धनतेरस से घरों में दीपावली की जगमग प्रारंभ हो जाती है। यह तैयारी बीते काल में भगवान श्रीरामचन्द्रजी की वनवास अवधि समाप्ति एवं उनके अवध आगमन तथा राज्याभिषेक को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा से जुड़ी हुई है।
कालांतर में समय के साथ सरयू में बहुत पानी बह चुका है और पता नहीं कब और कैसे हम अपने आराध्य को भूलकर, माया के आधिपत्य में घिरकर, लक्ष्मी पूजन को इस अवसर पर मुख्य पूजा उत्सव की तरह मनाने लगे हैं। अब तो शायद ही कोई हो, जो इस दिन लक्ष्मी पूजा छोड़कर श्रीराम की स्तुति पूजा कर उस उल्लास की स्मृति करता हो, जो कि श्रीराम के आगमन से अयोध्या के घर-घर में उमड़ा होगा।
उत्सवों को मनाने में विषयों का इतना महत्व नहीं है जितना कि उसे दूसरों की खुशियों के लिए मनाने में है। अगर हम उत्सव-पर्व के समय ये बात ध्यान रख लें कि हमारे नजदीक, आसपास कुछ कमजोर या गरीब लोग भी रहते हैं और उनके सामने हमें अपनी विलासिता, चमक-दमक का दिखावा नहीं करना है, तो हमारा यह प्रयास उन्हें ज्यादा खुशियां दे सकेगा। और यह खुशी उनके लिए कहीं ज्यादा अनमोल होगी बनिस्बत उस उपहार के, जो हम उन्हें पर्वों पर देते हैं।
पता नहीं कौन-कैसे, किस स्थित-परिस्थिति से गुजरकर अपने बच्चों और परिवार के लिए पर्व की खुशियां इकट्ठी करता है और हो सकता है कि उनकी वो खुशी का क्षण हमारी विलासिता देखकर एक पल को ठहर जाए या उनकी उमंग एक क्षण को अवसाद में बदल जाए! इसी तरह की अन्य छोटी-छोटी-सी बातों को ध्यान में रखकर मनाया गया हमारा पर्व ही सही मायने में उत्सव होता है, जो चारों ओर खुशियां बिखेरता है न कि सिर्फ चारदीवारी के अंदर!
पर्व-उत्सव खूब उत्साह से मनाइए, उपहार भी बांटिए लेकिन बस यह ध्यान रहे कि हमारे अपने वैभव का अतिरेक प्रदर्शन कहीं किसी के दिलरूपी दीपों से भरी दीपावली की खुशी को फीका या मद्धिम न कर दे!
ईश्वर हम सभी को सादगी से पर्व मनाने की प्रेरणा प्रदान करे, यही प्रार्थना! इसके लिए हमें ज्यादा कुछ नहीं करना है, बस! खुशी का हाथ बढ़ाइए, इसे और फैलाइए!