बिहार की मधुबनी पेटिंग्स को अपनी आंखों से साक्षात जीवंत देखना हो तो आपको मूलतः मधुबनी की शार्दुला नोगचा से मिलना चाहिए। इंजीनियरिंग जैसे क्लिष्ट विषय में दक्ष होते हुए भी सरलता, सुंदरता और मधुरता उनके व्यक्तित्व का मूल है।
कोटा से स्नातक की पढ़ाई, जर्मनी से स्नातकोत्तर और सिंगापुर में निवास, इतने विविध प्रांतों-देशों की यात्रा करने वाली शार्दुला जी जब इंदौर आती हैं तो मालवा की मिठास उनकी आमद से और भी दुगुनी हो जाती है।
उनके अपने व्यावसायिक जगत में उनकी पहचान तेल खनन विशेषज्ञ के रूप में है, लेकिन हिंदी जगत में उनका नाम कविताओं की विशेषज्ञ के रूप में है।
सिंगापुर में उन्होंने कविताई मंच स्थापित किया तो जैसे दुनिया भर के कविता जगत में ताज़ी बयार छा गई। ताज़ी बयार-सी ही रही उनकी उपस्थिति... हरी सलवार-कमीज़ और हरी बड़ी गोल बिंदी में जब वे रूबरू हुईं तो परिवार के किसी सदस्य की तरह ही आत्मीय लगीं।
कोरोना काल के ठीक पहले सिंगापुर में हैप शुरू हुआ, यह एक ऐसा आयोजन था, जिसके ज़रिए कई हिंदी भाषी आपस में जुड़ गए। लोगों का आपसी संपर्क बढ़ा। संपर्क तो बढ़ गया, लेकिन कविता केंद्रित काम नहीं हो रहा था, इसलिए उन्होंने संस्थागत तरीके से काम शुरू किया। कविताई की स्थापना केवल कविता पर केंद्रित काम करने के लिए हुई। वे कहती हैं, मुझे लगता है किसी भाषा में भागने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है, पहले भाषा में मुस्कुराना तो सीखें फिर उस भाषा में विचार करें, सो कविताई की स्थापना हुई।
गंभीरता से काम शुरू किया गया। कविता की पाठशाला शुरू की गई जिसमें देश-विदेश से कई लोग ऑन लाइन जुड़े। कविताई के बैनर तले हमने कई काम किए, अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं आयोजित कीं।
हम उस खाई को पाटना चाहते थे जो कविता से दूरी बढ़ा रहा था। लीक से हटकर अंतर जहां था, उसे भरने का काम करती रही, मुझे भागना नहीं है, कहीं जाने-पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है। बावज़ूद मैं कोई क्विक फ़िक्स फ़ार्मूला भी नहीं चाहती थी।
कविताई एक संस्थान की तरह काम करे, शार्दुला के नाम से नहीं, मेरे न होने पर भी यह काम जारी रहे। कविताई से जुड़े लोग बहुत गंभीर हैं, अपने-अपने क्षेत्र में सिद्धहस्त हैं और हड़बड़ी में सफलता नहीं चाहते।
हिंदी कविता में प्रवासी भारतीय के रूप में उनकी पहचान है, वे विश्वरंग के आयोजनों से जुड़ी रही हैं और भारत प्रवास में वे सिंगापुर को इस तरह याद करती हैं कि वहां के स्थानीय लोग जैसे ही किसी भारतीय को देखते हैं, तुरंत वणक्कम कह उठते हैं।
सिंगापुर में बड़ी भारी तादाद में भारतीय हैं, खासकर तमिलभाषी इसलिए वहां उत्तर-दक्षिण भारत का भेद नहीं दिखता, वहां हर भारतीय को खुश करने के लिए उससे नमस्ते की जगह वणक्कम कहा जाता है।
सिंगापुर में हिंदी को लेकर वे कहती हैं चूंकि वहां की शिक्षा प्रणाली में द्वि भाषा फ़ार्मूला है और वहां की चार राष्ट्रीय भाषाओं (अंग्रेज़ी, सिंगापुरी मंदारिन, मलय के साथ तमिल वहां की राष्ट्रीय भाषाओं में से एक है) में से कोई एक लेने के साथ छात्रों को दूसरी भाषा के रूप में किसी मातृभाषा को चुनना पड़ता है तो अंग्रेज़ी के अलहदा अधिकांशतः हिंदी का चयन किया जाता है जो सिंगापुरी मंदारिन, या अन्य पंच भाषाओं के तय समूह जिसमें हिंदी, बांग्ला, गुजराती, उर्दू,तमिल, में हिंदी बनिस्बत आसान लगती है।
भारतीय मूल के हिंदी को चुनते हैं, दक्षिण भारतीय तमिल लेते हैं, लेकिन कई तेलुगु बच्चों को तमिल नहीं पढ़नी होती तो वे भी हिंदी ले लेते हैं, क्योंकि उनके लिए तमिल या सिंगापुरी मंदारिन या मलय से हिंदी आसान है।
उनके अनुसार इसकी एक वजह यह भी है कि वहां बसे भारतीय इस भाषा के ज़रिए खुद को अपने देश से जुड़ा पाते हैं। वहां गुजराती समाज है, मारवाड़ी मित्र मंडल है, मराठी भाषियों का बहुत बड़ा मंडल है, बांग्ला भाषियों का टैगोर समाज है। हर तरह के पर्व-त्योहार बड़े विधिवत मनाए जाते हैं। वहां हिंदू त्योहारों को अधिक धूमधाम से मनाया जाता है, दीवाली का राष्ट्रीय अवकाश होता है और हिंदी फ़िल्मों का बड़ा क्रेज़ है।
कॉलेज स्तर पर दूसरे देशों के छात्र भी हिंदी लेते हैं। कुछ छात्र किसी विदेशी भाषा को सीखने की ललक से हिंदी लेते हैं, क्योंकि वे सिंगापुरी मंदारिन भाषा तो पहले से जानते हैं, अंग्रेज़ी भी जानते ही हैं।
कई इंटरनेशनल स्कूल खुलते गए तो वे भी हिंदी भाषा पढ़ाने लगे। लेकिन वे यह भी कहती हैं कि हिंदी तो वहां थी, लेकिन हिंदी के प्रति प्रेम नहीं था। हिंदी का स्थान बहुत ऊंचा नहीं था। उन्हें अंग्रेज़ी के समकक्ष कोई भाषा रखनी थी या मेंडरिन के समकक्ष एक भाषा रखनी थी तो जो सिंगापुरी मंदारिन या तमिल में पढ़ाया जाता था उसी का हिंदी रूपांतरण कर अध्याय के रूप में हिंदी उनके सामने आई।
हिंदी भाषा उन लोगों तक सूचना, ज्ञान-विज्ञान या जानकारी के रूप में आती है, साहित्य के लिहाज़ से नहीं।
प्रेमचंद या शरतचंद की कोई कहानी, सुभद्रा कुमारी चौहान या दिनकर की कोई कविता उन्होंने नहीं पढ़ी थी। वहां बसे भारतीयों के परिवारों के संस्कारों ने हिंदी को बढ़ावा दिया। साहित्य में भी केवल कविता पर अपना काम केंद्रित करने की उनकी यात्रा ने उन्हें वर्ष 2015 में हिंदी प्रेरणा पुरस्कार दिलवाया और इसके बाद पुरस्कारों की लंबी फेहरिस्त बनती चली गई.. जो आज भी जारी है।