प्रयाग शुक्ल,
भारतीय सिनेमा और विश्व–सिनेमा की फिल्मों को देखने की शुरुआत साठ–सत्तर के दशक में हुई थी, फ़िल्म सोसायटियों, दूतावासों के सांस्कृतिक केन्द्रों और फिल्म समारोहों के माध्यम से।
धीरे–धीरे उन पर कुछ लिखना भी शुरु हुआ था, ‘दिनमान’ साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स और फिर ‘जनसत्ता’ आदि में। इस पुस्तक में मानो फिल्म–लेखन के उन्हीं दिनों को याद करती हुई कुछ चुनी हुई सामग्री है: मुख्य रूप से सत्यजित राय और कुरोसावा की फिल्मों को लेकर। कुछ अन्य लेख, वृत्तांत और समीक्षाएं आदि भी हैं।
इनमें से ‘त्रूफो का सिनेमा’ तो बिल्कुल नया लेख है। एक हिस्सा बासु भट्टाचार्य और मणि कौल की फिल्मों और स्वयं उनकी स्मृतियों से जुड़ा हुआ है। सिनेमा की दुनिया बहुत बड़ी है और बहुतों की तरह मुझे भी यह अचरज होता है कि कला माध्यमों में, अपेक्षाकृत इस सबसे नये माध्यम ने आधुनिक काल में कितनी बड़ी दूरी तय की है, वो भी थोड़े से समय में ही। सिनेमा ने, सिने–भाषा ने, उसके सर्जकों ने, हमारे देखने के ढंग को भी बहुत बदला है।
इसलिए भी सिनेमा देखना और फिर उस पर कुछ टिप्पणी करना, हमेशा ही एक प्रीतिकर अनुभव रहा है। यह भी याद करूं कि सत्यजित राय और कुरोसावा जैसे सर्जकों ने स्वयं ‘देखने’ के विभिन्न कोणों से, हमें जीवन की बहुतेरी चीजों को अत्यंत आत्मीय ढंग से अनुभव करने के, समझने–जानने के जो सूत्र दिए हैं, वे सचमुच बहुत मूल्यवान हैं।
ऐसे सर्जकों ने चित्रकला, साहित्य, संगीत आदि को भी नयी तरह से आयत्त किया है और हमें भी इन कलाविधाओं को परखने और उनका स्वाद लेने के नये गुर भी सौंपे हैं। इनकी कला ने मानो अन्य कलाओं की दुनिया को भी एक नयी तरह से रोशन किया है।
विश्व–सिनेमा ने और भारत के समांतर, ‘नये’ सिनेमा ने भी, इतनी विविध कथाओं और विषय–वस्तुओं को फिल्मों के लिए इस्तेमाल किया है कि स्वयं उनमें उतरना मानो जीवन के ‘बहुरूप’ को देखना है। इस पुस्तक में संकलित छोटी–छोटी, प्राय: परिचयात्मक समीक्षाओं में भी पाठक इस तथ्य को लक्ष्य करेंगे।
जब यह सारी सामग्री लिखी गयी थी और अनंतर कुछ ही दिनों के भीतर प्रकाशित हुई थी उससे संबंधित तिथियां, सुलभ होने पर दे दी गयी हैं। अगर सुधी पाठकों को यह सारी सामग्री उनकी फिल्म–स्मृतियों को जगाने वाली या उनकी ओर उत्सुक करने वाली लगी और अपने आप में कुछ ऐसा कहती हुई, जो प्रासंगिक और रुचिकर मालूम दे, तो मुझे बेहद खुशी होगी।
लेखक सुप्रसिध्द कवि और कला समीक्षक हैं। यह लेख उनकी लिखी किताब ‘जीवन को गढ़ती फिल्में’ का एक अंश है। जो सत्यजीत राय की जन्मशती पर प्रासंगिक है।