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The Kashmir Files: दर्द ताजा है,टीस भी बाकी है, जड़ों तक लौटने के लिए संघर्ष अभी जारी है

कश्मीरी पंडित की दर्दनाक कहानी, खुद उनकी जुबानी

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स्मृति आदित्य

डॉ.प्रदीप मट्टू के शब्दों में 
 
कश्मीर फाइल्स में आज सभी ने देखा कि कश्मीरी हिंदुओं का जो पलायन हुआ उसके कारण और प्रभाव को कितने रियलिस्टिक तरीके से पेश किया। यह बहुत अच्छा प्रयास है, बंदिशों के चलते सभी कुछ वैसा ही नहीं दिखाया जा सकता है लेकिन उन दायरों में रहकर भी जो कुछ हमने सहा उसका सारांश विवेक अग्निहोत्री ने परदे पर उतार दिया है। ये ऐसा प्रतिबिंब है जिसे अब तक डेलिब्रेटली सरकारों, ह्युमन राइट एजेंसिंयों, मीडिया सहित सभी ने भरसक छुपाने की कोशिश की। इसके पीछे अपने कारण थे जिनकी बात हम नहीं करेंगे। 
 
पहली बार 32 साल बाद किसी ने यह हिम्मत दिखाई है कि वे सच को सामने लाने की कोशिश करें और बहुत अच्छे से इसे सामने लाए भी हैं। इस फिल्म ने देश के कांशस को झकझोर दिया है। अब यह सभी की जिम्मेदारी है कि जो जागृति आई है, जो सच सामने आया है उसे आगे बढ़ाया जाए।
 
जिन्होंने आतंक का दंश झेला है, वे जिनका सब कुछ इस आग में झुलस गया है... हालांकि 32 सालों में हमने काफी कुछ फिर हासिल किया है लेकिन हम अपने पुरखों की जमीन पर वापस नहीं जा सके हैं, हम अपने पुश्तैनी घरों तक नहीं लौट सके हैं। तो हम चाहते हैं कि सरकार और पूरा देश हमें इसमें मदद करे कि हम अपनी जड़ों तक लौट सकें और यह भी कि इस बात को साफ रेखांकित किया जाए कि वाकई नरसंहार हुआ था। इसके लिए बिल पास करना पड़े तो वह भी किया जाना चाहिए ताकि हम वह वापस पा सकें जो हमने उस दौर में खो दिया था। 
 
यह भी संभव है कि सरकार हमारे साथ बैठकर यह तय करे कि हम वापसी कैसे कर सकते हैं। कहा जा सकता है कि इस फिल्म ने कुछ राह तो जरुर बनाई है। 
 
आपने दूसरा प्रश्न पूछा कि हम किन हालात से गुजरे, इस फिल्म ने आपको एक आइडिया तो दे ही दिया है कि हम लोगों के साथ क्या बीती वहां पर लेकिन इसमें जितना दिखाया गया है वह पूरे घटनाक्रम का महज छोटा सा हिस्सा है, इसमें सिर्फ चंद बड़ी घटनाएं हाइलाइट की जा सकी हैं। इसमें सभी के साथ जो बीता उसका जिक्र हो भी नहीं सकता था। हर कश्मीरी पंडित परिवार की अपनी सफरिंग है, अपनी एक कहानी है, इतिहास है लेकिन 32 सालों में किसी ने उनकी सुनी ही नहीं। 89 और 90 के दौरान चार से पांच लाख कश्मीरी पंडित ने घाटी छोड़ी और हर उस परिवार के पास बताने को काफी कुछ है। इन परिवारों को कैसे अपनी पूरी संपत्ति छोड़नी पड़ी, घर छोड़ने पडे़। कैसे जिसे जैसे भागते बना वह उस साधन से भागा और कइयों को तो पैदल भी निकलना पड़ा।
 
यह बहुत दर्दनाक कहानी है, हम पिछले 32 सालों में उन जख्मों को भुलाने की कोशिश में थे, दबा चुके थे लेकिन इस फिल्म से एक बार फिर हमारे दर्द हमें याद आ गए कि कैसे हम वहां रह रहे थे और कैसे हमें सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा। यदि आप मेरी बात करें तो मैं यह बता सकता हूं कि मैं 1989 में पीडियाट्रिशियन बतौर काम कर रहा था। टीकालाल टपलू जी मेरे पड़ोसी ही थे,मेरे घर से 10 कदम दूर, और उनकी हत्या मेरे घर के ठीक सामने ही हुई थी। वह नरसंहार की एक तरह से शुरुआत थी। इसके बाद एक एक कर कुछ और कश्मीरी पंडित मारे जाने लगे, इसी का बड़ा स्वरुप जनवरी 90 में सामने आया जब एक रात मुस्लिम बस्तियों से आवाजें आने लगीं कि आज की रात फतह की रात है आज की रात हम सारे काफिरों का खात्मा कर देंगे। 
 
गाली गलौज होने लगी, पथराव होने लगा। जब दरवाजे लाठियों से पीटे जाने लगे तो हमें लगा कि यह रात हमारे लिए आखिरी रात होना तय है। हम प्रार्थना करने लगे कि जैसे भी हो हमें सुबह तक का समय मिल जाए ताकि हम भाग सकें। दरअसल उस रात घाटी में कोई सरकार ही नहीं थी क्योंकि फारुख अब्दुल्ला इस्तीफा दे चुके थे और राज्यपाल ने तब तक काम संभाला नहीं था। उन दो दिनों में पूरा कश्मीर एक तरह से आंतक फैलाने वालों के लिए खुला हुआ था। 
 
आप मदद के बारे में पूछ रही हैं तो मैं बता दूं कि हमारे पड़ोसी भी हमारे साथ खड़े होने को तैयार नहीं थे क्योंकि वे उन लोगों के साथ थे जो पथराव कर रहे थे, गालियां दे रहे थे और दरवाजों पर लाठियां चला रहे थे। ऐसा कोई बंदा नहीं था हमारे मोहल्ले से जो हमारे पास सांत्वना देने आया हो। उलटा यह था कि हमारे आसपास के लोग भी हमें यही कहने आए कि आपका नाम मारे जाने वालों की सूची में है, आप बच नहीं पाएंगे इसलिए घाटी छोड़ ही दीजिए। वे लोग हमें जाने के लिए ही उकसा रहे थे... बमुश्किल हम जम्मू पहुंचे और आखिर हम कानपुर में सैटल हुए। 
 
हमने यहां नई दुनिया बनाई लेकिन हम वह नहीं पा सके जिसे हम छोड़कर आए थे। हम अब वहां तभी जा सकेंगे जब सरकार और पूरे देश की तरफ से यह भरोसा हो कि हम सुरक्षित वहां रह सकेंगे और फिर हमारे साथ चार या पांच बार जैसी पलायन की स्थितियां बनीं वैसी नहीं बनेंगी।
 
 मैं जनवरी 90 के बाद सिर्फ एक बार वहां जुलाई 90 में ही गया था क्योंकि मेरी डिग्रियां और उससे जुड़े कागजात भी छोड़कर हमें भागना पड़ा था। हम वहां गए तो देखा कि घरों के ताले टूटे हुए थे, सभी कुछ लूट लिया गया था या जला दिया गया था लेकिन मेरी किस्मत अच्छी थी कि मेरी किताबें फेंकी गई थीं लेकिन मेरे डॉक्यूमेंट और जरुरी किताबें मुझे वापस मिल गईं। जाने क्या सद्बुद्धि उन्हें रही कि मेरे सर्टिफिकेट्स सुरक्षित मिल गए, मैं पुलिस के पास रिपोर्ट लिखवाने गया कि मेरी अनुपस्थिति में मेरे घर की क्या हालत कर दी गई लेकिन पुलिस वालों का कहना था कि आप क्या हमसे पूछ कर गए थे?यह हमारी प्राथमिकता और जवाबदेही नहीं है। 
 
आपको जो करना हो करें लेकिन हम मामला दर्ज नहीं कर सकते। हमें सिर्फ भगवान का सहारा था लेकिन धीरे धीरे हमने नए सिरे से उन जगहों पर जिंदगी की शुरुआत की जहां हमारी जड़ें नहीं थीं। एक दर्द, एक टीस हमेशा साथ लिए ही हम आगे बढ़ते रहे लेकिन यह दर्द तभी खत्म होगा जब हमारे जख्मों का हिसाब होगा, जिन्होंने हमें यह पीड़ा दी है उन्हें सजा मिलेगी और हम अपने स्वर्ग में वापस लौट सकेंगे। इस फिल्म ने जब जख्मों से पर्दा हटाया तो हमें पता चला कि जिन्हें हम दबा चुके थे वे दर्द अभी ताजा हैं..... 

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