दोस्त, मेरे जीवन के सभी अहम रिश्ते ईश्वर ने बनाए। माता-पिता, भाई-बहन और जीवनसाथी भी। बस, एक तुम्हीं हो जिससे मेरा रिश्ता मैंने बनाया। या कहूं हम दोनों ने मिलकर, तो भी गलत न होगा। सबसे अच्छा, सबसे सच्चा और सबसे पवित्र रिश्ता है- दोस्ती का।
तुम अचानक कैसे मिल गए थे न उस दिन... सरेराह चलते-चलते! तब जानना तो दूर, एक- दूसरे को पहचानते भी नहीं थे हम। फिर भी दिल ने कुछ कच्चे धागे-सा बांध दिया था हम दोनों के बीच।
उस दिन जो बंधन बंधा तो फिर बंधता ही गया। हम समझने लगे एक-दूसरे को। कुछ समय की दूरी भी बर्दाश्त न होती हमसे। सुख-दु:ख साझा करने लगे। और याद है कुछ दिनों बाद ही हम घंटों बात करके वक्त गुजार दिया करते थे। साथ न रहकर भी कई बार हम साथ ही होते। आज भी हमें बातें किए बगैर कहां चैन मिलता है?
याद है मुझे, जब मेरी छोटी-सी उपलब्धि पर सब ओर से बधाइयां आ रही थीं और मेरी खुशियां चरम पर थीं तब तुमने कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी थी। मुझे हैरानी हो रही थी तुम्हारे व्यवहार पर। लग रहा था शायद जलन हो रही है तुम्हें।
और शाम को जब बधाइयों का सिलसिला थमा तो तुमने गले लगकर एक शब्द कहा था, 'और बेहतर कर सकती हो तुम।' फिर कई गुर सिखाए बेहतरी के। गलतियों को इंगित किया। भिन्न-भिन्न उदाहरण देकर समझाते रहे।
बस, तुम्हारा कहा घंटों तक गूंजता रहा मन में। सच भी था, उपलब्धि हेतु मेरा प्रयास कमतर ही था। तभी से मेरी मेहनत जारी है। और तुम्हारा और बेहतर का आग्रह भी। मुझे आगे बढ़ता देख सबसे ज्यादा तुम खुश होते हो। क्या तुम्हारे बिना यह संभव होता?
और याद है तुमने भी तो उस दिन जरा-सी ही सही पर गलत दिशा चुन ली थी। मैं चाहकर भी तुम्हें उस गलत कदम की हानियां नहीं बता सकी। उस राह पर तुम्हारा डूबता भविष्य साफ नजर आ रहा था मुझे। पर मैं विवश, हल नहीं ढूंढ पा रही थी। तब मैंने तुमसे दूरी बना ली और बात करना बंद कर दी। उस समय मौन ही सही, पर हर समय तुमसे बात करती रहती थी। मन से मन की बात का ही असर था कि तुम माफी सहित मेरे पास आ गए। उस राह को सदा के लिए छोड़कर। सच्चा रिश्ता न होता तो क्या, हम पुनः मिल पाते?
मेरे उसूलों के कारण जब मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी तो मैं भीतर से भी टूट गई थी। अच्छी-भली सरकारी नौकरी छोड़ने पर मेरे अपनों ने मुझ पर ही दोष लगाया। जाने कितने कटाक्ष किए। वह सब सहना मेरे बस का नहीं था। तब तुमने... सिर्फ तुमने मुझे पलभर को नहीं छोड़ा और दिलासा देते रहे। बार-बार कहते रहे... यह वक्त भी गुजर जाएगा।
सच, वह कठिन वक्त भी गुजर गया और मैं भी सामान्य हो गई। दूसरी नौकरी भी हासिल कर ली। तुम्हारे साथ ने मेरे जीवन को पुनर्जन्म दिया। उस नए जीवन के लिए मैं ताउम्र तुम्हारी ऋणी रहूंगी।
हम में चाहे कितनी ही भिन्न्ताएं हैं, पर हमारी सोच कितनी एक-सी है। यह सोच-विचार में साम्य ही हमारी दोस्ती के रिश्ते को मजबूत करता जाता है। सब कहते हैं सारे रिश्ते ऊपर वाला बनाता है और दोस्ती का रिश्ता नीचे वाले। पर मुझे लगता है ऊपर वाले ने हमारी दोस्ती का रिश्ता भी वहीं से बनाकर भेजा है। सच पूछो तो हमारी दोस्ती ईश्वर का आशीर्वाद है।
ईश्वर से ही दुआ है कि वह इस रिश्ते को सबकी नजर से बचाए और लंबी उम्र दे।
तुम्हारी दोस्त