लेखक होना एक गुनाह है वह अपना खुद का कातिल है। क्योंकि उसने अपनी जिन्दगी को दूसरों के हिसाब से चलने और भावनाओं के ज्वार को उकेरने के लिए खपा दिया है।
वह उतर जाता है बगावत पर क्योंकि उसे जो समस्याओं का अंधकार दिखता है उसे दूर करने के लिए बिना पूर्व तैयारी और भय के कलम लेकर उतर पड़ता है व्यूह को भेदने के लिए। वह नहीं बख्शता किसी को, उसे जो गलत दिखता है उसका प्रतिकार करता है। लेकिन लेखक की कई सारी विवशताएं होती है उसे लड़ना पड़ता है खुद से।
इसकी शुरुआत ही उसके घर से होती है जहां उसकी कलम को रोकने के लिए बार-बार रोका-टोका जाता है। फेंक दी जाती हैं डायरियां और उन्हें रद्दी के भाव घर से बड़ी ही निर्दयता पूर्वक कबाड़ी वाले को बेंच दिया जाता है।
उसे लेखक होने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी होती है, घर में अपनी कलम के लिए सबकुछ चुपचाप सुनना और सहना पड़ता है। धीरे -धीरे जब लेखक का मन क्रांतिकारी होता है तब वह बगावत पर उतर जाता है और सबकुछ लिख देता है। जब वह दर्ज कर देता है लेखनी से अपनी उबाल को तब शुकून पाता है लेकिन फिर भी यह शुकून भी क्षणिक होता है।
वह तिल-तिलकर जलता रहता है, अपनी सारी पीड़ा को कड़वा घूंट मानकर पी जाता है। वह रात-रात भर जगता है और विचारों में खोया रहता है, तब उसे पागल की संज्ञा दे दी जाती है। उसे घोषित कर दिया जाता है कि वह इस दुनिया का है ही वह बेहद स्वार्थी हो चुका है लेकिन उसके दर्द को कोई क्यों नहीं समझता? उसे अब जब तक जीना होगा, तब तक इसी तरह भावनाओं के आगे घुटने टेककर अन्दर-अन्दर भट्टी की तरह दहकते रहना होगा और फिर उसे शब्दों से बयां करना होगा। लेखक होना भी एक बड़ी विडम्बना और शाश्वत आपदा है जो तब तक नहीं छूटेगी जब तक लेखक अपनी देह नहीं त्याग देता।
लेखक अपना जीवन खपाएगा और फिर धीरे-धीरे आकार लेता रहेगा विभिन्न उपक्रमों से उसका लिखा छपता रहेगा और लोग पढ़ते रहेंगे। लेकिन लेखक अपने लिखते रहने के साथ ही जलता रहेगा। उसकी अन्तरात्मा उद्वेलित होती रहेगी, सारे रस अपना ताण्डव उसके मस्तिष्क में मचाते रहेंगे।
जब विचार मस्तिष्क में कौंधेंगे वह तब-तब कलम के साथ मिलेगा, वह आधी रात उठ बैठेगा और लेखनी से अपने विचारों की ज्वाला को कागज के पृष्ठों या आधुनिक तकनीक के पन्नों में दर्ज कर देगा। उसकी नींद छिन जाएगी, सारा शुकून छिन जाएगा। सारी समस्याएं उसके सामने मंडराती रहेंगी और टीस बनकर उसे तड़पाती रहेंगी। वह बन्दी बन चुका है अपने विचारों का, उसकी आजादी को कलम ने अपने साथ ही छीन लिया है। लेखक-कलम के आगे बेहद लाचार और विवश हो चुका होता है।
उसकी समस्याओं का अंत नहीं है बल्कि उसकी पीड़ा ही अनंत होती है। लेखक को कहीं और मत ढूंढ़िए, उसे उसके लेखन में, डायरियों में देखिए वह हमेशा मिल जाएगा। उसकी दुनिया बदल चुकी होती है "किताब-विचार-कलम-कागज" के आगे वह बुन लेता है अपनी दुनिया और उसी में खो जाता है। उसके खालीपन को कोई नहीं भर सकता सिवाय उसके विचारों के।
वह किताब लिखेगा, प्रकाशक के सामने पाण्डुलिपि जाएगी। लेखक यदि नया है तो प्रकाशकों के दफ्तरों के चक्कर लगाते हुए घनचक्कर बन जाएगा तथा यदि पुराना है तो मार्केट का सिध्दस्त रहेगा। अलग-अलग शर्तों के मुताबिक या तो पैसे देकर छपवाएगा या कि रॉयल्टी पाएगा सबकुछ उसके लिए अनिश्चित रहता है।
लेखक की किताब आएगी, वह प्रसन्न होगा, उसे खुश होना ही चाहिए क्योंकि उसने अपना एक आकार लिया है। लेकिन इसके साथ ही शुरु हो जाता है लेखक का द्वन्द वह विवश हो जाता है फिर किताबों की दुनिया रचने के लिए और यह सिलसिला चल पड़ता है। उसकी किताबें बिकती हैं, प्रशंसा मिलती है, प्रतिष्ठा मिलती है, सम्मान मिलता है लेकिन वह खो चुका होता है अपने लेखन की दुनिया में। जैसा की पूर्व में ही कहा है तो उसके पास समस्याएं अनंत होती हैं। पाठकों की एक दुनिया मिलेगी, शुकून मिलेगा, स्वीकारोक्ति मिलेगी। शुभकामनाएं और बधाइयां मिलेंगी।
इस यात्रा में लेखक को मिलेंगी कई सारी समस्याएं-उसे मिलेंगे कई सारे लोग जो उसकी किताब पढ़ना चाहते हैं, ठीक है किताब पढ़ना चाहिए। वह उन्हीं में से कुछ किताबें भेंट भी करता है। लेकिन उसे प्रकाशक से गिनती की ही किताबें मिलती हैं -वह किस-किस को किताब दे? बड़ा अन्तर्द्वन्द्व उसके समक्ष खड़ा हो जाता है? यदि वह किताब नहीं भेंट करता तो उसे अहंकारी और स्वार्थी ठहरा दिया जाएगा। या तो वह प्रकाशक से याचना कर और किताब मंगाए या कि किताब उसी मूल्य पर खरीदे और अपने पाठकों को दे। या कि मना कर बैर ले। बेचारे! लेखक के साथ बड़ी विडम्बना है वह करे तो करे क्या? कहां जाए? आगे खुद को खपाकर किताब लिखे फिर छपवाए फिर नि:शुल्क किताब भेंट करे।
क्यों कोई लेखक के दर्द को नहीं समझना चाहता? यदि लेखक कह दे तो वह तुरंत ही निष्ठुर, लोभी और स्वार्थी घोषित कर दिया जाएगा!! किसी भी तरह का संकोच और परहेज उसके साथ नहीं किया जाएगा, सीधे न्यायाधीश बनकर न्याय सुनाकर लेखक को दोषी ठहरा दिया जाएगा।
सचमुच में लेखक होना एक गंभीर अपराध और समय की सबसे बड़ी त्रासदी है जहां उसे पल-पल विचारों के अन्तर्द्वन्द्व और पीड़ा की अग्नि में जलते-तपते होते हुए शब्दों के संसार में अपना नया आशियाना गिले-शिकवों के साथ बनाना पड़ता है। उसके संघर्ष की यह कथा उसकी इतिश्री के साथ ही समाप्त होती है जहां उसे जीवनभर भावनाओं के रण में युध्दरत रहना पड़ता है!!