वो जाफरियों वाले बरामदे और कवेलू की छतों वाले हरे-भरे, बड़े मैदानों वाले हमारे स्कूल। अधिकांश स्कूल उन दिनों सुबह और दोपहर में लगा करते थे। हमारा प्राथमिक स्कूल कक्षा 1 से 5 तक सुबह हुआ करता था। 7.30 से 11.30 बजे तक बस। बाकी समय आपका। अपनी मर्जी के मालिक। वही स्कूल कक्षा 6 से 8 तक का माध्यमिक हो जाया करता था।
पर सभी के लिए ऐसा नहीं था। स्कूल बदल भी जाया करते थे। इन 8 सालों में तो स्कूल का पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हमारी नस-नस में रच-बस चुका होता। वो बड़े-से मैदान में होती प्रार्थना। हे प्रभु आनंद दाता ज्ञान हमको दीजिए से लेकर हमको मन की शक्ति देना, ऐ मालिक तेरे बंदे हम और भी कई। साथ में एक से बढ़कर एक देशभक्ति व राष्ट्रगीत, वंदे मातरम्, जन-गण-मन। संस्कृत के श्लोक, पीटी, लेझिम, डंबल, सॉसेर प्लेट, स्कॉर्फ के साथ और हां, बैंड, ड्रम, साइड्रम, झांझ, बांसुरी, झुनझुना जिनके साथ मार्चपास्ट भी होता था। साथ में होता था हर शनिवार बाल दिवस।
उन दिनों जोर की आवाज निकाल लेने वाली कोई भी लड़की, जो बिना माइक के भी साआssवधान, वीईssश्राम करा सके, स्पष्ट उच्चारण हो, थोड़ा-बहुत कुछ अच्छा बोलने में कुशल हो, को सिलेक्ट करके प्रार्थना के समय जिम्मेदार बना दिया जाता। न कोई असेंबली, न कोई फोकट की झांकीबाजी। न कोई ऑडिटोरियम। ज्यादा ही हुआ तो हारमोनियम, तबले की संगत से कभी-कभी प्रार्थना हो जाया करती।
जो शारदा स्कूल में पढ़े हैं, उन्हें आज भी याद होगा केवल वो चढ़ाव के पास वाली बेंच, उससे लिपटी हुई पांडव-कौरव फूलों की अनोखी वो बेल जिसे 'राखी का फूल' भी कहते हैं। अंदर क्लास जिसमें जूट की टाटपट्टी, लकड़ी की डेस्क हुआ करती थी। बमुश्किल हमें कभी लाइट-पंखे की जरूरत महसूस हुआ करती थी।
पीने के पानी की एक साधारण-सी व्यवस्था रहती थी। टोंटी वाले नल, जो पूरे शायद ही कभी बंद हो पाते थे। पानी की फुर्रियां उड़ा करती थीं। चुल्लू से पानी पिया करते थे। पूरा चेहरा उन फुर्रियों की बूंदों से रिमझिवेम हो जाया करता था। बाथरूम का कोई खास इंतजाम नहीं था। बड़ी लड़कियां अधबने से बाथरूम में और छोटी मैदान में कहीं भी सुविधा से बैठ जाया करती थीं। 'हाइजीन' नाम की कोई चिड़िया उस समय नहीं हुआ करती थी।
बालसभा में जमीन पर बैठकर आनंद लिया करते। महापुरुषों की जयंती-पुण्यतिथि पर संस्मरण कह-सुन लिया करते। भाषण, तात्कालिक भाषण व कविता प्रतियोगिता हुआ करती। बिना खर्चे और तामझाम के वार्षिकोत्सव मन जाया करते। मोनो एक्टिंग, नाटक, ड्रामा सभी शामिल होता। तीन माही, छमाही, बारहमाही परीक्षाओं का क्रम और कक्षा टेस्ट भी हो जाया करते थे।
पास-फेल के इनाम और कुटाव भी सहन हो जाते थे। पर कभी भी ये सब आज जीवन-मरण का प्रश्न नहीं बने। ठंड, गर्मी, बरसात कोई भी मौसम हो, स्कूल न जाने का कोई कारण ही नहीं होता। मस्त गाते-झूमते, इतराते-उछलते जाना ही होता। ठंड में आसमान को चूमने की कोशिश करता वो यूकेलिप्टस का लंबा बड़ा-सा पेड़ जिसकी जड़ें जितनी जमीन के अंदर होंगी, उतनी ही बाहर भी दिखाई पड़ती थीं, के नीचे ही पढ़ाई हो जाया करती थी।
माथे पर लगे खोपरे के तेल के डल्ले पिघल-पिघल के बहते हुए आगे चेहरे पर बहने लगते थे। तेल्लामतेल मुंह हो जाया करते थे। ठंड में क्लास की जाफरियों से आती सुनहरी धूप को मुट्ठी में पकड़ने का आनंद सारी दुनिया की खुशियां देता था। अनमोल आनंद! परम आनंद!!
आज के लिए इतना ही... फिर मिलेंगे... यादों के मोती समेटने... अगली कड़ी में...!