शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित ग्रांड ट्रंक रोड का इस्तेमाल करते थे। दिल्ली, हरियाणा व पंजाब में जीटी रोड पर कोस मीनारें अब भी मौजूद हैं, जो दिशा और किलोमीटर बताती थीं। ये सड़क बेहद अहम थी व ढाका से पेशावर, कोलकाता-दिल्ली व अम्बाला-अमृतसर को जोड़ती थीं। 
 
अक्सर शाही मुगल सेना अपने युद्ध के दिनों में इस रूट पर जाते वक्त चंदौली मज्वर और जेयोनाथपुर के बीच में रात में बसेरा करती और सुबह चल देती। इसके अलावा यहां से एक रास्ता जाता था, जो तुरंत बनारस पहुंचा देता। यहां पर सैनिकों के रुकने की सराय हुआ करती थी इसलिए इसका नाम 'मुगलसराय' पड़ा। 
 
ब्रिटिश काल में हावड़ा दिल्ली के बीच यहां से पहली रेल लाइन बिछाई गई। इसका रूट हुगली- साहिबगंज- गया- मुगलसराय- कानपुर- दिल्ली को जोड़ता था। मुगलसराय पटना रेलखंड 1862 को अस्तित्व में आया जबकि मुगलसराय-गया 1900 में। बाद में मुगलसराय बड़े जंक्शन में तब्दील हुआ यानी एक बड़ा केंद्र साबित हुआ रेलवे के इतिहास में। लोग ट्रेन से उतरते और अगली ट्रेन बदलने के लिए रात में इंतजार करते। आज दुरंतो, राजधानी समेत तमाम वीआईपी ट्रेनें यहां रुकती हैं। आज ये एशिया के सर्वाधिक व्यस्त स्टेशनों में से एक है और सबसे बड़ा यार्ड भी यही है। 
 
अब बात करते हैं इसका नाम राष्ट्रवादी चिंतक और जनसंघ नेता के नाम पर क्यों रखा जा रहा है? साल 1968 में इसी स्टेशन पर दीनदयाल उपाध्याय की लाश लावारिस हालत में मिली थी। जेब में 5 का मुड़ा-तुड़ा नोट और एक टिकट था और इसके अलावा कोई पहचान नहीं थी। स्टाफ लावारिस लाश समझकर अंतिम संस्कार करने जा रहा था लेकिन तभी किसी ने पहचान लिया और फिर अटलजी और सर संघसंचालक गोवलकरजी आए और दिल्ली ले जाकर इनका अंतिम संस्कार किया गया। उनकी मृत्यु एक राज ही रही। क्यों, कैसे हुई? इस पर से पर्दा 5 दशक बाद भी नहीं उठ पाया है। 
 
भाजपा इस साल दीनदयाल शताब्दी वर्ष मना रही है और उनको सम्मान देने के लिए राज्य सरकार ने केंद्र को ये सुझाव दिया जिसको मान लिया गया। इस पर राजनीति अपने चरम पर है। वाजिब सी बात है कि विरोध भी हुआ है जिसका कोई खास फर्क नहीं पड़ा। हालांकि लोगों में भी रोष है और नए नाम को लेकर वे ज्यादा उत्साहित भी नहीं हैं। 
 
ऐसा नहीं है कि पहली बार कोई नाम बदला गया हो। नाम बदलने का लंबा इतिहास है। कभी राज्यों, तो कभी शहरों का। सड़क-मुहल्लों की गिनती नहीं कर पा रहा नगर निगम का जो भी आका होता है, वो मनमानी करता रहता है। आसपास नजर दौड़ाएंगे तो तमाम पार्षदों के मां-बाप, रिश्तेदारों के नाम पर सड़कें मिल जाएंगी। राज्यों या शहरों का नाम बदलने के लिए केंद्र की स्वीकृति लेनी होती है। 
 
स्वतंत्र भारत में साल 1950 में सबसे पहले पूर्वी पंजाब का नाम पंजाब रखा गया। 1956 में हैदराबाद से आंध्रप्रदेश, 1959 में मध्यभारत से मध्यप्रदेश नामकरण हुआ। सिलसिला यहीं नहीं खत्म हुआ। 1969 में मद्रास से तमिलनाडु, 1973 में मैसूर से कर्नाटक, इसके बाद पुडुचेरी, उत्तरांचल से उत्तराखंड, 2011 में उड़ीसा से ओडिशा नाम किया गया। लिस्ट यहीं खत्म नहीं होती। मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, शिमला, कानपुर, जबलपुर लगभग 15 शहरों के नाम बदले गए। सिर्फ इतना ही नहीं, जुलाई 2016 में मद्रास, बंबई और कलकत्ता उच्च न्यायालय का नाम भी बदल गया। 
 
लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इससे मिलते-जुलते नामों से बदलाव किया गया है। अब तक शहरों का नाम नेताओं के नामों पर करने की कवायद नहीं की गई। संभवत: ये पहली बार हुआ है। एयरपोर्ट के नाम महापुरुषों के नाम पर रखे गए हैं। तमाम एयरपोर्ट आपको मिल जाएंगे। शायद स्टेशंस के साथ भी इसी तर्क को शामिल किया गया है। लेकिन मुगलसराय में स्टेशन के साथ नगर निगम का नाम भी बदला गया है। एयरपोर्ट की विरासत भारत में ज्यादा पुरानी नहीं है। एलीट क्लास को नाम से ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता लेकिन निम्न और निम्न-मध्यम वर्ग, जिसने रेलवे स्टेशनों के साथ कई पीढ़ियों को जिया है, उसकी विरासत को जेहन में रखा है, को फर्क पड़ता है।
 
नामों में ज्यादातर बदलाव राजनीतिक कारणों से होता है लेकिन कुतर्क ऐतिहासिक भूल को दुरुस्त करने की दी जाती है या कभी साम्राज्यवादी विरासत से बाहर निकलने की दी जाती है। नाम बदलने से सरकारों को फायदा ये होता है कि उन्हें कम समय में सुर्खियां बटोरने को मिल जाती है, दूसरा गंभीर विषयों से जनता का ध्यान बाहर निकालना होता है। 
 
आपको याद होगा कि यूपीए सरकार के समय में कनाट प्लेस और कनाट सर्कस का नाम बदलकर राजीव चौक और इंदिरा चौक हुआ था। इस बात को एक दशक से भी ज्यादा हो चुका है लेकिन आज भी लोग कनाट प्लेस ही जाते हैं। अगर कनाट प्लेस का नाम बदल जाने से कांग्रेस को फायदा होना होता तो वो आज हाशिये पर नहीं होती। 
बहुत से लोगों का ये तर्क है कि कांग्रेस ने किया तो भाजपा भी क्यों न करे? लेकिन मैं यही कहना चाहूंगा कि किसी भी सरकार का काम गलतियां दोहराने का नहीं बल्कि उन गलतियों से सबक लेने का होना चाहिए। दिल्ली के रेसकोर्स का नाम बदलकर लोक कल्याण मार्ग हुआ। कितनों को याद हुआ होगा? अगर मेट्रो स्टेशन वहां नहीं होता तो ये नाम भी शायद सिर्फ कागजों पर होता। 
 
बहरहाल, नामकरण की राजनीति बंद होनी चाहिए। यदि आवश्यक भी हो तो एक गैर राजनीतिक कमेटी होनी चाहिए, जो नाम बदले जाने के पीछे वाजिब तर्क दे सके। 

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