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जीवन का प्राकृत स्वरूप ही उत्सव है

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

, गुरुवार, 6 अगस्त 2020 (10:12 IST)
जीवन क्या है? क्या नहीं है? यह तय करना सरल भी है और चुनौतीपूर्ण! एक समझ यह भी है कि जीवन केवल जीवन है, उससे कम या ज्यादा कुछ भी नहीं। पर यह तो बात को बढ़ने ही नहीं देना है या शुरू होते ही खत्म करना है। जीवन सनातन होकर निरंतरता का एक ऐसा सिलसिला है, जो जन्म और मृत्यु का नियंता है। जन्म, जीवन के अंश जीव का साकार होना है और मृत्यु, जीव का निराकार में लीन हो जाना है।
 
इस तरह जीवन को सागर की लहरों की तरह जीव के साकार से निराकार होने का अंतहीन सिलसिला भी मान सकते हैं। जीव के लिए जीवन सबसे महत्वपूर्ण समय है जिसके समाप्त होते ही जीव का साकार स्वरूप भी अनंत में व्याप्त हो जाता है। जीव, जीवन की महत्ता और उसके साकार स्वरूप का दीवाना है। इस कारण जीव की मूल चाहना प्राय: यह होती है कि वह साकार स्वरूप में रहे, अनंत निराकार में जल्दी न समाए।
 
शायद हम में से अधिकतर जीव के प्राकृत स्वरूप में स्वयं तक ही सीमित न रहकर जीवन में हर प्रसंग का उत्सव मनाना चाहते हैं। प्रतिदिन सोना-जागना, उठना-घूमना, खाना-पीना-कमाना आदि-आदि। शायद रोजमर्रा की एकरसता को बदलने के लिए हम सब जीवन के हर प्रसंग में सदैव कुछ-न-कुछ उत्सव करने की सहज चाहना रखते हैं।
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इसका नतीजा यह है कि हम में से कई मनुष्यों को यह लगता है कि बिना उत्सव का जीवन भी कोई जीवन है, पर यह भी वस्तुस्थिति है कि मनुष्य के अलावा कोई अन्य जीव मनुष्यों जैसा उत्सव नहीं मनाते हैं। उन सबका जीवनक्रम ही एक तरह से उत्सव है। मनुष्येतर जीवों की अपनी भावाभिव्यक्ति तो हम महसूस कर पाते हैं, पर मनुष्य द्वारा सृजित उत्सव परंपरा पर मनुष्यों का एकाधिकार जैसा लगता है, पर वास्तविकता में ऐसा है नहीं। मनुष्येत्तर जीवन में उत्सव की अभिव्यक्ति का ढंग निराला है। उसे देखने के लिए एक अलग अनुभूति और उत्सवदृष्टि होना जरूरी है।
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जीवन के रूप-स्वरूप, आकार-प्रकार और जीवनचक्र में बहुत अधिक विविधताएं हैं। मनुष्य के अलावा जीवन के उत्सव की अभिव्यक्ति देखने या अनुभव करने के लिए जीवन की अभिव्यक्तियों को देख पाने के लिए एक दृष्टा भाव और अनुभूतिमय धीरज जरूरी है। मनुष्येत्तर उत्सव परंपरा का एक निश्चित प्राकृतिक क्रम है। वह मनुष्य की तरह सुविधानुसार और सकारण किसी निमित्तानुसार नहीं होता। जैसे वसंत ऋतु में आम पर मौर आना या आम का बौराना आम के उत्सव का प्रारंभ है। आम पर फल आने की शुरुआत छोटी-छोटी कैरियों से लेकर लटालूम आमों से पेड़ का लद जाना आम की उत्सवधर्मिता का चरम है।
छोटे-बड़े बच्चों से लेकर कई तरह के पक्षियों का 'आम फल उत्सव' में अधिकारपूर्वक भागीदारी करना- यह सब आम वृक्ष की उत्सव परंपरा की धीर-गंभीर प्राकृत व्यवस्था का हम सबको अहसास कराता है। आम के मौरों पर मंडराने वाली मधुमक्खियां उत्सव की शुरुआत में ही उत्सव के सानंद समापन की आधारभूमि तय कर देती हैं। कभी किसी वर्ष आम के पेड़ पर मौर नहीं आते और उस साल केवल नए-नए पत्ते ही आते हैं और नए पत्तों को पतझड़ आने तक बिना किसी उत्सव या चहल-पहल के ही सूनेपन के सान्निध्य से ही संतोष करना होता है।
 
हरसिंगार पर जो फूलों की बहार आती है तो हर सुबह अपनी आधारभूमि को हरसिंगार अपने पुष्पों की चादर ओढ़ाकर जीवनदात्री धरती का अभिनंदन करता है। हरीतिमा से सराबोर गेहूं और धान के खेतों में उत्सव की शुरुआत बालियों की बारात निकलने से होती है तो मक्का, जुवार व बाजरा के भुट्टों का आगमन अनाज उत्सव की शुरुआत कर छोटी-बड़ी चिड़ियाओं को भोजन उत्सव का खुला मौन निमंत्रण दे देता है।
 
ठंड की शुरुआत होते ही न जाने कितने रंग-बिरंगे फूलों के खिलने पर रंग-बिरंगी तितलियों को अपने आसपास निरंतर अठखेलियां कर तितलियों का उड़ान उत्सव अपने आप समूची अवनी और अम्बर को रंगीन बना देता है। तरह-तरह की सुगंधों से सराबोर मोगरा, चमेली, रातरानी जैसे छोटे-छोटे फूल सारे वातावरण में खुशनुमा खुशबू व्याप्त कर उत्सव की सूचना हर दिशा में फैला देते हैं। ठंड की बिदाई और गर्मी का आगमन सारे उत्सवों को संन्यास परंपरा की ओर धकेल देता है। सन्नाटे की कड़ी धूप में जीवन की सारी चहल-पहल ध्यानस्थ गतिविधिविहीन संन्यासी बन जाती हैं। हरीतिमा से भरपूर जंगल, पहाड़, घास के मैदान जलविहीन यानी जीवनविहीन हो धीरे-धीरे पीले पड़ते जाते हैं और गर्मी में गेरुआ रूप-रंग धारण कर लेते हैं।
 
इस तरह निस्तब्ध संन्यास शांति से अपने आपको एकाकार कर मौन को मुखर कर देता है। गर्मी में झुलसा हुआ सूखा जीवन बारिश की बूंदों के स्पर्श मात्र से अलसाये सुप्त जीवन को सब कहीं नए उत्सव के आगमन सूचना देने को आतुर हो धरती में चारों ओर व्याप्त सूखे संन्यास के प्रतीक गेरुआ रंग को फिर से कल-कल बहती छोटी-बड़ी नदियों के पानी में अपने अल्पकालीन ग्रीष्मावकाशी गेरुआ रंगरूपी संन्यास को धोकर उसे अनंत जल में प्रवाहित करते हुए धरती के जीवन में हरियाली और खुशहाली के नए उत्सव की उद्घोषणा करता है।
 
बरखा की बूंदें जीवन का ही उत्सव हैं, यह संदेश दे धरती के हर कण में बदलाव का नया दौर जीवन के नए-नए अंकुरों का उदय कर पुन:जीवन उत्सव में भागीदार बनने का अवसर देता है। हम सब जो जीवन के किसी-न-किसी रूप में इस धरती पर जीव के रूप में व्यक्त हुए हैं। हम सब चाहें-न-चाहें, मानें-न-मानें हम सबका जीवन ही उत्सव है। तभी तो जीव मात्र की उत्सवधर्मिता जीवनभर गतिशील रहकर इस धरती में जीवन को सतत प्रवाहमय बनाए हुए है।
 
इसी से हर समय सहज प्राकृत स्वरूप में उत्सव हमें और हमारी धरती के सभी जीवों के जीवन के सनातन क्रम को हर क्षण नए जीवनचक्र में आगे बढ़ाते हैं और जीवन के उत्सव प्रसंगों से जीवन का क्रम तथा अर्थ समझाते रहते हैं। इसी से जीवन और उत्सव हमारे जीवन में सनातन रूप से रचे-बसे हैं। तभी तो हमारी धरती पर सारे जीवों का जीवन ही उत्सव है। जीवन को उत्सव कहना तो सरल है।
 
पर जीवनभर मनुष्यों का मन आशा-निराशा, राग-द्वेष, लोभ-लालच और सत्य-असत्य के आसपास ही घूमता रहता है। मनुष्येत्तर जीवन में ये सब मौजूद नहीं हैं। जीवन अपने प्राकृत स्वरूप में ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है जिसमें मूलत: जीवन की जीवंत हलचलें ही होती हैं। जीवन की जीवंत हलचलें ही उत्सवों का सृजनात्मक स्वरूप हैं, जो सारे जीवों में भिन्न-भिन्न रूपों में निरंतर अभिव्यक्त होता है। 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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