गुप्ता साहब ने यूं तो कभी योगा किया नहीं, पर भला आज कैसे न करते ! हम तो कहते हैं ऐसे योग रोज हों, जिसमें रोजाना कुछ न कुछ मिले। अब देखो न आज योग दिवस मनाया गया। किसी ने सुचना दी कि योग के लिए जाओगे तो टी.शर्ट, योगा मैट, बैग वगैरह मिलेगा, तो चल दिए अपने सहयोगियों के साथ सामान मिलने के लालच में।
हमारे यहां तो वैसे भी परंपरा रही है, आम के आम गुठलियों के दाम। शर्मा जी तो योगा के लिए भी गए और सामान भी मिला, पर मारा मारी बहुत थी। किसी को तो मात्र टी.शर्ट से काम चलाना पड़ा और किसी को मैट से ही, और किसी को सभी मिला। पर सब खुश थे। भला फ्री की चीज किसे नहीं भाती?
पड़ोस में रहने वाले चंदु ने कहा, ‘क्या कभी भोग दिवस भी मनाया जाता है? रोज कोई न कोई डे हो और लोगों को बदले में कुछ मिले ! चाचा, अगर भोग दिवस होगा तो लोगों को तरह-तरह का खाने को मिलेगा! जिन्हें कभी वो चीजें नसीब न हुई, वो मजा ले लेंगे! कभी फल दिवस तो कभी मेवा दिवस...ऐसे ही रोजाना दिवस मनाने चाहिए!’
तभी गुप्ता जी बोल पड़े, ‘तुम अच्छे निकले, भला ऐसा भी हो सकता है क्या ? योग का तो अपना अर्थ है पर भोग दिवस, फल दिवस, मेवा दिवस का क्या औचित्य? योग से तो फायदा होगा, पर भोग दिवस से तो लोगों का नुकसान होगा। लोग डायबिटीज के शिकार होंगे। सत्तर बीमारियां लगेंगी अलग से।’
शर्मा जी बीच में ही बोल पड़े, ‘सरकार बड़े सोच समझ कर दिवस तय करती है। अब अगर योग दिवस के आलावा तुम्हारे बताए दिवस मनाने लगे, तो क्या फायदा होगा सरकार का और क्या फायदा होगा भागीदारी कम्पनियों का ?’
शर्मा जी थोड़ा समझाते हुए बोले, ‘अब देखो रिबोक के मैट, बैग मिले तो कंपनी का कुछ तो फायदा हुआ ही होगा। अब ऐसे में भोग दिवस में क्या किसान अपना अनाज मुफ्त में जनता को बांटेगे? नहीं न!’
अब कुछ-कुछ बात चंदु के समझ आने लगी थी। उसे टीशर्ट मिलने की खुशी थी, पर वो सोच रहा था काश यह योग गांवों में भी होता और वहां लोगों को इस तरह सामान मिलता। पर वो लोग कौन-सा रिबोक को जानते हैं, कंपनी भला क्यों बांटती? और वैसे भी योग की जरूरत तो शहरो में है, गांवो में कहां! वहां तो लोग जाते ही है सुबह-सुबह सैर पर।
पर हां अब जो शौचालय का अभियान पूरा हुआ, तो आगे आने वाले सालों में वहां कुछ गुंजाईश जरुर होगी योग दिवस मनाने की। खैर अभी तो नींद आ रही है। चलो चला जाए सोने, इस योग के चक्कर में चार बजे उठना पड़ गया।’