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जीवन में ऋतुराज वसंत जैसे संतुलित रहें, रमणीय और कमनीय...

हमें फॉलो करें जीवन में ऋतुराज वसंत जैसे संतुलित रहें, रमणीय और कमनीय...
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प्रीति दुबे

मन वसंती ,तन वसंती और यह जीवन वसंती ………..
 
वर्ष में छः ऋतुएँ आती हैं  जिनमें वसंत सबसे मनभावन, सुहावनी और अलबेली ऋतु होती है इसलिए इसे ऋतुराज भी कहा गया है कारण स्पष्ट है :वसंत में धरती का सौंदर्य बढ़ जाना, रूप निख़र आना ,पीत वासंती ,धानी चूनर ओढ़ वसुधा का नववधू सी हो जाना ,अर्थात् नव ऊर्जा, नव सृजन, नव गढ़न ,नवाकर्षण , नव परिवर्तन । नव कोंपल और बल्लरियों और मंजरियों का आगमन। पुष्प, पादप, तरु- खेत सभी को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो धरती का सौंदर्य चरम पर है; ऋतुराज स्वयं पधारे हैं धरिणी का शृंगार करने।
 
इतना लुभावना होता है वसंत और उस पर वसंती बयार जिसके मद्धम झोंके अपनी सुरमयी सुगंधित सुरभि के साथ ले आते हैं कितनी ही मधुर स्मृतियाँ जो हर ऋतु की यादगार क्षणिकाओं को जीवंत करती  हैं।
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यह तो थी धरती के सौंदर्य की बात।दूसरी ओर वसंत ऋतु में वातावरण में भी ग़ज़ब का संतुलन होता है- न ही अत्यधिक सर्दी न अतिशय गर्मी, वातावरण सुखद, रमणीय और कमनीय भी।जहाँ वसंत ऋतु में हर तरफ़ सौंदर्य है ;पर्यावरणीय संतुलन है। 
 
ठीक उसी प्रकार मानवीय जीवन में भी सौंदर्य, नूतनता और संतुलन अत्यावश्यक  है।जिस प्रकार हम वर्ष भर में प्रत्येक ऋतु से गुज़रते हुए वसंत का लुत्फ उठाते हैं,  उमंग -उत्साह से उल्लसित होते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे जीवन काल में भी हम शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था और  वृद्धावस्था से  गुज़रते हैं। जिनमें किशोरावस्था और युवावस्था को जीवन का वसंत काल कहा गया है। 
 
इस अवस्था में स्वभाविक है प्रकृति एवं धरती जैसा परिवर्तन, नव सृजन, कुछ हद तक स्वयं की पसंद ,स्वनिर्णय एवं बाहरी दुनिया के प्रति आकर्षण। मन और विचारों में उतावलापन और चंचल प्रवृति भी देखने को मिलती है जीवन के इस वसंत काल में। इस अवस्था में जहाँ सौंदर्य अपने चरम पर होता है,नवसृजन सृजित होता है वहीं मन और मस्तिष्क में कई प्रकार की इच्छाएँ बलवती और वेगवती हो जाती हैं ..किंतु इस संक्रमणकाल में ही अत्यंत आवश्यक  है वसंत ऋतु जैसा संतुलन।
 
संतुलन से आशय: जीवन हेतु परम लक्ष्य निर्धारण की ,सही दिशा में अग्रसर होने और लक्ष्य प्राप्ति हेतु अर्जुन के समान सिर्फ़ लक्ष्य पर नज़र रखने की अर्थात् भटकाव- बहकाव की स्थिति से बचाव।परन्तु हाँ ,वसंत की ही भाँति नवोत्सर्जन ,नवगढ़न भी अत्यावश्यक है... शिष्ट -विशिष्ट, ख्यात-विख्यात व्यक्तित्व निर्माण हेतु। 
 
ऐसा वसंत जो पतझड़ अर्थात् वृद्धावस्था और जीवन के अंतिम क्षणों तक रहे।उस अवस्था में भी नया जोश नए भाव, नव विचार  नवस्वीकारोक्ति,सकारात्मक और सृजनात्मक सोच हो तो, पतझड़ भी वसंत जैसा ही होगा । वास्तव में आज की युवा पीढ़ी पतझड़ में भी वसंत का एहसास दिला सम्पूर्ण राष्ट्र को तरोताज़ा रख सकती है , क्योंकि आज के युवा कल के प्रौढ़ हैं। यदि जीवन के वसंतकाल को भलीभाँति समझकर सम्पूर्ण जीवन को; जीवन की हर ऋतु ( अवस्था) को वसंत जैसा नया और संतुलित बना लिया जाए तो फिर ये वसंती बहार आपके जीवन की बगिया को सदैव महकाती रहेगी…सुंदर सुमन सदा प्रस्फुटित होते रहेंगे, क्योंकि आँखे निहारना चाहती हैं, हृदय प्रीत करना चाहता है सुंदर सृष्टि से  जो निर्मित होती है नव सृजन से ,नव ऊर्जा से,संतुलन से सभ्य एवं सकारात्मक सोच और व्यक्तित्वों  से। अतः वसंत जैसे संतुलित रहें ,तरोताज़ा रहें ,सदा महकते रहें, हँसते रहें, मुस्कुराते रहें।
 
लेखिका
प्रीति दुबे 
इंदौर: मध्यप्रदेश
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