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'इस' और 'उस' आपातकाल के बीच का असली सच क्या है?

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श्रवण गर्ग

, सोमवार, 5 जुलाई 2021 (12:26 IST)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब इंदिरा गांधी के 'आपातकाल' पर प्रहार करते हैं तो डर लगने लगता है और 4 तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं। पहली तो यह कि जब हर कोई कह रहा है कि इस समय देश एक अघोषित आपातकाल से गुजर रहा है तो ऐसी आवाज़ें मोदीजी के कानों तक भी पहुंच ही रही होंगी! इस तरह के आरोप लगाने वाले 'उस' आपातकाल और 'इस' आपातकाल के बीच तुलना में कई उदाहरण भी देते हैं।

इन उदाहरणों में संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण से लगाकर 'देशद्रोह' के झूठे आरोपों के तहत निरपराध लोगों की गिरफ़्तारियां और मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएं शामिल होती हैं। ऐसे में लगने लगता है कि इस सबके बावजूद अगर प्रधानमंत्री 1975 के आपातकाल की आलोचना करते हैं तो उन्हें निश्चित ही ज़बर्दस्त साहस जुटाना पड़ता होगा। प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा था कि आपातकाल के काले दिनों को इसलिए नहीं भुलाया जा सकता है कि उसके ज़रिए 'कांग्रेस ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला है।'
 
प्रधानमंत्री के कहे पर दूसरी प्रतिक्रिया इस आंतरिक आश्वासन की होती है कि उनकी सरकार घोषित तौर पर तो कभी‌ भी देश में आपातकाल नहीं लगाएगी। नोटबंदी और लॉकडाउन की आकस्मिक घोषणाओं के कारण करोड़ों लोगों द्वारा भुगती हुई यातनाओं को प्रधानमंत्री निश्चित ही अपनी सरकार के आपातकालीन उपक्रमों में शामिल नहीं करना चाहते हैं। वे अब नोटबंदी का तो ज़िक्र तक नहीं करते।
 
तीसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि भविष्य में किसी अन्य प्रधानमंत्री को अगर आपातकाल की आलोचना करनी पड़ी तो उसके सामने समस्या खड़ी हो जाएगी कि किस आपातकाल का किस तरह से उल्लेख किया जाए। जब बहुत सारे आपातकाल जमा हो जाएंगे तो उनकी सालगिरह या 'काला दिन' मनाने में जनता भी ऊहापोह में पड़ जाएगी।
 
चौथी और अंतिम प्रतिक्रिया सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे किसी दस्तावेज या गवाह का सार्वजनिक होना बाक़ी है, जो दावा कर सके कि आपातकाल के दौरान या उसके आगे या पीछे किसी भी कांग्रेसी शासनकाल में मोदीजी को उनके राजनीतिक प्रतिरोध के कारण जेल जाना पड़ा हो या नज़रबंदी का सामना करना पड़ा हो। अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार आपातकाल के 20 महीनों के दौरान कोई 1 लाख 40 हज़ार लोगों को बिना मुक़दमों के जेलों में डाल दिया गया था। इनमें संघ, जनसंघ, समाजवादी पार्टियों, जयप्रकाश नारायण समर्थक गांधीवादी कार्यकर्ता और पत्रकार आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। जनसंघ के तब के कई प्रमुख नेता इस समय मार्गदर्शक मंडल की सजा काट रहे हैं। जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार मोदीजी उस समय वेश बदलकर संघ या पार्टी का कार्य कर रहे थे। एमनेस्टी इंटरनेशनल को तो हाल के महीनों में भारत से अपना कामकाज ही समेटना पड़ा है।
 
देश में जब आपातकाल लगा था तब मोदीजी की उम्र कोई 24 साल 9 माह की रही होगी। यह वह दौर था, जब उनकी आयु के नौजवान गुजरात और बिहार में सड़कों पर आंदोलन कर रहे थे। आपातकाल को लागू करने का कारण 1974 का बिहार का छात्र आंदोलन था। बिहार आंदोलन की प्रेरणा गुजरात के छात्रों का 1971-72 का नवनिर्माण आंदोलन था। दोनों ही राज्यों में तब कांग्रेस की हुकूमतें थीं। दोनों आंदोलनों को ही अन्य विपक्षी दलों और संगठनों के साथ-साथ जनसंघ और उसके छात्र संगठनों का समर्थन प्राप्त था। गुजरात आंदोलन को चलाने वाली नवनिर्माण समिति के छात्र नेता उन दिनों जेपी से मिलने दिल्ली आते रहते थे और हम लोगों की उनसे बातचीत होती रहती थी। आपातकाल के दौरान गुजरात में कुछ समय विपक्षी दलों के जनता मोर्चा की सरकार रही (जून '75 से मार्च '76) उसके बाद राष्ट्रपति शासन हो गया (मार्च 76 से दिसंबर '76) और 1977 में लोकसभा चुनावों के पहले तक 4 महीने कांग्रेस की सरकार रही (दिसंबर '76 से अप्रैल '77)।
 
नरेंद्र मोदी को आपातकाल के 'काले दिनों' और उस दौरान 'लोकतांत्रिक मूल्यों' को कुचले जाने की बात इसलिए नहीं करना चाहिए कि कम से कम आज की परिस्थिति में 'भक्तों' के अलावा सामान्य नागरिक उसे गंभीरता से नहीं लेंगे। उनकी पार्टी के अन्य नेता, जिनमें कि आडवाणी, डॉ. जोशी, शांता कुमार और गोविन्दाचार्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है, इस बारे में ज़्यादा अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं।
 
आपातकाल की अब पूरी तरह से छिल चुकी पीठ पर कोड़े बरसाते रहने के 2 कारण हो सकते हैं- पहला तो इस अपराधबोध से राहत पाना कि जो लोग 'उस' आपातकाल के विरोध के कारण तब जेलों में बंद थे, आज उस सत्ता की भागीदारी में हैं, जो आरोपित तौर पर न सिर्फ़ तब से भिन्न नहीं हैं, ज़्यादा रहस्यमय भी हैं। प्रधानमंत्री अपनी ओर से कैसे बता सकते हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाएं और मूल्य 1975 के आपातकाल के मुक़ाबले आज कितनी बेहतर स्थिति में हैं?
 
दूसरा महत्वपूर्ण कारण वर्तमान के 'उस' (कांग्रेसी) परिवार को निशाने पर लेना हो सकता है जिसके पूर्वज इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। आपातकाल के समय राहुल गांधी 5 साल के और प्रियंका 3 साल की रही होंगी। इनके पिता राजीव गांधी राजनीति में थे ही नहीं। वे तब हवाई जहाज़ उड़ा रहे थे। उनके छोटे भाई संजय गांधी को इतिहास में आपातकाल के लिए उतना ही ज़िम्मेदार माना जाता है जितना इंदिरा गांधी को। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी तब पूरी तरह से संजय गांधी के कहे में थीं और देश का सारा कामकाज प्रधानमंत्री कार्यालय के बजाय प्रधानमंत्री निवास से चलता था। आपातकाल लगने के 9 माह पूर्व संजय गांधी का विवाह हो चुका था। उपलब्ध जानकारी में यह भी उल्लेख है कि उनकी पत्नी हर समय उनके साथ उपस्थित रहकर उनके कामों में मदद करतीं थीं। प्रधानमंत्री जिस आपातकाल का ज़िक्र करते हैं, वह उन 'काले दिनों' का सिर्फ़ आधा सच है। बाक़ी का आधा संभवत: उनकी ही पार्टी में मौजूद है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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