देवयानी,
भरी दोपहरी में सुस्ताता रामगढ़ का रेलवे स्थानक। धुआं हांफती एक रेल वहां आ पहुंचती है और खादी वर्दी पहना पुलिस अफ़सर प्लेटफॉर्म पर उतरता हैं।
उसका इंतज़ार कर रहा शख़्स उसे लेकर स्टेशन से बाहर आता है। स्टेशन से बाहर आते ही दो घोड़ों पर सवार होकर वे रामगढ़ की और चल पड़ते है...
दोनों घुड़सवारों के ताल से ताल मिलाकर शुरू होता भारतीय सिनेमा का सबसे ज़बरदस्त और बेहद शानदार बैकग्राउंड म्यूजिक।
सालों गुज़र गए पर शोले फ़िल्म का शुरुआती दृश्य और उसके साथ जुड़ा संगीत लोग आज तक नहीं भूल पाए हैं।
किसी फ़िल्म के गानों से साथ साथ उसका पार्श्वसंगीत भी यादगार बन जाएं ऐसा बहुत कम होता है। लेकिन शोले इस बात का पुख़्ता उदाहरण है।
1975 में आई इस मूवी ने हिंदी सिनेमा में नया इतिहास रचा। मज़े की बात तो ये थी की फ़िल्म जब प्रदर्शित हुई तो पहले कुछ दिनों तक दर्शकों की प्रतिक्रिया एकदम ठंडी थी। फ़िल्म फ्लॉप होने की कगार पर थी।
बहरहाल, धीरे-धीरे, रफ़्ता रफ़्ता गाड़ी पटरी पर आ गई। फ़िल्म का असर अपना जादू दिखने लगा। बुझते अंगारों में से 'शोले' जमकर धधकने लगे।
टिकिटों का ब्लैक मार्किट तेजी पर आ गया। बॉक्स ऑफिस पर धूम मच गई। 'अरे ओ साम्बा' जैसे डायलॉग बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर खेलने लगे। सिनेमाघरों पर हाउसफुल के बोर्ड चढ़ने लगे जो उतरने का नाम ही नहीं लेते थे।
जनता ने इसे भर-भर के प्यार दिया, सर आंखों पे सजाया।
शोले से जुड़े हर कलाकार की तक़दीर चमक उठी। जहां एक तरफ़ धर्मेंद्र के कॅरियर में एक और सितारा जड़ गया, वहीं दूसरी और अमज़द ख़ान के रूप में एक सशक्त चरित्र कलाकार बॉलीवुड में दाख़िल हुआ।
सलीम ज़ावेद के करारे डायलॉग्स देशभर तूफ़ान मचाने लगे तो हमारे पंचम दा- द ग्रेट आरडी बर्मन का संगीत लोकप्रियता की नई बुलंदियां छूने लगा।
पिक्चर दनदनाती रफ़्तार से दौड़ रही थी और इसी दौरान बॉलीवुड के नए शहंशाह बड़े शान से, क़दम दर क़दम अपने तख़्त की तरफ़ आगे और आगे बढ़ते चले गए।
ज़ंजीर ने अमिताभ बच्चन को स्टार बना दिया था और शोले ने उन्हें बना दिया सुपरस्टार! शोले जैसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनती। ऐसी फ़िल्में एक नहीं बल्कि कई पीढ़ियों पर अपना जादू बिखेरतीं है। वक़्त के साथ-साथ उनका रंग भले ही फ़ीका पड़ जाए पर उतरता कतई नहीं है।
शोले पिक्चर थिएटर में देखने वाली एक पूरी पीढ़ी उम्र का मध्यांतर पार कर चुकी है। बालों में चांदी जरूर आए गई उनके पर दिल पर चढ़ा शोले का रंग आज तक नहीं उतरा।
उम्र की सीढ़ी उतरते हुए आज मैं जब पीछे मुड़कर कर देखती हूं तो समझ में आता हैं की शोले मेरे लिए और मेरे जैसे न जाने और कितने लोगों के लिए केवल एक सिनेमा ही नहीं बल्कि और भी बहुत कुछ है।
शोले मेरे लिए मेरे बचपन से जोड़ता एक पुल है। मल्टीप्लेक्स की भीड़ में सिंगल स्क्रीन की सौंधी याद है। 70 एमएम का रोमांच है, एक लार्जर देन लाइफ़ तूफ़ान है। शोले मेरे लिए बसंती की बकबक है, गब्बर का ख़ौफ़ हैं.. शोले मेरे लिए मनोरंजन की सौ प्रतिशत गारेंटी है।
आज भी ये मूवी देखने बैठ जाती हूं तो मन में खुशी की सरसराहट सी दौड़ जाती है। रामगढ़ के प्लेटफार्म पर ट्रेन आ के रुकती हैं और ख़यालों के पंख लगाए मैं पहुंच जाती हूं किसी सिनेमाघर में।
सामने पर्दे पर पंचम दा की धुन छा जाती है तो बरबस ही मेरे होठों पर मुस्कान आ जाती हैं। दिल के किसी कोने में 'सीट बैक, रिलैक्स एंड एन्जॉय योर फ्लाइट' अनोउंसमेंट सुनाई देती हैं। मैं अब आराम से कुर्सी पर जम जाती हूं।
थिएटर का ठंडा अंधियारा शाल की तरह ओढ़ लेती हूं और अगले तीन घंटों के लिए शोले की जादुई दुनियां की सैर करने निकल पड़ती हूं।
इस महीने इस फिल्म को प्रदर्शित हुए पैंतालीस साल हो गए पर शोले आज भी सदाबहार है। हिंदी सिनेमा के इतिहास का शोले एक स्वर्णिम पन्ना है।