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किसी बात का लोड नहीं लेती इस जमाने की नई पीढ़ी

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स्वरांगी साने

(फाइल फोटो)
अब एक एकदम नई पीढ़ी सामने है, यह पीढ़ी सोशल ऐप वाली है। वे वहां स्टोरी डालते हैं, रील बनाते हैं, फ़ोटो भेजते हैं, फ़ॉलोअर्स बनाते हैं और जैसा मन करता है, वैसे जीते हैं। उनकी मानें तो वे ज़्यादा लोड नहीं लेते। इनकी अपनी भाषा है और आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि गूगल ने भारत में हिंग्लिश पर लोकलाइज़ेशन का प्रस्ताव दिया है। तमाम तरह के लोड लेना या लोड न लेना, उनकी भाषा को समझना हो तो उनसे ठीक एक पिछली पीढ़ी या उससे पिछली पीढ़ी और उससे पिछली पीढ़ी को देखना होगा।

इनसे पिछली पीढ़ी के बड़े होते हुए खुली आर्थिक नीति के दरवाज़े खुल गए थे, पूंजीवाद अपनी सफलता की चमक दिखाने लगा था और उनके लिए अच्छी नौकरी पाने का लोड था। उनके पैदा होने के साथ ही सैटेलाइट क्रांति हुई थी और उन बच्चों ने बड़े होते हुए अपने आसपास के घरों से परदे पर दिखने वाले घरों को बहुत अलग पाया था, वे उस तरह के घर, उस तरह का मेकअप-ड्रेसअप चाहने लगे थे। उससे पहले की पीढ़ी पर पढ़ाई का बोझ था। अच्छी पढ़ाई करने से ही अच्छी नौकरी मिल सकती है और अच्छी नौकरी ही अच्छी जीवन शैली दे सकती है, मैकाले की शिक्षा नीति का बोझ उस पीढ़ी पर पूरे दमखम से हावी हो चुका था।

उससे पहले की पीढ़ी कई भाई-बहनों वाली थी, कमाने वाला एक और खाने वाले कई होते थे। आर्थिक तंगी के चलते रोज़मर्रा का जीवन ही ठीक से बीत जाए, उतना ही बहुत होता था। उससे पहले की पीढ़ी के समय आज़ादी मिली ही थी और संक्रमण का अलग दौर था, और उससे पहले तो दो सौ साल की गुलामी थी ही।

आज की पीढ़ी इन सभी तनावों-बोझों से दूर है। अमूमन वे सिंगल चाइल्ड हैं, अमूमन उनके पास वह सब है, जो अच्छी जीवन शैली के लिए आवश्यक है। देखा जाए तो उनके सिर पर वैसा कोई लोड (बोझ) नहीं है। स्कूल-कॉलेजों का वातावरण भी उतना ही फ्रैंडली है और घर का भी। अभिभावक उनसे दोस्ताना व्यवहार कर रहे हैं और वे अभिभावकों को दोस्तों की तरह ही ट्रीट कर रहे हैं, कभी-कभी उनके ही शब्दों में बहुत हल्के में भी।

बड़ों की बात मानने से अधिक उन्हें गूगल और यू-ट्यूब पर भरोसा है। एक क्लिक में सब ढूंढ लेने का आत्मविश्वास उनके पास है, इसलिए उन्हें मनुष्यों की वैसी कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। मनुष्यों की ही ज़रूरत नहीं तो रिश्ते-नातों की ज़रूरत भी क्यों हो भला। सामने दिख जाए तो वे हंस-बोल लेंगे, दूर चले जाएं तो टाटा-बाई-बाई कर देंगे। पहले पान की गुमटी या स्थानीय परिवहनों पर लिखा होता था आओ तो वेलकम, जाओ तो भीड़ कम... अब यह लाइफ़स्टाइल में शामिल हो गया है। वे किसी का बोझ नहीं उठाते, अल्टीमेटली वे वही सब करते हैं, जो वे करना चाहते हैं।

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