शाहीन बाग में कपिल नामक युवक द्वारा तमंचे फायर करने का दृश्य जिस तरह से मीडिया में दिखा उसने हर व्यक्ति को डराया होगा। इसलिए नहीं कि उसकी गोली हमारी-आपकी ओर आ सकती थी, बल्कि इसलिए कि इस तरह का समाज में पनपता विचार खतरनाक है।
इसके पहले भी हम शाहीन बाग धरना के अंदर तमंचा लहराते हुए तस्वीर देख चुके हैं। इसके पहले जामिया मिलिया इस्लामिया के बाहर छात्रों पर तमंचा से गोली चलाने वाला एक नाबालिग भी गिरफ्तार हो चुका है। जामिया के गेट पर फिर एक स्कूटर सवार द्वारा गोली चलाने की खबर आई। पता नहीं इसका सच क्या है।
शाहीन बाग में कपिल तथा जामिया में गोपाल का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है किंतु इन्होंने अपराध का रास्ता चुना। इनके पास तमंचा कहां से आया यह सवाल भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अवैध हथियार बड़े-बड़े अपराधों के कारण बनते हैं। यदि इन जैसे युवकों और किशोरों को ऐसे अवैध हथियार मिल सकते हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि इनका निर्माण हो रहा है और यह जहां भी है वहां की पुलिस प्रशासन की भयावह विफलता है। किंतु हमारे लिए यहां मुख्य चिंता शाहीन बाग एवं जामिया के दूसरे पहलू हैं।
कपिल का परिवार दूध का कारोबार करता है। उसका कहना है कि वह यहां नियमित आता-जाता था लेकिन इस धरना के कारण सड़क बंद हो गई और उसे लगातार घाटा हो रहा था। साथ ही उसके एक रिश्तेदार के यहां शादी है, वहां नियमित जाना-आना होता है जिसमें सभी को कई घंटे से ज्यादा समय लग रहा है। इस स्थिति ने उसके अंदर इतना गुस्सा पैदा किया कि उसने वहां आकर सरेआम हवाई फायर किया। उसका कहना है कि वह धरना देने वालों को डराना चाहता था। दूसरी ओर गोपाल का कहना है कि चंदन गुप्ता की दो वर्ष पूर्व हुई हत्या का वह प्रतिशोध लेना चाहता था।
साथ ही जिस तरह से आजादी के नारे लग रहे थे उससे उसे गुस्सा था कि ये सब देश विरोधी हैं। उसने गोली चलाने से पहले पूछा भी कि तुम सबको आजादी चाहिए, लो देता हूं आजादी और गोली चला दिया। सभ्य समाज में इस तरह के हिंसक व्यवहार की अनुमति कभी नहीं मिल सकती। यह निंदनीय ही नहीं आपत्तिजनक है। खतरनाक मनोवृत्ति तो खैर है ही। दोनों गिरफ्तार हैं और कानून अपने अनुसार काम करेगा। किंतु यह कई बातें सोचने पर मजबूर करता है। ऐसी सोच रखने वाला कपिल और गोपाल अकेले नहीं हो सकते। ये दोनों तो देश में उभरे रहे एक पक्ष की भयावह सोच के प्रतिनिधि बनकर सामने आ गए हैं।
आप सोचिए, जामिया में अपनी गोली से एक छात्र को घायल करने वाले गोपाल को किसी तरह का अफसोस नहीं है। उसने अपने फेसबुक पर काफी कुछ लिखा है और यह तक कि मारना और मर जाना है। भले इस सच को स्वीकार करने से बहुत सारे लोग हिचकते हैं, लेकिन सच यही है 2016 में जेएनयू में आजादी के नारे लगने या उससे एक वर्ष पहले लौटें तो मुंबई हमले के अपराधी याकूब मेमन की फांसी को रुकवाने के लिए रात में उच्चतम न्यायालय खुलवाने और उसकी शव यात्रा में हजारों लोगों के उतरने के समय से देश में गुस्सा बढ़ना आरंभ हुआ।
जिस तरह नेता, एक्टिविस्ट और मीडिया का एक वर्ग आजादी के नारे लगाने वालों के पक्ष में खड़े हुए, संतुलित बयान की जगह केवल पुलिस और सरकार पर हमला करते रहे उससे आक्रोश ज्यादा बढ़ा है। इसमें एक खतरनाक पहलू यह जुड़ा है कि भीड़ की हिंसा में जहां मुस्लिम समुदाय के किसी व्यक्ति की मौत हो गई उसे तो बड़ा मुद्दा बनाया गया लेकिन जहां हिन्दू मारे गए वह उस रुप में मुद्दा नहीं बना जबकि दोनों की निंदा समान रुप से होनी चाहिए थी, विरोध के स्वर भी एक समान ही होने चाहिए थे। ऐसा नहीं हुआ है। चाहे चंदन गुप्ता हो या डॉ. नारंग या ऐसे अन्य नाम। गोपाल जैसा 12 वीं में पढ़ने वाला अवयस्क मानसिक रुप से इससे विचलित था और उसने वो कांड कर दिया जिसकी कल्पना उसने स्वयं भी नही की होगी।
नागरकिता संशोधन कानून का जिस तरह से विरोध हो रहा है उसने इस भावना को ज्यादा जटिल और सुदृढ़ किया है। विरोध के आरंभिक दिनों में जिस तरह की हिंसा हुई उसने भी पूरे देश के मानस पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। पीएफआई जैसे संगठनों की इसके पीछे भूमिका से यह संदेश गया है कि कुछ समूह और लोग देश को भयावह सांप्रदायिक आग में झोंकना चाहते हैं। जामिया मिलिया के पास ही एक साथ आधा दर्जन बसों का जला दिया जाना, पुलिस पर पेट्रौल बम फेंकने, पत्थरबाजी आदि की किसी विपक्ष के नेता ने निंदा नहीं की लेकिन पुलिस ने लाउडस्पीकार से बार-बार पत्थरबाजी न करने का आग्रह करने के बाद स्थिति न संभलने पर जब विश्वविद्यालय में प्रवेश कर बल प्रयोग किया तो उसके विरोध में जमीन-आसमान एक कर दिया गया।
पुलिस की भूमिका को लेकर दो राय हो सकती है लेकिन इसका संदेश भी बहुत गलत गया है। आम लोग यह सवाल उठा रहे हैं जब आगजनी, पत्थरबाजी हुई तो कोई विरोध में प्रदर्शन करने नहीं निकला। इसमें शाहीन बाग में सड़क को घेरकर धरना देने की घटना ने देश के बहुमत के गुस्से को और बढ़ाया है। इस धरना को आरंभ करने के सूत्रधारों में से एक शरजिल के खतरनाक वीडियो ने आग में घी का काम किया है।
शाहीन बाग में धरनाकर्ताओं के मन के विपरीत प्रश्न पूछने पर पत्रकारों पर हमला, जो टीवी चैनल उनके अनुकूल नहीं उनको वहां प्रवेश निषेध करना, कुछ पत्रकारों को चिन्हित करके वहां जाने पर हमले की कोशिश आदि का किसी के मन पर सकारात्मक असर तो हो नहीं सकता। उनके पास इस प्रश्न का जवाब नहीं है कि आखिर नागरिकता संशोधन कानून से भारतीय मुसलमानों का क्या लेना-देना है? जब भी यह प्रश्न पूछा जाता है वो एनआरसी और अन्य विषयों की बात करने लगते हैं। इस प्रश्न का कोई स्वीकार्य जवाब तो वे दे नहीं सकते। इससे आम संदेश यह निकला है कि कुछ लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से बिना किसी ठोस कारण के नागरिकता संशोधन कानून के बहाने भयभीत करके कि तुम्हारी नागरिकता छीन ली जाएगी लोगों को विरोध करने, धरना देने के लिए उकसाया है तथा महिलाओं और बच्चों को आगे करके नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए कठिन परिस्थति पैदा करने की साजिश रची है।
वैसे भी शाहीन बाग सड़क पर धरना देना अवैध है और उससे लाखों लोगों को परेशानी हो रही है। लोग उसके विरोध में प्रदर्शन करने के लिए घरों से निकलने लगे हैं। यह बात अलग है कि जो पुलिस शाहीन बाग सड़क घेरकर धरनास्थल में परिणत करने वालों को कुछ नहीं कर पा रही वह इनका विरोध करने वालों को रोकती है या उनको हिरासत में लेकर वापस भेज देती है। इस तरह देखें तो शाहीन बाग ने अत्यंत ही विषाक्त वातावरण देश में बना दिया है।
धरना, प्रदर्शन भी लोकतंत्र में एक व्यवस्था के तहत होता है। सड़क जाम आदि भी आंदोलन के अस्त्र हैं लेकिन कुछ घंटों के लिए या एकाध दिन के लिए। आप डेढ़ महीने से ज्यादा समय तक सड़क घेरकर बैठ जाएं तो पूरी यातायात व्यवस्था चरमरा जाती है, दिल्ली जैसे शहर में लाखों लोगों की जिन्दगी बुरी तरह प्रभावित होती है। आवागमन से लेकर हर स्तर का कारोबार, सरकारी गतिविधियां सब लगभग ठप्प पड़ गया है। यहां तक कि पीएफआई का दफ्तर वहीं है लेकिन पुलिस वहां जा ही नहीं सकती।
हम गोली चलाने वालों की निंदा कर सकते हैं और करनी भी चाहिए लेकिन अगर सारे कारणों को एक साथ मिलाकर विचार करें तो भविष्य की ज्यादा डरावनी तस्वीर उभरती है। विवेकशील लोग तो गुस्से का प्रकटीकरण कानून की मान्य सीमाओं में कर सकते हैं, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ अविवेकी, सिरफिरे ऐसा न कर दें जिनसे स्थिति को संभालना मुश्किल हो जाए। दिल्ली के पुलिस आयुक्त कह रहे हैं कि महिलाओं और बच्चों के कारण वे उन्हें मनाने की कोशिश कर रहे हैं।
हमारी कामना है कि वो मान जाएं लेकिन नहीं मानते तो जिस तरह पुलिस शाहीन बाग धरना के विरोधियों को धरना देने से रोक रही है उसी तरह वह उस धरने को समाप्त करने का भी कदम उठाए। इस समय भविष्य की किसी बड़ी अप्रिय स्थिति को रोकने के लिए यही एकमात्र उपाय है। अगर उन्हें सब कुछ के बावजूद धरना देना ही है तो उसके लिए निर्धारित जगह पर जाएं।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)