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शशि थरुर का बयान बिलकुल अस्वीकार्य

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अवधेश कुमार

शशि थरुर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में हैं। जाहिर है, वे जो कुछ बोलते हैं उनसे पार्टी केवल यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि वह उनका निजी बयान है। हालांकि पार्टी ने उनकी बात का खंडन कर दिया है। यह भी नसीहत दी है कि नेतागण बोलने में शब्दों को सोच-समझकर प्रयोग करें। पार्टी को पता है कि ऐसे बयान के उल्टे राजनीतिक परिणाम होते हैं जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलता है।
 
वे कह रहे हैं कि अगर भाजपा 2019 में फिर से बहुमत पाकर जीती तो भारत 'हिन्दू पाकिस्तान' बन जाएगा। उनके अनुसार वह संविधान में परिवर्तन कर इसे सेक्यूलर की जगह 'हिन्दू राष्ट्र' बना देगी, जहां अल्पसंख्यकों को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा। इसकी वे विस्तृत व्याख्या करते हैं। हालांकि जब वे यह बोल रहे थे तो भले इसमें हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म तथा भारत राष्ट्र के चरित्र के बारे में इनकी अज्ञानता झलक रही थी, पर इसके खिलाफ तीखी प्रतिक्रियाएं होंगी इसका अहसास उन्हें अवश्य रहा होगा। वे कोई नवसिखुआ व्यक्ति नहीं हैं कि अपने बयानों के असर का उनको अनुमान नहीं हो। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अनायास ऐसा बोल दिया हो। उन्होंने जान-बूझकर ऐसा बोला। बाद में जब उन्हें अपने बयान पर खेद प्रकट करने के लिए कहा गया तो उन्होंने उल्टे प्रतिप्रश्न किया कि मुझे समझ में नहीं आता कि किस बात पर खेद प्रकट करूं? इसका अर्थ हुआ कि कांग्रेस पार्टी जो भी कहे, शशि थरुर अपने बयान पर कायम हैं।


उन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा कि मैंने पहले भी ऐसा कहा है और आगे भी कहूंगा। भाजपा ने इस पर जैसी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और इसे हिन्दुओं एवं हिन्दुस्तान का अपमान बताया, उससे साफ है कि अगले चुनाव तक शशि थरुर की ये पंक्तियां उसी तरह गूंजती रहेंगी, जैसे पिछले चुनाव में कांग्रेस एवं यूपीए सरकार द्वारा प्रयुक्त हिन्दू आतंकवाद, भगवा आतंकवाद। ऐसी बातों का भारत के बहुसंख्य वर्ग पर सीधा असर होता है और वे इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया देते हैं। वैसे भी थरुर ने जो कहा, सबसे पहले तो उसका कोई ठोस आधार ही नहीं है। इसके पहले केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी की 6 वर्षों तक सरकार रही। संविधान में ऐसे किसी परिवर्तन की चेष्टा नहीं की गई। उस दौरान संविधान समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति वेंकटचेल्लैया की अध्यक्षता में एक समिति अवश्य बनी जिसने अपनी रिपोर्ट भी दी थी। वह एक स्वाभाविक कदम था। एक अंतराल के बाद हमें अपने संविधान की समीक्षा करते रहना चाहिए। इससे उनमें कोई कमी है, तो उसका पता चलता है तथा उसके अनुसार संशोधन कर दुरुस्त किया जा सकता है। 
 
उस रिपोर्ट में ऐसा कुछ नहीं था जिससे संविधान में आमूल परिवर्तन की आशंका पैदा हो। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भी 4 वर्ष से ज्यादा सरकार के हो गए। अभी तक इसने एक भी कदम ऐसा नहीं उठाया है जिससे यह माना जाए कि उसका इरादा वाकई संविधान के सेक्यूलर चरित्र को बदल डालने का है। इसके विपरीत प्रधानमंत्री ने स्वयं 'संविधान दिवस' मनाने की शुरुआत कराई है। मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में पिछले करीब 15 वर्षों से भाजपा की सरकारें हैं। वहां भी कोई एक कदम नहीं बताया जा सकता जिससे यह साबित हो सके कि अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों और ईसाइयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश हुई।

 
इस तरह थरुर की ऐसा आशंका भाजपा सरकारों के अभी तक के अनुभवों के आधार पर निर्मूल साबित होती है। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो यह तुलना वाकई हिन्दुओं और भारत का अपमान है। एक आम हिन्दू का चरित्र कभी भी मजहबी कट्टरता, धर्मांधता और धर्म के नाम पर हथियार उठा लेने का नहीं रहा है। कभी-कभी एकाध सिरफिरे खड़े भी हो गए तो उसे समाज में समर्थन नहीं मिला। थरुर की समस्या यह है कि वे पश्चिमी सोच में ढले व्यक्ति हैं, जहां धर्म और सेक्यूलरवाद की परिभाषा बिलकुल अलग है। वहां के लिए धर्म एक विशेष उपासना पद्धति है जिसके एक संस्थापक हैं तथा जिनको मानने वाले अपने एक धर्मग्रंथ से समस्त प्रेरणा लेते हैं। उसका एक संगठित ढांचा भी है।

 
हिन्दू धर्म का मर्म थरुर की समझ से बाहर है। वे उसी तरह के मजहबों की तरह हिन्दुत्व को भी समझते हैं। हालांकि विवाद होने पर उन्होंने बयान देने के लिए जो जगह चुनी, वहां उनकी कुर्सी के पीछे अलग-अलग देवताओं की प्रतिमाएं थीं यानी वे यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि मैं स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति हूं। पता नहीं कितने धार्मिक हैं वे? देवताओं की प्रतिमा रखने या कर्मकांड के अनुसार पूजा करने से भी आप हिन्दू धर्म को नहीं समझ सकते। यहां न कोई एक उपासना पद्धति है, न कोई एक धर्मग्रंथ और न इस धर्म का कोई संस्थापक। साथ ही इसका कोई संगठित ढांचा भी नहीं है। ऐसा हो भी नहीं सकता।
 
हिन्दू धर्म से ज्यादा व्यापक सोच और सहिष्णुता किसी अन्य धर्म में आपको मिल ही नहीं सकती। थरुर और उनके जैसे लोग गांधीजी को बार-बार उद्धृत करते हैं किंतु हिन्दू धर्म के संबंध में उनके विचार शायद वे समझ नहीं पाते। गांधीजी यदि बार-बार कहते हैं कि मैं एक सनातनी हिन्दू हूं और मुझे इस पर गर्व है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि वे अन्य धर्मों को हेय मानते हैं। 
 
वे कहते हैं कि जितना मैंने हिन्दू धर्म को समझा है, इससे सहिष्णु दूसरा कोई धर्म नहीं मिला। यह किसी भी धर्म को अपना स्वीकार कर सकता है। यही इसकी विशेषता है। यह सेमेटिक विचार कभी अपना ही नहीं सकता। एक हिन्दू धर्म के अंदर इतने पंथ, मत-मतांतर हैं, इतनी धर्म पुस्तकें हैं, धर्म और अध्यात्म से संबंधित इतने दर्शन हैं कि इनमें एकरूपता भी नहीं आ सकती। कोई राम को अपना आराध्य मानता है, तो कोई उनका विरोध करता है। कोई ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारता है तो कोई उसे बिलकुल नकारता है। हमारे यहां किसी कर्मकांड के पालन की कोई अनिवार्यता नहीं। जो चार्वाक वेदों को खुलेआम नकारता था, उसे भी हिन्दू धर्म ने एक दर्शन के रूप में स्वीकार कर लिया। थरुर हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के इस सनातन चरित्र को समझ ही नहीं सकते। कोई भी सरकार आ जाए, हिन्दू को उस रूप में कट्टर और दूसरे धर्म से घृणा करने वाला बना ही नहीं सकता। हिन्दू के लिए सभी धर्मों का मूल तत्व एक ही है। जब ऐसा हो ही नहीं सकता, तो उसकी आशंका क्यों? साफ है कि इसके पीछे नासमझी और राजनीति है।

 
भाजपा एवं संघ परिवार को लेकर राजनीति आरंभ से यही प्रचार करती रही है कि उसका विचार अल्पसंख्यक विरोधी है, वे भारत का पूरा चरित्र बदल देंगे, राज्य का एक धर्म हो जाएगा और दूसरे धर्मों के लिए इसमें कोई जगह नहीं होगी। दुनिया में ऐसे इस्लामिक देश हैं, जहां दूसरे धर्मावलंबियों को कोई अधिकार ही नहीं है। इस तरह का थियोक्रेटिक स्टेट यानी मजहबी राज्य भारत कभी हो ही नहीं सकता।
 
वैसे थरुर और उनके समर्थकों को यह जानकारी होनी चाहिए कि आधुनिक काल में 'हिन्दू राष्ट्र' शब्द का सबसे पहला प्रयोग महर्षि अरविंद ने अपने प्रसिद्ध 'उत्तरपारा' भाषण में किया। क्या वे दूसरे धर्मों के विरोधी और सांप्रदायिक थे? उस समय तक तो संघ पैदा भी नहीं हुआ था। स्वामी विवेकानंद भी भारत के बारे में यही धारणा रखते थे। क्या आप उनको धर्मांध कह सकते हैं? स्वयं गांधीजी धर्म को 'राज्य की आत्मा' कहते थे। उनका कहना था कि बिना धर्म के राज्य आत्माविहीन शरीर के समान हो जाएगा। आज जो भी ऐसा बोलेगा उसे सेक्यूलर विरोधी और सांप्रदायिक करार दे दिया जाएगा। किंतु धर्म से अर्थ यहां कर्तव्यों से है। हमारे हिन्दू धर्म में धर्म का अर्थ है- जो धारण किया जा सके यानी जो आपका कर्तव्य है, वही धर्म है। 
 
यह सामान्य चिंता की बात नहीं है कि शशि थरुर जैसे व्यक्ति को भारत के 'हिन्दू पाकिस्तान' जैसा दुनिया की नजरों से गिरा हुआ, धर्मांधता की हिंसा में फंसा देश बन जाने का खतरा नजर आता है। पाकिस्तान के चुनाव में आतंकवादियों ने अवामी नेशनल पार्टी के नेताओं को खूब निशाना बनाया है। वे कह रहे हैं कि यह पार्टी इस्लाम में विश्वास नहीं करती। क्या भारत में इसकी हम कल्पना तक कर सकते हैं? पाकिस्तान में आजादी के वक्त करीब 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक थे, जबकि आज इनकी संख्या 2प्रतिशत से भी कम है। इसके उलट भारत में आजादी के समय मुसलमानों की संख्या 9 प्रतिशत थी जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी 14 प्रतिशत से ज्यादा है। यह दोनों देशों और उनके लोगों के संस्कारों में अंतर का ही सबूत है। किंतु ऐसा कहने वाले थरुर अकेले नहीं हैं।

उनकी सोच के लोगों की एक बड़ी संख्या इस देश में है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे देश में ऐसे लोग हर राजनीतिक एवं बौद्धिक क्षेत्र में बड़ी हस्ती माने जाते हैं जिनको अपने देश, धर्म आदि के विषय में सही जानकारी तक ही नहीं है। हालांकि उन्होंने जो कहा है, उसके खिलाफ देश में वाकई तीव्र प्रतिक्रिया है और इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है।

 

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