हमेशा ठगा तो दर्शक ही जाता है। चाहे वह टेलीविजन का हो या फिर क्रिकेट का। निश्चित रूप से याद आया होगा कुछ साल पहले बेहद चर्चाओं में रहा एक शब्द था मैच फिक्सिंग!
टीआरपी को लेकर जिस तरह से एकाएक कई सच उजागर हुए उसके बाद यह मानना ही पड़ेगा कि आंखों देखी ठगी का शिकार टीवी देखने वाले होते हैं। मैच फिक्सिंग भी यहां और टीआरपी फिक्सिंग भी। ऐसे शिकारों का दर्द भी दोहरा होता है। एक तो पैसे देकर अपने मुताबिक प्रोग्राम की सूची बनवाते हैं दूसरा इन्हें ही देखते हुए कब ठगी, झूठ का शिकार हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। शायद यह भी लोग कहें कि क्या फिल्मों या स्टेज शो वगैरा में ऐसा नहीं होता? होता है लेकिन वहां पहले शो के बाद परफॉर्मेंस का पता चल जाता है उसके बाद लोग खुद-ब-खुद फैसले लेकर देखने जाते हैं इसलिए अनजाने कोई ठगी का शिकार नहीं होता।
टेलीविजन में लाइव प्रसारण या जो भी कुछ दिखाया जाता है वह देखने वाले को पता नहीं होता है और न ही उसका कोई पूर्वालोकन ही होता है। इसलिए टीवी पर पैकेज के मुताबिक सारे चैनलों पर चल रहे कार्यक्रमों को देखना विवशता ही तो है!
जहां देश की आबादी 136 करोड़ के लगभग है वहीं कुल टीवी सेट्स की संख्या 20 करोड़ और दिखने वाले विभिन्न भाषाई चैनलों की संख्या 900 के लगभग है। स्वाभाविक है चैनलों की आपसी होड़ नियम, नियमावली और करार से ज्यादा विज्ञापनों पर केन्द्रित होती है। विज्ञापन के लिए लोकप्रियता का पैमाना तय करने के लिए तकनीकी रूप से टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइण्टस पर एक उपकरण फिक्स होता है जो वहां देखे जा रहे चैनल, कार्यक्रम आदि का डेटा कलेक्ट कर साप्ताहिक रेटिंग जारी करते हैं जो चैनलों की लोकप्रियता का क्रम बताता है।
सुशांत सिंह राजपूत मामले के बाद सुर्खियां बटोरने और टीआरपी में बने रहने की होड़ में कई खबरिया चैनलों ने कंटेन्ट (वो सभी चीजें होती हैं जिन्हें हम किसी माध्यम से देखते, सुनते, पढ़ते या समझते हैं और उनसे जानकारी प्राप्त कर विश्वास करते हैं या फिर खुद का मनोरंजन करते हैं) जिसकी प्रमाणिकता और विश्वनीयता की बची-खुची आत्मा को ही मार दिया। चौबीसों घण्टे, सातों दिन हफ्तों चले इंसाफ की दुहाई में विश्व में दूसरे क्रम की जनसंख्या वाले देश में तमाम मुद्दे गौण हो गए। कोरोना तक पीछे हो गया। आरोपी, फरियादी, वकील और जज की भूमिका निभाते चैनलों की चीख, चिल्लाहट के बीच आज सुशांत का मामला वहीं पर दिख रहा है जहां पर देश के तमाम इस तरह के मामलों की फेहरिस्त है।
सच में पूरा देश सुशांत को इंसाफ दिलाने के हक में था और है लेकिन अफसोस कि इतने बड़े देश में लगातार हफ्तों सुबह से शाम और प्राइम टाइम से लेकर आधी रात के बाद भी न्यूज चैनल खोलते ही सुशांत पर खुलासा करने वाले सारे के सारे चैनल एकाएक खलास हो गए?
दरअसल, टीवी कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर उंगलियां तो काफी पहले से उठ रहीं थीं लेकिन हाल के टीआरपी घोटाले के बाद यह साफ हो गया है कि यहां भी खेल फिक्सिंग का है। शायद इसीलिए दर्शकों ने उबाऊ, भड़काऊ या बिकाऊ जैसे संक्षिप्त या कहें एक तरह से निक नेम बना रखे हैं कई चैनलों के।
इसी बीच टीआरपी घोटाला एकाएक सामने आया और लोगों में चैनलों के प्रति एक गुस्सा भी दिखा। फिक्सिंग का खेल यहां भी चल रहा था. त। आम भारतीय जनमानस में पहली बार यह धारणा बननी शुरू हुई कि चैनलों में प्रसारित होने वाली सामग्रियां क्यों जनसरोकारों से दूर होती जा रही हैं। विज्ञापन बटोरने के लिए काला-पीला करने वाला फिक्सिंग का खेल यहां भी खेला जा रहा था।
कुल 40 हजार घरों में फिक्स टेलीविजन रेटिंग प्वाइण्ट्स बैरोमीटर लगे थे। यूं तो ये गुप्त होते हैं लेकिन सच यह निकला कि तय घरों में तय चैनलों को देखने के लिए फिक्स थे। खुलासा मुंबई में हुआ जिस पर भी खूब हो हल्ला मचा और टीआरपी के हमाम में आरोपित या संदेही चैनलों ने भी एक दूसरे की इज्जत तार-तार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। किसी चैनल का नाम लेना ठीक नहीं है पाठकों को सब पता है और देखा है।
लेकिन सवाल वही कि क्या अब भी टीवी चैनलों की विश्वनीयता जस की तस है? निश्चित रूप से जब देश में एकमात्र दूरदर्शन की वह भी सीमित स्थानों से शुरुआत हुई थी तब भी आरोपों से घिरा था और आज जब दूरदर्शन में सीमित अवधि का कार्यक्रम प्रसारित कर देश का ब्रान्ड बने चैनलों और बाद में एकाएक आए ढ़ेरों दूसरे चैनल आपसी प्रतिस्पर्धा में खुद को सबसे तेज कहने की होड़ में हैं, तब भी सवाल वही का वही है।
इसी बहस के बीच बीते महीने ही आईएएनएस और सी वोटर मीडिया ट्रैकर सर्वे से पता चला कि 63.1 % लोगों ने माना कि कोरोना के बाद पाठकों के लिए समाचार-पत्र अधिक भरोसेमंद हो गए। जबकि 31.2% इससे असहमत थे। वहीं 75.5% ने कहा कि समाचार-पत्रों में समाचार और घटनाक्रम सही ढंग से दिए जाते हैं जबकि 12.5% ऐसा नहीं मानते हैं। सर्वे में 72.90% लोगों ने माना कि टीवी न्यूज चैनलों की बहस से ज्यादा अच्छी जानकारी समाचार-पत्रों से मिलती है।
वहीं 21.50% इससे असहमत थे। इसी तरह 65% लोगों ने माना कि समाचार-पत्रों के विज्ञापन ज्यादा उपयोगी होते हैं। वहीं 76.5% लोगों का मानना था कि वे टीवी चैनलों के विज्ञापन से चीजें नहीं खरीदते हैं जबकि 18.5% ने इससे असहमति जताई। निश्चित रूप से आज भी प्रिन्ट मीडिया की साख और धाक को कोई चुनौती नहीं है। इसकी वजह साफ है कि यह एक दस्तावेज के रूप में भी हिफाजत से सहेजे जा सकते हैं और कंटेंट का चयन बेहद संजीदगी व सावधानी से किया जाता है जो अस्तित्व में आने से अब तक बना हुआ है। इनमें प्रकाशित होने वाले हर लेखों में कोई न कोई संदेश होता है।
साथ ही जब भी जरूरत पड़े सामने फिर से देखे जा सकते हैं। जबकि टीवी के कार्यक्रम बार-बार न तो रिपीट होते हैं और न ही इन्हें नियमित रूप से सहेज पाना हर किसी के बस मे है। शायद यही कारण है कि टीवी चाहे वह मनोरंजन चैनल हों या खबरिया महज एक अलग नजरिए से देखे और भुला दिए जाते हैं। हो सकता है कि चैनल भी अपनी हकीकत को समझते हों। इसीलिए मौका मिला नहीं कि रीति, नीति और नैतिकता से भी अलग कई बार बेवजह की डिबेट्स और कार्यक्रमों को परोस कर प्रयोग करते रहते हैं।
भारत में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों जिनमें दैनिक, पाक्षिक एवं साप्ताहिक भी शामिल हैं की संख्या लगभग 1 लाख 15 हजार के करीब है। जिनमें 98 हजार के लगभग पत्र-पत्रिकाओं की श्रेणी के हैं। वहीं इनके प्रसार के दावों को देखा जाए तो यह 50 करोड़ के आसपास पहुंचता है। समझा जा सकता है कि पहुंच, प्रभाव और प्रसार की दृष्टि से भी समाचार पत्रों की होड़ टीवी चैनलों से नहीं हो सकती। टीआरपी का असली-नकली खेल कुछ भी हो, पत्र-पत्रिकाओं की साख और विश्वनीयता से टीवी चैनलों तुलना ठीक नहीं। शायद इसीलिए सर्वे में भी यही सच सामने आया है।
लेकिन क्या टीवी चैनल इतना सच व सब कुछ जानने के बाद भी अक्सर अपने चौंका देने वाले तेवरों और तेज आवाज में भड़काऊ तर्ज पर चीखने, चिल्लाने वाली अदाओं से समाचार-पत्र, पत्रिकाओं की तुलना में काफी पीछे होकर भी आगे होने का भरम तोड़ पाएंगे? यह तो वही जाने लेकिन दर्शक हों या पाठक उन्हें परोसे जाने वाली सामग्री की विश्वनीयता और उससे भी बढ़कर नैतिकता की कसौटी पर कब खरे उतरेंगे जिसकी उम्मीद कम से कम भारत जैसे विभिन्न बहुभाषा-भाषी संस्कृति, पूर्वजों की विरासत और सांस्कृतिक धरोहरों वाले भगवान राम, बुध्द, महावीर के अलावा चाणक्य, विवेकानन्द, गांधी, नेहरू, इन्दिरा, जयप्रकाश और अटल के देश में की जाती थी और रहेगी।
काश संप्रेषण के सारे माध्यम इसी जनभावना को समझते ताकि विश्व गुरू बनने को अग्रसर भारत का सूचना जगत भी अपनी जिम्मेदारी को गुरूतर भावना से निभा पाता।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)