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मेरा ब्लॉग : मजे करो मनु.... छुट्टियां हैं....!

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शैली बक्षी खड़कोतकर

“तो, इस बार मनु क्या कर रहा है, छुट्टियों में?”
 
यह एक ऐसा सवाल है, जो हर गर्मियों में मुंह बाएं खड़ा हो जाता है और मम्मा को उलझा देता है। कारण, प्रचलित अवधारणाओं से मेल खाता कोई संतोषजनक उत्तर मम्मा के पास कभी नहीं होता। इस सम्बन्ध में मम्मा के अपने स्पष्ट विचार हैं, पर वे सामान्यत: स्वीकार्य हो न हो। इसलिए अब मम्मा ने इन सवालों को हंसकर टाल जाने का सुगम मार्ग अपना लिया है। 



 
लेकिन मनु.......? अनंत की मम्मी ने जब यही सवाल मनु पर दागा तो मनु की तत्पर प्रतिक्रिया आई, “आंटी, मैं तो छुट्टियों में बस खूब मस्ती करूंगा, खेलूंगा| टीवी, आराम और नानी के घर जाऊंगा”
 
“ओह! मतलब इस बार भी कोई एक्टिविटी क्लास नहीं...” उनकी आवाज़ में मनु के लिए ‘बेचारा’ जैसा भाव है। “अनंत का रूटीन तो सेट है। सुबह स्विमिंग, फिर स्पोकन इंग्लिश, शाम को वेस्टर्न डांस और कोचिंग तो है ही। टेंथ बोर्ड है, भई इस साल।” मम्मा को याद आया छुट्टियों में तो मनु के हॉलिडे होमवर्क ही बमुश्किल पूरे हो पाते हैं। और इस बार मम्मा ने मनु को समय पर काम ख़त्म करने की हिदायत भी दी है। 
 
“मम्मा, मैं क्रिकेट खेलने जा रहा हूं।” चिल्ले-पिल्ले बच्चों की पलटन घर के सामने है। अनंत की समय-सारणी का मनु पर रत्ती भर भी असर होता न देख, अनंत की अनंत की मम्मी कुछ झुंझलाती हुई विदा ले चुकी हैं। 
 
   मम्मा घर पर अकेली हैं और अपने विचारों की गुफा में प्रवेश के लिए स्वतंत्र। 


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आजकल छुट्टियां शुरू होने से पहले ही घरों में हलचल शुरू हो जाती है। बच्चे छुट्टियों में क्या करेंगे? अख़बारों के बीच लाल पीले पेम्पलेट नजर आने लगते हैं। आस-पास बोर्ड्स-बैनर्स सजने लगते है- ‘हॉबी क्लासेस, ‘समर फनशाला’ डांस, म्यूजिक, आर्ट एंड क्राफ्ट, हैण्ड राइटिंग। यहां तक कि मैनर्स और बिहेवियर तक भी। (क्या शिष्टाचार और व्यवहार भी हम घर पर नहीं सिखा पा रहे हैं?)
 
“आखिर यही तो वक्त है, बच्चों के पास कुछ नया सीखने के लिए। नहीं तो साल भर तो पढ़ाई में लगे रहते हैं।” अधिकांश का यही तर्क है। 
 
हां, सच है, यही तो वक्त है, सीखने का। पर उसके लिए क्लासेस और कैंप जरुरी है क्या? घर में मेहमानों से बतियाते हुए, बगीचे में पानी देते हुए, दादी-नानी से कहानी सुनते हुए और भाई-बहनों के साथ हुडदंग करते हुए, जिन्दगी कितना कुछ सिखा देती है। बल्कि ऐसे बेशकीमती सबक तो किसी औपचारिक कक्षा में नहीं मिल सकते। और सबसे जरुरी बात। जब बच्चे साल भर बंधी-बंधाई दिनचर्या में जी ही रहे हैं, तो कम से कम छुट्टियों में तो उन्हें खुला छोड़ दें। छूटते-फिसलते बचपन को भरपूर जी लेने दें। 
 
 हमने तो खेलों को भी औपचारिक प्रशिक्षण की सीमा-रेखा में बांध दिया है। मैदान तो अब बचे नहीं और सड़कों-गलियों में तेज रफ्तार वाहनों का कब्ज़ा है। इसलिए जगह-जगह स्पोर्ट्स क्लब उतर आए हैं| नन्हे-मुन्नों को भारी-भरकम किट लादे हुए देख लगता है, खेलने नहीं जंग पर जा रहे हैं। निश्चित ही कुछ बच्चों में विलक्षण प्रतिभा होती है और उन्हें क्षेत्र विशेष में सही प्रशिक्षण मिले तो कमाल कर सकते हैं। पर वह नियमित साधना है। सिर्फ छुट्टियों में व्यस्त रखने या ऑल राउंडर बनाने की कवायद का क्या औचित्य?
 
मम्मा शायद कुछ ज्यादा ही सोच रही है। मन पीछे भाग रहा है और अपना बचपन सामने आ खड़ा हुआ है। 
क्या ही मजे के दिन थे! गर्मी की छुट्टियां लगती और घर बच्चों की पलटन से गुलज़ार हो उठता। बच्चों की दिनचर्या सेट करने की न किसी के पास फुरसत थी, न जरूरत। सुबह से जो धमाचौकड़ी शुरू होती, रात तक थमने का नाम नहीं लेती। तयशुदा कुछ नहीं होता, जो जी में आए करते। सुबह कभी किसी की अमराई से कैरी चुराते, तो कभी दौड़ते-भागते टेकरी पर चढ़ आते। दोपहर को वानर-सेना को घरों में कैद रखने कई मज़ेदार साधन जुटाए जाते। कॉमिक्स, अष्ट-चंग-पै, ताश, कैरम....और सेव-परमल। बच्चे आपस में लड़ते-झगड़ते, उलझते-सुलझते पर बड़े झांकने भी नहीं आते।  ‘बोर होना’ न तो यह  शब्द सुना था, न इसका अर्थ पता था। 

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शाम का बेसब्री से इंतजार होता| धूप उतरी नहीं कि मोहल्ले भर के बच्चे मैदान या सड़क पर। नदी-पहाड़, सितौलिया, पोशम्पा, पकड़म-पाटी......वातावरण बच्चों के उत्साह भरे कोलाहल से गूंज उठता। न कोई ताम-झाम, न महंगे साजो-सामान। बच्चे बेदम-बेसुध होकर तब तक खेलते, जब तक कि अंधेरा गहरा न जाता और उन्हें ज़बरदस्ती घरों में धकेला न जाता। 
 
न कोई घुमाने ले जाने की जिद करता, न बाहर खिलाने की। चूसने वाले आम, कैरी पना, सत्तू, ताज़ा मुरब्बा, तरबूज-खरबूज, गन्ने का रस, यही सब होती, गर्मियों की ट्रीट। मेहमान आते तो आमरस बनता, बाल्टी में, और बच्चों की मौज। 
 
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रात को आंगन और छतों पर पानी के छिड़काव किया जाता और बच्चे दादी-नानी के पास कहानी सुनते हुए सपनों की दुनिया में खो जाते। 
 
मुलायम पंखों पर सवार वे मखमली दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला। पर मम्मा को कई बार अफ़सोस होता है कि ऐसे खुशहाल-उन्मुक्त बचपन की सौगात हम अपने बच्चों के लिए क्यों नहीं सहेज पाए? विकास की दौड़ में हमने अपने ही हाथों बच्चों का बचपन छीन लिया। बचपन के निर्मल आनंद से वंचित कर दिया। 
 
“मम्मा.....”
 
मनु की आवाज़ से मम्मा की तंद्रा भंग हुई...
 
“मम्मा...! सुनो न .., मैं बाबू मामा के घर जा रहा हूं। मामी का फ़ोन आया था न। दोनों पेड़ों में कैरियां लग गई है, मुझे बुलाया है। मैं पेड़ पर चढूंगा, कैरी तोड़ने के लिए... जाऊं.? ...बाय...”
 
मम्मा मन ही मन मुस्कुरा दी, “चलो इस बार कोई पूछेगा कि छुट्टियों में मनु ने क्या सिखा, तो कम से कम एक जवाब तो है 'पेड़ पर चढ़ कर कैरी तोड़ना...'

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