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जोधपुर की हिंसा प्रशासन की विफलता का परिणाम

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अवधेश कुमार

, रविवार, 8 मई 2022 (12:51 IST)
राजस्थान में पहले करौली और अब जोधपुर की हिंसा ने पूरे देश में चिंता पैदा की है। जोधपुर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का गृह नगर भी है।

वे कह रहे हैं कि उन्होंने संपूर्ण जीवन धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए लगाया है। आखिर ऐसी सफाई देने की नौबत उनके समक्ष आई है क्यों? वे यह भी कह रहे हैं कि अपराधी किसी भी धर्म के हो उनको हमने बख्सा नहीं है और पुलिस कार्रवाई कर रही है।

गहलोत और उनके समर्थकों की नजर में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या है इसे भी उन्हें स्पष्ट करना चाहिए। करौली में नव संवत्सर के अवसर पर निकाली गई शोभायात्रा पर हमले और उसके बाद की कार्रवाईयों निर्भीक निष्पक्षता अभी तक नहीं दिखी है। सच यही है कि अगर करौली घटना के बाद पुलिस प्रशासन ने पूरी सख्ती दिखाई होती,शोभा यात्रा के हमलावर और इसके पीछे के षड्यंत्रकारी पकड़े जाते तथा इनसे पूछताछ करके राज्य भर में ऐसे लोगों की धरपकड़ होती तो जोधपुर की हिंसा देखने को नहीं मिलती।

करौली हिंसा का पूरा सच सामने था, लेकिन सरकार भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आरोप लगाने में ज्यादा शक्ति खर्च करती रही है। इसका एक छोटा हिस्सा भी मजहबी कट्टरपंथी जिहादियों पर फोकस होता तो राजस्थान की तस्वीर बदल जाती।

वास्तव में करौली हिंसा पूरे राजस्थान में सतह के अंदर व्याप्त स्थिति का एक प्रकटीकरण मात्र था। निश्चय ही उसके बाद खुफिया रिपोर्टों का अध्ययन सरकार ने किया होगा।

यह संभव नहीं कि एक ही दिन ईद और परशुराम जयंती होने के कारण तनाव, हिंसा व आगजनी आदि की संभावनाएं खुफिया रिपोर्टों में नहीं होगा। इसे ध्यान में रखते हुए निश्चित रूप से संवेदनशील स्थानों पर सख्त सुरक्षा व्यवस्था व हिंसा रोकने के उपाय के कदम उठाए जाने चाहिए थे।

यही नहीं, देशभर में हिंदू धर्म तिथियों से जुड़े शोभा यात्राओं पर हुए हम लोगों ने यह भी साफ कर दिया कि बड़ी संख्या में भारत विरोधी तत्व देश में सांप्रदायिक हिंसा फैला कर एकता अखंडता को बाधित करना चाहते हैं। उम्र में पकड़े गए लोगों से पूछताछ के बाद कई ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जो भय पैदा करते हैं।

जाहिर है उसके बाद ज्यादातर राज्य सरकारों ने स्थिति की समीक्षा कर उसके अनुसार सुरक्षा व्यवस्था में बदलाव किए हैं। राजस्थान हिंसा का शिकार हो गया था, इसलिए वहां की सरकार की भी जिम्मेदारी थी कि पूरी स्थिति की समीक्षा कर नए सिरे से सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता करें।

प्रश्न है कि गहलोत सरकार ने इसे ध्यान में रखते हुए क्या कदम उठाए? अशोक गहलोत सरकार के गृह मंत्री कह रहे हैं पुलिस की सभी संवेदनशील स्थानों पर पुख्ता व्यवस्था की गई थी। तो फिर घटना क्यों घटी?

परशुराम जयंती पर शोभायात्रा निकालने की घोषणा हो चुकी थी। निर्धारित रूट पर यात्रा के आयोजकों ने जगह-जगह भगवे झंडे लगाए थे। चूंकि प्रशासन ने शोभा यात्रा की अनुमति दी थी, इसलिए यह जिम्मेवारी उसकी ही थी कि कहां झंडे लगें और कहां नहीं लगे। यदि आरंभ में उसने शर्त लगाई होती कि कहीं झंडे नहीं लगेंगे तो नहीं लगता। हालांकि सच यह भी है कि बाद में प्रशासन ने यात्रा के आयोजकों से बातचीत की और ज्यादातर जगहों से भगवा झंडे हट गए। भारी संख्या में लगे होने पर 2-4 झंडे का छुट जाना अस्वाभाविक नहीं था।

उन्हीं में से एक स्थान स्वतंत्रता सेनानी बालमुकुंद बिस्सा की प्रतिमा वाला सर्किल था। यहां आधी रात के बाद कुछ मुस्लिम युवक आए, उन्होंने भगवा झंडा निकाल कर फेंक दिया तथा उसकी जगह सफेद कपड़े पर हरे रंग से चांद सितारे बने झंडे लगाने लगे। इसका विरोध होना ही था। झंडा लगाने का विरोध करने वालों की संख्या कम थी तो झंडा लगाने वालों ने जवाब हमले से दिया। बताया गया कि उन्होंने न केवल झंडे लगाए बल्कि प्रतिमा के मुख पर एक टेप लगा दिया।
सच जो भी हो लेकिन इससे तनाव बढ़ गया। यहां पुलिस प्रशासन को न केवल त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए थी बल्कि स्थिति न बिगड़े इसके पूर्वोपाय के अनुसार सुरक्षा व्यवस्था होनी चाहिए थी।

ऐसा नहीं हुआ। आरोप तो यह भी है कि पुलिस ने हिंदुओं के विरुद्ध भी कार्रवाई शुरू कर दी। जब दोनों समुदायों के लोग एकत्रित थे तो पुलिस की भूमिका क्या होनी चाहिए?

हैरत की बात देखिए कि मुस्लिम समुदाय के कुछ घरों से पत्थर चलाए गए, जिनमें हरे रंग से रंगे पत्थर भी थे। है न अजीब स्थिति। इसमें पुलिसकर्मी भी घायल हुए। एक जगह शांति होती तब तक दूसरी और तीसरी जगह पत्थरबाजी शुरू हो गई। कोई चारा न होने पर पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा।

लेकिन ऐसा होने के बाद भी पुलिस की आंखें शायद पूरी तरह नहीं खुली। दूसरे दिन जो कुछ हुआ उसे हर दृष्टि से एक समुदाय के कुछ लोगों के बढ़े हुए मनोबल तथा पुलिस कमजोरी का ही परिणाम माना जाएगा। ईद की नमाज के लिए भारी संख्या में लोग एकत्रित हुए। नमाज खत्म होने के साथ ही धार्मिक नारे लगने लगे। अनेक हाथों में तलवारें लहराने लगी। इसके साथ पत्थरबाजी शुरू। एक युवक को चाकू घोंप दिया गया। अनेक वाहनों को तोड़ा गया तथा दो दर्जन से ज्यादा बाइक को आग के हवाले कर दिया गया।

10 एटीएम मशीनों में भी तोड़फोड़ की सूचना है। इस तरह  की हिंसा का मतलब पहले से थोड़ी बहुत तैयारी थी। कुछ लोग हिंसा करने के लिए तैयार बैठे थे, अन्यथा ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिसकी प्रतिक्रिया में लोगों ने तोड़फोड़ हिंसा या आगजनी की।

स्थानीय भाजपा विधायक सूर्यकान्ता व्यास के घर पर हमला हुआ और मोहल्ले में तेजाब की बोतलें तक फेंकी गई। स्थिति बिगड़ने के बाद प्रशासन को मजबूर होकर कर कर्फ्यू लगानी पड़ी।

कहने की जरूरत नहीं कि प्रशासन स्थिति का सही आकलन न कर पाने के कारण छोटे-मोटे उपाय करके मानता रहा है कि कुछ बड़ा नहीं होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रशासन ने घटना घट जाने का इंतजार किया। सामान्यतः ईद के पूर्व प्रशासन शांति और एकता समितियों की बैठक करता है।

खुफिया इनपुट के आधार पर हर स्तर की सुरक्षा तैयारी होती है। आवश्यकता पड़ने पर कुछ लोगों को हिरासत में लिया जाता है या गिरफ्तार किया जाता है। ऐसा भी राजस्थान में देखने को नहीं मिला। वास्तव में पुलिस प्रशासन सरकार यानी राजनीतिक नेतृत्व के निर्देश या उसकी सोच के अनुसार ही काम करता है।

उत्तर प्रदेश इसका उदाहरण है कि अगर राजनीतिक नेतृत्व कानून और व्यवस्था के प्रति संकल्पबद्ध हो तो इस स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है।

1947 के बाद पहला अवसर है जब उत्तर प्रदेश में अलविदा का कोई नमाज सड़क पर अता नहीं किया गया। सड़क पर नमाज अता न करने का अर्थ है कि अभी तक जानबूझकर ऐसा होता रहा। यानी मस्जिदों में इतनी जगह थी कि नमाज आराम से अता किए जा सकते थे। संभल में छोटी घटना हुई।

उसके बाद पुलिस प्रशासन ने जैसी सख्ती की वह सामने है। पूरे रमजान के महीने में कोई एक अवांछित घटना नहीं घटी। हर तरह की शोभा यात्राएं निकलीं और शांतिपूर्वक संपन्न भी हो गईं। उत्तर प्रदेश में कई हजार धर्म स्थानों से अवैध लाउडस्पीकर हटाए गए और भारी संख्या में लगे लाउडस्पीकरों की आवाजें कम की गई। कहीं किसी ने इसके विरोध में आक्रमता या हिंसक प्रतिक्रियाएं देखी? इससे दूसरे राज्य सरकारों को भी सीख लेनी चाहिए। जो उत्तर प्रदेश में हो सकता है वह कहीं हो सकता है। बस, राजनीतिक नेतृत्व के अंदर सकल्प होना चाहिए कि हमें कानून शासन की अवधारणा कायम रखनी है।

इसके उलट राजस्थान में जगह-जगह सड़कों पर नमाज़ पढ़े गए और यातायात कई घंटे पूरी तरह ठप रहा। लाउडस्पीकरों की गूंज वैसे ही रही जो पहले थी। मुख्यमंत्री गहलोत चाहे स्वयं को धर्मनिरपेक्षता के प्रति जितना प्रतिबद्ध बताएं या कानून की सख्ती का दावा करें सच्चाई सामने है।

जब आप किसी समुदाय की गलतियों, कानून के उल्लंघनों की लगातार अनदेखी करते हैं तो उनसे असामाजिक कट्टरपंथी तत्वों का मनोबल बढ़ता है और वे इसका अपने तरीके से लाभ उठाते हैं। करौली मैं शोभायात्रा पर हुआ हमला इसी का परिणाम था। राजस्थान की इस मायने में स्थिति का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि वहां के अखबार वैसे लेख तक छापने से बचते हैं जिनमें कहीं तार्किक दृष्टि से भी मुस्लिम समुदाय के रवैये पर प्रश्न खड़ा किया किया गया हो। पूछने पर बताया जाता है कि वे लोग कार्यालय में धमक जाते हैं, हल्ला करते हैं।

राजस्थान में काम करने वाले ज्यादातर पत्रकारों या वहां के अखबारों में लिखने वालों को इसका अच्छी तरह पता है। कोई पूरा समुदाय आक्रामक नहीं होता, लेकिन वहां कुछ सक्रिय तत्वों का मनोबल इतना बढ़ जाए तो यह प्रशासन के इकबाल का परिचायक नहीं हो सकता। अच्छा हो कि ना केवल राजस्थान की गहलोत सरकार बल्कि दूसरी भी राज्य सरकारें इस से सीख ले और उसके अनुसार प्रशासनिक व्यवहार करें।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)

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