हमारे शास्त्रों की शिक्षा है कि किसी शरणार्थी को अपनाने से बड़ा पुण्य और ठुकराने से बड़ा पाप नहीं होता। पर, क्या हम आज की झूठ-फरेब भरी दुनिया में आंख मूंदकर सबको शरण दे सकते हैं! प्रस्तुत है इस लेखमाला की तीसरी कड़ी।
भारत का इतिहास यही कहता है कि भारत विदेशी शरणार्थियों के लिए सदा एक सुरक्षित देश रहा है। कहा और माना तो यह भी जाता है कि केरल के त्रिसूर ज़िले में ईस्वी सन 629 में बनी चेरामान पेरुमल जुमा मस्जिद, भारत में मुसलमानों की बनाई सबसे पहली और पुरानी मस्जिद है। यानी, वह ईस्वी सन 632 में पैगंबर मोहम्मद के स्वर्गवास से तीन साल पहले, उनके जीवनकाल में ही बन गई थी, भले ही इसे शायद ही कोई जानता है।
भारत ने हर आगत को शरण तो दी है, पर आज तक कोई राष्ट्रीय शरण अधिनियम नहीं बनाया है। 1951 के अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी समझौते और 1967 के उसके प्रोटोकोल का भी भारत हिस्सा नहीं है। भारत, शरणार्थियों संबंधी मामलों को, समय की मांग के अनुसार, प्रशासनिक क़दमों द्वारा हल करने में विश्वास रखता है। विदेशी शरणार्थियों के प्रति भारत का व्यवहार वैसा ही होता है, जैसा 1946 का भारत का विदेशी नागरिकों संबंधी क़ानून कहता है। तब भी, 1947 में अपनी स्वतंत्रता के बाद से भारत अपने पड़ोसी देशों से आने वाले शरणार्थिंयों को हमेशा शरण देता रहा है।
उदाहरण के लिए, 1959 में दलाई लामा के तिब्बत से भागकर भारत आने पर उन्हें और उनके भक्त तिब्बतियों को भारत ने शरण दी। इससे गुस्साए चीन का 1962 का आक्रमण भी झेला। धर्मशाला में तिब्बतियों की शुरू से ही एक निर्वासित सरकार भी है। भारत में रहने वाले तिब्बतियों की संख्या इस बीच डेढ़ लाख से अधिक हो गई है। उन्हें आप्रवासी माना जाता है। यात्रा आदि के लिए भारतीय पासपोर्ट दिया जाता है, पर भारत के नागरिक वे नहीं हैं। यूरोप के किसी भी देश में उन्हें बहुत पहले ही नागरिकता भी मिल गई होती।
जब एक करोड़ शरणार्थी भारत आए : बांग्लादेश जब नहीं बना था, पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था, तब 1960 में चकमा कहलाने वाले वहां के बौद्धों को बड़ी संख्या में वहां से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी थी। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय बहुत से हिंदुओं को पूर्वी पाकिस्तान से भागना पड़ा था। 1971 आने तक तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के निवासियों पर पाकिस्तानी सेना के अत्याचार इतने बढ़ गए थे कि उस वर्ष एक करोड़ हिंदुओं-मुसलमानों को भाग कर पूर्वी भारत में शरण लेनी पड़ी थी। उसी साल भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर युद्ध हुआ। पाकिस्तान हारा और पूर्वी पाकिस्तान, बांग्लादेश नाम का एक नया देश बना।
इसी तरह 1980 वाले दशक में श्रीलंका के तमिलों ने अपने साथ भेदभाव से तंग आकर वहां अपना एक अलग देश बनाने के लिए एक लंबा गृहयुद्ध छेड़ दिया। गृहयुद्ध से पीड़ित वहां के लाखों तमिलों ने भाग कर न केवल भारत में, यूरोपीय देशों में भी शरण की याचना की। भारत में क़रीब 2 लाख तमिलों को शरण मिली।
1992 में भारत में 8 देशों के 4 लाख से अधिक शरणार्थिंयों को शरण मिली हुई थी। भारत के गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत के शरणार्थी शिविरों में, जनवरी 2021 में 58, 843 श्री लंकाई और 72,312 तिब्बती शरणार्थी रह रहे थे। अफ़गानिस्तान के भी क़रीब 16,000 नागरिक अधिकतर किराए के मकानों में सामान्य जनों की तरह रह रहे थे। अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों को भारत में पढ़ाई आदि के लिए वीसा काफ़ी सरलता से और जल्दी मिलता है।
नागरिकता क़ानून में ढील : भारत के नियमों के अनुसार, जो कोई विदेशी, बिना वैध दस्तावेज़ों के भारत में प्रवेश करता है, या अनुमति से अधिक समय तक देश में रहता पाया गया है, उसे शरणार्थी नहीं, अवैध आप्रवासी माना जाएगा। उसे देश छोड़कर या तो जाना पड़ेगा या 2 से 8 साल जेल की सज़ा भुगतना और जुर्मना भी देना पड़ेगा। उसे भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती। लेकिन, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए ऐसे लोगों के लिए, जो धार्मिक अल्पसंख्यक होने के नाते अपने साथ अत्याचारों के डर से वापस नहीं जा सकते, 2015 में इस नियम में ढील देते हुए कहा गया कि उन्हें अवैध आप्रवासी नहीं माना जाएगा। वे भारत में रह सकते हैं और नागरिकता भी प्राप्त कर सकते हैं।
म्यांमार (बर्मा) से पलायन कर बांग्लादेश गए और वहां से अवैध रूप से भारत पहुंने वाले रोहिंग्या लोगों को भारत में शरणार्थी नहीं, अवैध घुसपैठिया माना जाता है। वे मुसलमान हैं और एक ऐसे लोकतांत्रिक मुस्लिम देश से होकर आते हैं, जहां वे किसी अत्याचार के शिकार भी नहीं थे। वे पश्चिम बंगाल ही नहीं, अब दिल्ली, जम्मू, हैदराबाद आदि कई जगहों तक फैल गए हैं और भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा माने जाते हैं।
रोहिंग्या शरणार्थी नहीं, भारत में भ्रष्टाचार के लाभार्थी हैं : कहा जाता है कि रोहिंगिया, भारत- बांग्लादेश सीमा पर तैनात बलों को रिश्वत आदि देकर पहले पश्चिम बंगाल पहुंचते हैं। वहां भाजपा या भारत विरोधी गिरोहों की सहायता से वे आधार कार्ड, राशन कार्ड और मतदाता कार्ड बनवाते हैं और ख़ुद को भारतीय बताने लगते हैं। इन गिरोहों के निर्देशों के अनुसार वे ऐसी जगहों पर जाकर रहने लगते हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से बहुत संवेदनशील हैं। पश्चिम बंगाल में उन्हें इसलिए भी मदद मिलती बताई जाती है कि वहां की जनसंख्या में मुस्लिम अनुपात काफ़ी बड़ा है और राज्य सरकार भी केंद्र सरकार की आलोचक है। रोहिंग्या-समस्या इस बात की पुष्टि है कि भारत में क़ानून कुछ भी हों, राजनीतिक लाभ व रिश्वत के बल पर सब कुछ संभव है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत के सामने वैसी विकराल शरणार्थी समस्या नहीं है, जैसी यूरोपीय संघ के देशों के सामने है। अपने आप को बहुत उदार, मानवतावादी और धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने के चक्कर में यूरोपीय देश अपने ही बुने जाल में फंस गए हैं और समझ नहीं पा रहे हैं कि इस जाल से बाहर कैसे निकलें।
विशेषकर भारत के संदर्भ में यूरोपीय मीडिया का प्रयास हमेशा यही रहा है कि भारत में सरकार चाहे जिसकी हो – कांग्रेस की रही हो, कई पार्टियों के गठबंधन की रही हो या इस समय भाजपा की हो – भारत को एक ऐसा देश बताना है, जो ग़रीबों-अशिक्षितों का लंगड़ा लोकतंत्र है। जहां दलितों-अल्पसंख्यकों का दमन होता है। भारत की वर्तमान सरकार को यूरोपीय मीडिया एक 'हिंदू राष्ट्रवादी', यहां तक कि कई बार 'फ़ासिस्ट' सरकार घोषित करता है – मानो हिंदू होना फ़ासिस्ट होना है – और बहुत दुखी है कि भारत का अंतरराष्ट्रीय महत्व तब भी बढ़ रहा है।
भारत के सामने भावी चुनौती : भारत की जनता और भावी सरकारों को भी सोचना होगा कि जलवायु परिवर्तन और साथ ही भूमंडलीय तापमान वर्धन से, भविष्य में, भारत के भीतर ही ऐसी विकट परिस्थितियां पैदा होंगी कि लोगों को अपना घर-द्वार छोड़ कर शरणार्थी बनना पड़ेगा। एक अनुमान के अनुसार, मौसम में भारी उथल-पुथल के कारण, 2020 में भारत में 1 करोड़ 20 लाख लोगों को अपना घर त्याग कर किसी दूसरी जगह जाना पड़ा। भविष्य के बारे में कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन 2050 तक भारत में साढ़े 4 करोड़ लोगों को विस्थापित करेगा।
जलवायु परिवर्तन और मानवीय विस्थापन के बीच सीधा संबंध सिद्ध करना आसान नहीं है। इसलिए प्रभावित लोगों के दावों को राजनीतिक और क़ानूनी दृष्टि से हमेशा स्वीकार नहीं किया जाएगा। उन्हें शरणार्थी मानना मुश्किल होगा, क्योंकि शरणार्थी को शरण देना और उसके जीवनयापन की व्यस्था करना सरकारों का क़ानूनी दायित्व बन जाता है। भारत ने 1951 का संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी समझौता या उसके बाद का 1967 का प्रोटोकोल अपनाया नहीं है, इसलिए भारत की भावी सरकारें उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं होंगी।
देश के भीतर जनविस्थापन : जलवायु परिवर्तन के कारण देश के भीतर हो रहे जनविस्थापन के आंकड़े औपचारिक तौर पर भारत में इस समय एकत्रित नहीं किए जाते। तब भी, ऐसे विस्थापनों पर नज़र रखने वाले एक केंद्र का कहना है कि चक्रवात, तूफ़ान और बाढ़ के कारण, 2008 से 2019 के बीच, हर साल औसतन 36 लाख लोग विस्थापित हुए। भारत के तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के खेत इन घटनाओं से खारेपन का शिकार हो जाते हैं और अपनी उर्वरता खो बैठते हैं। किसानों को तब कहीं और जा कर नया घर बसाना पड़ता है।
तापमान बढ़ने के साथ समुद्री जलस्तर भविष्य में और अधिक तेज़ी से ऊपर उठेगा। तब तटवर्ती खेत और बागान ही नहीं, बहुत से गांव और शहर भी पानी में डूब जाएंगे। भारत ही नहीं, बांग्लादेश, श्री लंका और सबसे अधिक मालदीव भी इससे प्रभावित होगा। भारत पर तब चौतरफ़ा अंतरराष्ट्रीय दबाव निरंतर बढ़ता जाएगा कि अपने क्षेत्र का सबसे बड़ा और साधन संपन्न देश होने के नाते वह इन छोटे देशों के नागरिकों को भी अपने यहां शरण प्रदान करे। भारत भी अपनी सदियों लंबी शरणदान परंपरा को सरलता से ठुकरा नहीं पाएगा।