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मेरा ब्लॉग : मम्मा, मनु और ‘मनी’

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शैली बक्षी खड़कोतकर

“मम्मा, टेन रुपीज़ दो न।”
“किसलिए?”
“पेन लाना है।”
(इसे सारे काम पढ़ते समय ही क्यों याद आते हैं)
“मनु, कल लाए थे न, एक पेन।” 
“वो ब्लैक था मम्मा।”
“और पापा ने जो रिफिल्स लाकर रखी थी?”
“एक भी ढंग की नहीं चलती।”

मम्मा ने सरसरी नज़र डाली। स्टडी टेबल पर 4-5 पेन के अवशेष बिखरे पड़े हैं। मनु तल्लीनता से इनके पोस्टमार्टम में जुटा है। पास के छोटे डस्टबीन में 2-4 के कलपुर्जे झांक रहे हैं, जो उनकी कम-उम्र शहादत की कहानी बयां कर रहे हैं।
 
“मम्मा, फाइटर जेल लाऊं? मस्त चलता है। हर्ष के पास है। 50 का होगा।”
 
“मनु, .....(मम्मा के लेक्चर की सीडी ऑन होने ही वाली है..... पर इस दफे मम्मा ने खुद को रोक लिया है,... इस बारे में आराम से बात करनी होगी।)
 
“बेटा, एग्जाम में ले आना, अभी बॉल पेन चलेगा ?”
“ओके...”
 
 मनु अमूमन जिद नहीं करता। इसलिए उसे मना करना मम्मा को भी बुरा तो लगता है। पर अपनी चीजों को संभाल कर रखना, उनका सही इस्तेमाल करना और खास तौर पर पैसे की कद्र करना तो सीखना होगा न। 
   
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मम्मा जानती है, इस दौर में यह और भी कठिन होता जा रहा है। वह खुद देखती और सुनती है-
 
“अंश को यही घड़ी पसंद आई, 4000 वाली, ठीक है, सब उसी के लिए तो है।”
 
“इरा का बहुत मन था रोलर स्केट्स लेने का। बाहर जगह नहीं है तो घर में चला लेगी, शौक पूरा हो जाएगा”
 
आज परिवारों में बच्चे महत्त्वक्रम में शीर्ष पर है। अभाव तो दूर की बात उन्हें किसी चीज के लिए इंतजार भी नहीं करना पड़ता है। सम्पन्नता के अनुपात में खर्च की प्रवृत्ति में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। अभिभावक पलक-पावड़े बिछाए अपने लाड़लों की हर इच्छापूर्ति के लिए तत्पर है। बाज़ार ने ऐसा आकर्षक चक्रव्यूह रचा है कि पालक खीचें-से चले जाते है और ठगे-से वापस आते हैं। उन्हें पता है, इनमें से कई खर्चे गैर-जरुरी और व्यर्थ है। पर वे बच्चों के लिए ‘बेस्ट पॉसिबल’ करके संतुष्ट है और बच्चे अपनी मनपसंद वस्तु पाकर खुश...
 
खुश ...?  वाकई ....? .........और कितनी देर .......? दूसरी नई चीज़ पर नजर पड़ने तक ....? 
 
 शनिवार रात मम्मा और मनु का रीडिंग टाइम है।
 
“मनु, आज मेरे बचपन की कुछ बातें सुनाऊं?”
“अरे वाह! सुनाओ ना।”
“हम लोग बचपन में थोड़े भोंदू टाइप थे। तुम लोगों की तरह स्मार्ट और शार्प नहीं थे।”
“ओ, वो तो हम ..यू नो..”
“बस-बस ..सुनो,... हमारे पास बहुत खिलौने नहीं थे। कपड़े, जूते, पेन, पेंसिल सब लिमिटेड। नाना अफोर्ड कर सकते थे पर जरूरतें ही उतनी थी और दिखावा बिलकुल नहीं। शायद इसीलिए हम खुश थे, बहुत खुश। ख़ुशी को गहराई से और बहुत देर तक महसूस कर पाते थे।”
 
मनु गौर से सुन रहा है। जैसे इतिहास का कोई राज़ उसके सामने खुलने जा रहा हो।
 
  “फॉर एक्जांपल, गर्मियों में इतनी बड़ी फैमिली में 5-6 बार आइसक्रीम आती होगी। तो उसका इंतज़ार कई दिनों से रहता और बाद में उसका स्वाद भी कई दिनों तक जबान पर तैरता रहता। बड़े खुश होते यह सोच कर कि क्या मज़ा आया। अब तुम लोग जब चाहे, जैसी चाहे आइसक्रीम खा लेते हो, तो उसका क्रेज ख़तम गया है। समझ रहे हो न।”
 
“मार्केट में हर चीज़ हमेशा मिलेगी, हम अफोर्ड कर सकते हैं, इसलिए सब तो नहीं ले सकते। हमें कब क्या चाहिए, ये फैसला तो हमें ही करते आना चाहिए। मनी की वैल्यू समझना चाहिए, बेटा”
 
“पता है मम्मा, 5 रु के नोट की वैल्यू 5 रु ..10 रु के...”
“मनु जोक्स नहीं ..”
“ओके, तो मै हफ्ते में एक बार आइसक्रीम खाऊं?”
 
“अरे वैसे नहीं, बस कोई भी चीज़ लेने से पहले सोच लो कि अभी लेना जरुरी है और लेने पर उसका सही यूज़ करो। भले तुम उतना अमाउंट ले लो, जैसे हफ्ते में 2 पेन लाते हो, तो 20 रु ले लो पर लाओ एक, और 10 पिगी बैंक में।”
“पिगी बैंक से याद आया, गुल्लक पूरा भर गया है. कल फोड़ेंगे।”
 
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 “ग्रेट ! मम्मा, देखो तो, लोगों के पैर पड़-पड़ कर मैंने 11,430 रु जमा कर लिए। ” आशीर्वाद स्वरुप मिले पैसे मनु गुल्लक में ही डालता रहा है।
 
“क्या लेना है?”
“सोच रहा हूं,थोड़े दिनों बाद लें।”
 
(कल का असर दिख रहा है )
 

“पर आपका 10 रु वाला फंडा, वो पैसे गुल्लक में, फिर ये?”
 
“बैंक में अकाउंट खुलवाएं? इंटरेस्ट मिलेगा, पैसे बढ़ेंगे।”
 
“पिगी बैंक से निकालकर लाए हो?” बैंक ऑफिसर लाड़ से पूछ रही है।
 
मनु बैंक से बाहर निकल रहा है, हाथ में पास बुक है और चहरे पर ख़ुशी की दमक. जो शायद ज्यादा स्थायी हो। कम से कम मम्मा को तो यही लग रहा है ....

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