एक अजीम शख्सियत, हरदिल अजीज, विरोधी भी जिनके कायल, दिल्ली की सूरत बदल देने वाली आधुनिक दिल्ली की शिल्पकार शीला दीक्षित का एकाएक जाना न केवल दिल्ली बल्कि देश की राजनीति में भी बड़ा शून्य है। हर वक्त चेहरे में पर हल्की और प्यारी-सी मुस्कान लिए कभी किसी को निराश न करने वालीं शीलाजी के काम का तौर-तरीका दूसरे नेताओं की तुलना में बेहद अलग था।
अपने धुर विरोधियों को भी मुरीद बनाने वालीं शीला दीक्षित का औरा ही कुछ इस तरह का था कि उनसे मिलते ही लोग न केवल कायल हो जाते थे बल्कि तारीफ किए बिना नहीं रह पाते थे। इतना ही नहीं, उनके खुशमिजाज व्यवहार का नतीजा ही था कि बड़े-बड़े अफसर भी उनके हुक्म के अंदाज को अपना फर्ज समझते थे।
वे आईएएस अफसरों को 'बेटा' तक कहकर पुकारती थीं। यही वजह है कि चाहे कैबिनेट के सहयोगी हों या सचिव स्तर के अधिकारी योजनाओं और प्रस्तावों को पूरा करने की जुगत निकाल ही लेते थे। नौकरशाहों के बीच ऐसी लोकप्रियता भी विरले राजनेताओं में देखने को मिलती है। इसी तमीज और तहजीब, जो उनके रग-रग में थी, ने उन्हें दूसरों से जुदा बनाया।
दिल्ली की लाइफलाइन बन चुकी दिल्ली मेट्रो के लिए उन्होंने केंद्र में भाजपा सरकार के रहते ही ऐसा तालमेल बैठाया कि प्रोजेक्ट ने ऐसी गति पकड़ी कि उन्हीं के मुख्यमंत्री रहते पूरा भी हुआ। फ्लाई ओवरों की श्रृंखला के जरिए यातायात को सुगम बनाकर ट्रैफिक का दबाव घटाना, एक समय दिल्ली में किलर बस का दर्जा पा चुकी ब्ल्यू लाइन बस सर्विस बंद कराना, सीएनजी के जरिए प्रदूषण कम करना और पूरे दिल्ली में लाखोलाख पेड़ लगाकर हरी-भरी दिल्ली बनाने के उनके काम ने दिल्ली में उन्हें एक अलग स्थान दिलाया और वे दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश की 'इंफ्रा क्वीन' बन गईं।
उनकी खासियत थी कि वे जो भी काम करती थीं, उसकी डिजाइन से लेकर हर छोटी-बड़ी चीजें खुद ही तय करती थीं। यहां तक कि बसों का रंग भी उन्होंने तय किया। विपक्ष ने भी राजनीति से इतर उनके कामकाज को खूब सराहा। शीला दीक्षित एक दूरदर्शी नेता थीं। बहुत आगे की सोच रखकर काम करती थीं। रोडमैप ही नहीं, उस पर कैसे काम करना है, उन्हें पता होता था।
31 मार्च 1938 पंजाब के कपूरथला में जन्मीं शीला कपूर के व्यक्तित्व में हमेशा हैरिटेज सिटी कपूरथला की नजाकत झलकती थी। कपूरथला में नाना नरसिंह दास के घर में पलीं-बढ़ीं शीला दीक्षित की प्राथमिक पढ़ाई वहीं के 'हिन्दी पुत्री पाठशाला' में हुई। बाद में आगे की पढ़ाई के लिए वे दिल्ली आ गईं। मिराण्डा हाउस कॉलेज में दाखिला लिया और उन्हें शादी का ऑफर डीटीसी की 10 नंबर बस में मिला, जो उनके सहपाठी और पसंदीदा विनोद दीक्षित ने दिया।
शीला सकुचा गई थीं जबकि यह उनके दिल की बात थी। इसके बाद घर आकर खूब नाचीं थीं। जब दोनों के परिवार को इसका पता चला तो विरोध भी हुआ। प्राचीन भारतीय इतिहास की स्टूडेंट रहीं शीला की पढ़ाई के दौरान ही विनोद से पहचान हुई और शादी तक की तैयारी के बीच दोनों ने बहुत धैर्य रखा।
विनोद आईएएस की तैयारी में जुटे गए तो शीलाजी ने मोतीबाग के एक नर्सरी स्कूल में 100 रुपए की पगार में नौकरी कर ली। 2 साल बाद दोनों की शादी हुई। राजनीतिक परिवार से जुड़े विनोद दीक्षित 1959 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी बने।
शीलाजी के ससुर उप्र के जाने-माने राजनीतिज्ञ उमाशंकर दीक्षित थे, जो भारत के गृहमंत्री भी बने। परिवार के प्रति भी काफी लगाव था। उनके पति की मौत ट्रेन सफर के दौरान हार्टअटैक से हुई। 1991 में ससुर की मृत्यु के बाद उन्होंने परिवार की राजनीतिक विरासत को बखूबी आगे बढ़ाया।
बेटा संदीप और बेटी लतिका हैं। दोनों को उन्होंने हमेशा अनुशासन का पाठ पढ़ाया। जब वे महज 15 साल की थीं तो उनके मन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने का खयाल आया और वे उनके 'तीन मूर्ति' वाले बंगले के लिए अपने 'डुप्ले लेन' के घर से पैदल ही निकल पड़ीं। गेट के दरबान ने भी उनकी इच्छा पूरी की और अंदर जाने दिया। नेहरूजी अपनी कार से निकल रहे थे तब उन्होंने उन्हें रोका तो नेहरूजी ने हाथ हिलाकर जवाब दिया।
अपनी आत्मकथा को एक पुस्तक 'सिटीजन दिल्ली, माई टाइम्स, माई लाइफ शीर्षक' में उन्होंने कई रोचक प्रसंग लिखे हैं। इसमें किस तरह वे राजनीति में आईं, किस तरह 10, जनपथ की करीबी बनीं और कैसे कपूरथला की कपूर परिवार की शीला दिल्ली के स्कूल-कॉलेजों में पढ़ीं-बढ़ीं और सत्ता के शीर्ष पर पहुंच 15 वर्षों तक मुख्यमंत्री रहीं।
कड़ी आलोचनाओं और कितनी भी तीखी या तल्ख टिप्पणी से विचलित नहीं होने वालीं शीला दीक्षित कभी न तो झल्लाती थीं और न ही आपा खोती थीं। काम करने का श्रेय न लेकर काम होने में यकीन ने उनको सबका चहेता बनाया था। उनका सपना था कि दिल्ली को सिंगापुर की तर्ज पर विकसित किया जाए। इसी मिशन के तहत उन्होंने 15 बरस तक दिल्ली को खूब सजाया-संवारा।
उप्र के कन्नौज से 1984 में सांसद बनीं शीला दीक्षित 1986 से 1989 तक केंद्र में मंत्री रहीं। जब 1998 में पहली बार दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं तो उनके भविष्य को लेकर हर कोई सशंकित भी था। माना जा रहा था कि बाहर से आकर ज्यादा दिन टिक नहीं पाएंगी।
लेकिन उनके राजनीतिक हुनर ने सबको धराशायी कर दिया। उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया और तब भाजपा की दिल्ली सरकार के विकल्प के तौर पर कांग्रेस को प्रोजेक्ट किया गया और इस तरह 1998 में कांग्रेस की न केवल दिल्ली में सरकार बनीं बल्कि वे मुख्यमंत्री भी बन गईं और लगातार 3 बार 15 वर्षों तक रहकर दिल्ली की सूरत ही बदल दी। हाल ही में उन्हें दिल्ली कांग्रेस की दोबारा कमान सौंपी गई थी।
कुछ विवादों के बीच व अस्वस्थता के बावजूद जिम्मेदारी निभाते हुए वे दुनिया को अलविदा कह गईं। देश के लिए बेमिसाल बन इंफ्रा क्वीन कहलाने वाली शीला दीक्षित ने राजनीति में रहते हुए भी विकास की जो गाथा लिखी निश्चित रूप से देश के लिए न केवल बेमिसाल बल्कि अनुसरण करने वाला होगा।