महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र में जो नाम इस वक्त सुर्खियों में है, वो नाम है एकनाथ शिंदे। लंबे वक्त तक शिवसेना की सरपरस्ती में रहने के बाद उन्होंने बगावत कर दी है। यह बगावत न सिर्फ पार्टी के खिलाफ है, बल्कि शिवसेना का हेडक्वार्टर रहे मातोश्री यानी ठाकरे परिवार के खिलाफ भी है। एकनाथ शिंदे का कहना है कि पिछले ढाई साल में शिवसेना ने न सिर्फ हिंदुत्व को त्याग दिया, बल्कि इतने समय में महाराष्ट्र में शिवसेना का ग्राफ घटता गया और कांग्रेस– एनसीपी का कद बढ़ रहा है।
शिंदे अपने सहयोगी विधायकों के गुवाहटी में हैं, इधर उद्धव ठाकरे ने सीएम आवास वर्षा से अपना सामान निजी आवास मातोश्री में शिफ्ट कर दिया है। लेकिन आपको यह जानकर दिलचस्प होग कि आज महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े ठाकरे परिवार को चुनौती देने वाले एकनाथ शिंदे का राजनीतिक सफर भी बेहद दिलचस्प रहा है। वे एक ऑटो चालक रहे हैं, और आज राजनीति में उन्होंने अपना कद इतना बढ़ा लिया कि आज वे शिवसेना के सामने बागी की भूमिका में आ गए।
ऑटो चालक से यूनियन लीडर
जी, हां एकनाथ शिंदे मुंबई में एक ऑटो चालक रहे हैं। वे अपना ऑटो ठाणे इलाके में चलाते थे। यहां से वे शिवसेना की शाखा में जाया करते थे। यहीं शाखा में जाने के दौरान उन्होंने पार्टी के लिए एक लेबर यूनियन बना। इस यूनियन में बेहद ही अच्छे तरीके से काम करने की वजह से ही उन्हें शिवसेना में जगह मिलने लगी। इसके बाद उन्होंने 1997 में ठाणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के लिए कॉर्पोरेटर यानी पार्षद का चुनाव लड़ा और वे जीत भी गए।
राजनीति से हुआ था मोह भंग
एक वक्त ऐसा भी आया जब शिंदे का राजनीति से मोह भंग हो गया था। दरअसल, जब वे पार्टी के लिए काम कर रहे थे, ठीक इसी दौरान एक हादसा उनके जीवन में हुआ, जब उनके दो बच्चों की पानी में डूबने से मौत हो गई। अच्छे भले चल रहे स्थानीय राजनीतिक सफर में इस हादसे ने शिंदे को हिला दिया। राजनीति से मोह भंग हो गया। लेकिन उनके जीवन में आनंद दिघे नाम के शख्स की भी अहम भूमिका रही है। वे उन्हें बेहद मानते थे। एक तरह से उन्हें वे अपना गुरु ही मानते थे। संकट की इस घड़ी में आनंद दिघे की वजह से वे एक बार फिर से राजनीति में सक्रिय हुए। साल 2001 में ठाणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेश ने उन्हें अपना नेता चुना।
अपने गुरू की वजह से वापसी
एकनाथ शिंदे अपने गुरू दिघे से इतने प्रभावित थे कि दिघे के निधन के बाद उन्होंने उन्हीं की तरह कपड़े पहनना शुरू कर दिया, उन्हीं की तरह दाढी रखने लगे। एक तरह से शिंदे ने अपने गुरू दिघे का स्टाइल ही अपना लिया।
साल 2004 में विधानसभा का चुनाव जीता और यहीं से एकनाथ शिंदे का कद बढ़ने लगा।
इसी दौरान 2006 के आसपास जब राज ठाकरे शिवसेना से अलग हुए और उन्होंने अपनी पार्टी बना ली तो एकनाथ शिंदे को पार्टी में ज्यादा काम करने का मौका मिला। शिंदे पूरी तरह से राज ठाकरे की भूमिका में तो नहीं आ सके, लेकिन ठाणे जैसे क्षेत्र में उनका खासा दखल था। इस तरह शिवसेना में उनका उत्थान होता गया। एक तरह से वे राज ठाकरे की खाली जगह को भर रहे थे।
कहा तो यह भी जाता है कि जब शिवसेना ने भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ महा विकास अघाड़ी का दामन थामा तो एकनाथ शिंदे को शिवसेना की यह बदली हुई राजनीति पंसद नहीं आई, लेकिन चूंकि वे पार्टी के भरोसेमंद नेता थे तो उन्हें साथ देना ही था। लेकिन महा विकास अघाडी के साथ जाने का यह फैसला कहीं न कहीं शिंदे का चुभ ही रहा था। वहीं, दूसरी वजह यह भी मानी जा रही है कि ठाकरे परिवार चाहे वे बाल ठाकरे हों या उद्धव ठाकरे, दोनों अब तक पार्टी के लिए काम कर रहे थे, सत्ता में आकर सक्रिय राजनीति में नहीं आए, बाल ठाकरे तो किंग मेकर की ही भूमिका में रहे, लेकिन जब उद्धव ठाकरे सीएम बन गए तो यह डर भी घर करने लगा कि अब पार्टी के दूसरे नेताओं को मौका मिलेगा भी या नहीं। क्योंकि अब तो उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे भी सक्रिय राजनीति में आकर मंत्री हैं।
ऐसे में एक ऐसा नेता जिसने अपनी राजनीति की शुरुआत ऑटो चालक से लेकर यूनियन लीडर के तौर पर की है, सालों तक पार्टी के लिए काम किया है, वो पार्टी के बिगड़े हुए ढांचे में फिट होने के लिए तैयार नहीं होगा।