- जब पूरी दुनिया में इंसानियत मौत की एक अछूत गठरी बनकर ही रह गई
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जो जिंदगी भर अपनों के साथ जिया वो अस्पताल के वार्ड में अकेला मर रहा था
इस सदी में मौत को उसके नए कोरोना नाम से संबोधित किया जाए तो शायद गलत नहीं होगा। इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना ने लाखों जिंदगियों को खाक में मिला दिया। हालांकि इसके पहले भी दुनियाभर में लोग मरते रहे हैं और लोग मौत को एक अटल सत्य मानते आए हैं। लेकिन कोरोना एक ऐसी नई मौत का नाम था, जो इतिहास में पहले हुई सभी मौतों में सबसे ज्यादा भयावह और त्रासदी से भरी थी।
दरअसल, अंतिम क्षणों का यह मतलब होता है कि जब आपका कोई प्रिय अपनी जिंदगी के लिए मौत से जूझ रहा हो तो उस अंतिम क्षण में आप उसका हाथ थाम सको, उसकी आखिरी बात, उसकी आवाज को सुन सको, उसे छू सको और उसे भारी मन से आखिरी विदाई दे सको, अलविदा कह सको।
लेकिन इस सदी की इस नई मौत इतनी क्रूर थी कि उसने अपनों को अलविदा कहने का मौका भी नहीं दिया। यही इसका सबसे बेबस और बे-दर्द एंगल था। वरना ऐसा नहीं है कि लोगों की पहले कभी मौतें न हुईं हों।
दुनिया में जितनी भी मौतें कोरोना से हुई उससे बेशक लोगों को हिलाकर रख दिया, लेकिन इसमें सबसे बड़ी त्रासदी यही थी कि वो मरने वालों को अपनी अंतिम घड़ी में भी अस्पताल के किसी वार्ड में अकेले ही ही अपना आखिरी सफर तय करना पड़ा। उस वक्त न उसके बच्चे थे, न बीवी, न मां-बाप और ही कोई दोस्त और रिश्तेदार।
किसी को अपने पिता की अर्थी को छूने का मौका नहीं मिला तो किसी को अंतिम संस्कार का मौका। कोई बेटा अपने पिता को आखिरी कांधा नहीं सका तो कहीं पिता बेटे को आखिरी वक्त में आंखभर कर नहीं देख सका। न दोस्तों का साथ मिला और न ही कोई रिश्तेदार ही काम आया।
पूरी दुनिया में इंसानियत मौत की एक अछूत गठरी बनकर ही रह गई...!
युद्धों की बात छोड़ दें तो दुनिया में कहीं भी किसी दूसरी वजह से शवों को इकठ्ठा नहीं किया जाता है, लेकिन कोरोना ही सदी की वो त्रासदी बनी, जिसमें बल्क में लाशों को ढोया गया। एंबुलेंस से शमशान घाट तक या अस्पताल से कब्रस्तान तक। दूर-दूर तक अगर कुछ था तो ठंडे निस्तेज पड़े लावारिस शव और उनके आसपास सफेद पोशाकों में मंडराते कुछ डरे-सहमे साये।
यह मौत का वो भयावह दृश्य था जिसमें बच्चे, बूढे, महिलाएं और जवान सभी शामिल थे, और जो जिंदा बच गए उनके चेहरे पर आने वाली मौत का खौफ और उसकी दहशत।
जब अपने सबसे प्रिय लोगों के शव धूं-धू कर जल रहे थे तो उन्हें निहारने वाला उनके करीब कोई नहीं था। जब कब्रों में लाशों को दफनाया जा रहा था तो उनके पास एक मुठ्ठी मिट्टी डालने वाला कोई अपना नहीं था। कोई फूल या उसकी एक कली वहां रखने वाला कोई नहीं था।
इस कोरोना ने वो आलम दिखाया कि मुखाग्नि तो दूर कई मौतों के बाद तो परिजन अपनों के शव को मर्चुरी और अस्पताल तक में लेने नहीं गए।
इटली से लेकर स्पेन तक। अमेरिका से लेकर भारत और ब्रिटेन से लेकर चीन तक। जो इंसान एक साथ एकत्र होकर नाचने-गाने का आदी था, जो एक दूसरे के बगैर सांस नहीं लेता था, वो इंसान अकेला मर रहा था, हर जगह, हर शहर और हर देश में।
कहीं कुछ नहीं था सिवाय विलाप के, सदी के सबसे भयावह एक वायरस के और उससे होने वाली निपट अकेली मौतों के और लाशों के। साल 2020 का यही एकमात्र दृश्य था। जिसे कोई भी अब देखना नहीं चाहता है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)