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हिन्दी को लेकर सजग और सचेत बनें

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, सोमवार, 16 जनवरी 2017 (12:11 IST)
अमेरिका से नैनो टेक्नोलॉजी में पीएचडी करने के बाद हिन्दी भाषा के समर्थन में जंग छेड़ने वाले डॉ. पुनर्वसु जोशी का मानना है कि हम अपनी भाषा को लेकर सजग और सचेत नहीं हैं। हमें ज्यादा से ज्यादा हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। 

हिन्दी को लेकर शुरू की गई डॉ. जोशी की ऑनलाइन याचिका को देशभर के बुद्धिजीवी वर्ग के एक बड़े तबके ने समर्थन दिया और इसके पक्ष में रविवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर संविधान की 8वीं अनुसूची की यथास्थिति को बनाए रखने के लिए प्रदर्शन भी किया।

जोशी ने वेबदुनिया से बातचीत करते हुए कहा कि भाषा और संस्कृति के प्रश्न एक साथ जुड़े हुए हैं। हिन्दी भाषा भी परिवर्तित हो रही है। इसकी संरचना पूरी तरह छिन्न भिन्न हो चुकी है और जब कोई भाषा अपनी संरचना खो देती है तो उससे जुड़े विचार और सोच धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। 
 
एक सवाल के जवाब में जोशी कहते हैं कि हिन्दी को लेकर संघर्ष जरूर है। यदि हिन्दी बोलने वालों को बदल दिया जाए तो अंग्रेजी के लिए बाजार तैयार हो जाता है। ऐसा अफ्रीका और यूरोप में भी देखने को मिला है। हिन्दी को विस्थापित कर दिया जाए तो उसकी सोच और विचार भी विस्थापित हो जाएंगे। जब किसी समाज की भाषा विस्थापित होती है तो उस समाज में दूसरी भाषा और सोच डालने के लिए जगह तैयार हो जाती है। इस चिंतन को लेकर ही मैंने हिन्दी के लिए लड़ना शुरू किया है।

वीडियो इंटरव्यू...
विभिन्न बोलियों को भाषा का दर्जा देने के प्रश्न पर पुनर्वसु कहते हैं कि यदि ऐसा होता है तो इसका हिन्दी पर गहरा, गंभीर और विघटनकारी असर होगा। भाषा दुर्गा जैसी होती है, जिसे विभिन्न देवताओं से अस्त्र शस्त्र मिले हैं। ठीक उसी तरह से भाषा की शक्ति भी बोलियां हैं। बोलियों को भाषा से काटना उसके हाथ पांव काटने जैसा है। वे कहते हैं कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से भाषा और बोलियों में कोई अंतर नहीं है। यह अंतर सिर्फ सामाजिक और राजनीतिक होता है। अत: किसी भी बोली को भाषा का दर्जा नहीं मिलना चाहिए।
 
आगे की लिंक पर क्लिक करें : आइए खड़े हों, हिन्दी के विनाश के विरुद्ध 
 
पुनर्वसु ऐसे सर्वे, आलेखों और पुस्तकों से पूरी तरह असहमत दिखे, जिनमें यह दावा किया जाता है कि हिन्दी तेजी से बढ़ रही है और आने वाले समय में चीन की मंदारिन भाषा से भी आगे निकल जाएगी। वे कहते हैं कि हिन्दी की स्थिति वैसी नहीं है, जैसा प्रचारित किया जा रहा है। उन्हें इस बात का भी मलाल है कि हम अपनी भाषा को उतना सम्मान नहीं देते, जितना बाहर के देशों में उनकी भाषा को मिलता है।

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