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पैंगांग झील पर छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा को लेकर विवाद, क्या है विवाद की वजह

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सुरेश एस डुग्गर

Controversy over statue of Chhatrapati Shivaji Maharaj in Pangong: लद्दाख की पैंगांग झील के पास सेना ने छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा लगाई है। इसको लेकर सोशल मीडिया में विवाद शुरू गया है। अब मांग हो रही है कि लद्दाख पर विजय हासिल करने वाले जनरल जोरावर सिंह की प्रतिमा लगाना यहां पर ज्‍यादा सही होगा।
 
शिवाजी महाराज की 30 फीट ऊंची प्रतिमा को पूर्वी लद्दाख में 14,300 ऊंचाई पर स्थापित किया गया हैं। यह जगह चीन के साथ लगने वाली लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के पास हैं। इस प्रतिमा का उद्घाटन सेना के 14वीं कोर फायर एंड पूरी फ्यूरी कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हितेश भल्ला ने किया है। लेफ्टिनेंट जनरल भल्ला मराठा लाइट इन्फैंट्री के कर्नल ऑफ द रेजिमेंट भी हैं। इस अवसर पर लेफ्टिनेंट जनरल भल्ला ने आधुनिक समय की सैन्य अभियानों में शिवाजी महाराज की वीरता, रणनीति और न्याय के आदर्श की प्रासंगिकता पर बात की। ALSO READ: Ladakh : भारतीय सेना ने किया 14300 फुट ऊंचाई पर शिवाजी की प्रतिमा का अनावरण
 
क्या जोरावर सिंह समर्थकों का तर्क : पैंगांग झील पर डोगरा जनरल जोरावर सिंह की प्रतिमा लगाए जाने के पीछे तर्क यह दिया गया कि यह वही महान योद्धा हैं, जिन्होंने लद्दाख पर जीत हासिल की। 1800 के दशक में तिब्बत में भी जाकर लड़ाई लड़ी। कुछ यह भी कह रहे हैं कि यहां से कुछ दूर 1962 के हीरो परमवीर चक्र विजेता शैतान सिंह ने चीनियों के से लड़ते हुए जान दी। उनकी प्रतिमा तो नही लगाई गई।
 
कुछ यह भी कह रहे है कि क्या महाराष्ट्र के रायगढ़ किले में जनरल जोरावर सिंह की प्रतिमा लगाई जा सकती है? सेना के आधिकारिक बयान में कहा गया है कि पैंगांग झील पर उनकी (छत्रपति शिवाजी की) स्थापना सैनिकों का मनोबल को बढ़ाने और भारत की ऐतिहासिक और समकालीन सैन्य ताकत का प्रमाण है।
 
छत्रपति शिवाजी का नहीं है विरोध : जोरावर सिंह के समर्थक (इनमें से अधिकतर लद्दाख से नहीं हैं) तर्क देते हैं कि उनकी सैन्य विरासत, जिसने लद्दाख की आधुनिक सीमाओं को आकार देने में मदद की, अधिक मान्यता के हकदार हैं। उनके स्मरणोत्सव के लिए एक समर्थक का कहना था कि हालांकि छत्रपति शिवाजी निस्संदेह भारतीय इतिहास में एक पूजनीय व्यक्ति हैं, लेकिन लद्दाख के रणनीतिक परिदृश्य को आकार देने में जनरल जोरावर सिंह की भूमिका अद्वितीय है। इस घटनाक्रम ने क्षेत्र के 19वीं सदी के इतिहास में एक प्रमुख जनरल जोरावर सिंह कलहुरिया को मान्यता देने की मांग को फिर से हवा दी है। 
 
यह बहस क्षेत्र की जटिल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को उजागर करती है, जो जम्मू और कश्मीर दोनों के साथ इसके संबंधों और इसकी विशिष्ट बौद्ध विरासत द्वारा चिह्नित है। महाराजा गुलाब सिंह के नेतृत्व में शुरू किए गए जनरल जोरावर सिंह के अभियानों ने लद्दाख के जम्मू और कश्मीर में और अंततः 1947 में भारत में एकीकरण की नींव रखी।
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कौन थे जनरल जोरावर सिंह : जनरल जोरावर सिंह ने 1834 और 1840 के बीच लद्दाख को डोगरा साम्राज्य में एकीकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके सैन्य अभियान, हाल के इतिहास में सबसे क्रूर अभियानों में से एक, लद्दाख के अंतिम शासक त्सेपाल नामग्याल की विजय के साथ समाप्त हुए। 
 
इस विजय के बीज 1822 में बोए गए थे, जब महाराजा गुलाब सिंह ने जोरावर सिंह को किश्तवाड़, अरनास और रियासी-खासली का राज्यपाल नियुक्त किया था। और 1846 में, जब अंग्रेजों ने सिख साम्राज्य को हराया, तो अमृतसर की संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके तहत राजा गुलाब सिंह के शासन में जम्मू और कश्मीर की नव निर्मित रियासत में लद्दाख का औपचारिक एकीकरण किया गया। इस प्रकार, जनरल जोरावर सिंह ने लद्दाख के वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य की नींव रखी।
 
उल्लेखनीय है कि हाल ही में सेना प्रमुख के लाउंज में 1971 की पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण वाली प्रसिद्ध तस्वीर हटा ली उसकी जगह पर जो तस्वीर लगाई गई है, उसमें पैंगांग झील की तस्वीर दिख रही है।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala 

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