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Lokmanya Tilak : लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को बनाया आजादी का हथियार

हमें फॉलो करें Lokmanya Tilak : लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को बनाया आजादी का हथियार
, शनिवार, 22 अगस्त 2020 (16:18 IST)
प्रयागराज। ब्रिटिश शासकों के चंगुल से देश को आजादी दिलाने के लिए 'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा' का नारा देने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव को फिरंगियों के खिलाफ हथियार बनाया था।
 
ब्रिटिश हुकूमत की यातनाओं से देश कराह रहा था। अंग्रेजों की क्रूरता के खिलाफ भारतीयों को एक स्थान पर एकजुट होकर विचार-विमर्श करने के लिए एक पर्व की आवश्यकता थी। उसी परिप्रेक्ष्य में गणेशोत्सव जैसे पर्व को चुना गया जहां सभी लोग एकसाथ मिल-जुलकर फिरंगियों को सत्ता से उखाड़ फेंकने पर विचार विमर्श कर सकें। उस दौर में किसी हिन्दू सांस्कृतिक कार्यक्रम को एक साथ मिलकर मनाने की इजाजत नहीं थी।
 
बाल गंगाधर तिलक ने सबसे पहले ब्रिटिश राज के दौरान पूर्ण स्वराज की मांग उठाई। लाख बंदिशों के बावजूद तिलक ने लोगों में जनजागृति का कार्यक्रम पूरा करने के लिए महाराष्ट्र के पुणे में 1893 गणेश उत्सव का आयोजन किया। इस त्योहार के माध्यम से जनता में देशप्रेम और अंग्रेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा गया।
 
गणेशोत्सव पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा गया, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने
का जरिया भी बनाने के साथ ही आंदोलन का स्वरूप भी दिया गया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
 
गणेशोत्सव सार्वजनिक होने के बाद फिरंगियों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में पूरे महाराष्ट्र में फैलाया गया। उसके बाद नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अंग्रेज इससे घबरा गए थे। इस बारे में रोलेट समिति रिपोर्ट में भी चिंता जताई गई थी। 
 
रपट में कहा गया था कि गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं, स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। पर्चे में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। साथ ही अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जा
रहा है।
 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. योगेश्वर तिवारी ने बताया कि इतिहास की गहराइयों में झांकें तो महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य जैसे राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलाई। महान मराठा शासक छत्रपति शिवाजी ने गणेशोत्सव को राष्ट्रीयता एवं संस्कृति से जोड़कर एक नई शुरुआत की। पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। पेशवाओं के बाद 1818 से 1892 तक हिन्दू घरों के दायरे में ही सिमटा हुआ था।
 
लोकमान्य तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधारोपण किया वह विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। ऋद्धि-सिद्धि के देव विघ्नहर्ता गजानन न केवल भारत में अपितु तिब्बत, चीन, वर्मा, जापान, जावा एवं बाली, थाईलैंड, श्रीलंका, म्यांमार एवं बोर्नियो इत्यादि तमाम देशों में भी विभिन्न रूप में पूजे जाते हैं। इन देशों में गणेशजी की प्रतिमाएं भी चप्पे-चप्पे पर देखने को मिलती हैं।
 
तिवारी ने बताया कि उस समय गणेशोत्सव ने सामाजिक चेतना और राष्ट्र के प्रति एकता जागृत करने का काम किया। लोगों को देशभक्ति भावना और उसकी एकता और अखंडता के प्रति ओत-प्रोत किया। उन्होंने कहा कि किसी भी देश में उसकी सबसे बड़ी सांस्कृतिक क्रांति होती है। इसकी परिणति आज भारत में, नया भारत और श्रेष्ठ भारत के रूप में परिलक्षित हो रही है।
 
भारतीय पुराणों में गणेश की अनेक कथाएं समाहित हैं। ‘गणेश पुराण’ की महिमा सीमाओं की संकीर्णता से परे है, इसलिए पश्चिमी देशों की प्राचीन संस्कृतियों में भी गणेश की अवधारणा विद्यमान है।
 
प्रो. तिवारी ने बताया कि भारत से बाहर विदेशों में बसने वाले प्रवासी भारतीयों ने भारतीय संस्कृति की जड़ों को गहराई तक फैलाने का प्रयास किया और इन पर भारतीय देवताओं की पूजा-उपासना का स्पष्ट प्रभाव था, जो आज परिलक्षित है। विदेशों में प्रकाशित पुस्तक ‘गणेश-ए-मोनोग्राफ ऑफ द एलीफेंट फेल्ड गॉड’ में जो तथ्य उजागर किए गए हैं, उससे इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि विश्व के कई देशों में गणेश प्रतिमाएं बहुत पहले से पहुंच चुकी थीं और विदेशियों में भी गणेश के प्रति श्रद्धा और अटूट विश्वास रहा है।
 
प्रयागराज के सामाजिक गतिविधियों के जानकार अभय अवस्थी ने बताया कि प्रयागराज प्राचीन शहर है। यहां सभी प्रांत के लोग निवास करते हैं। उत्सव एवं पर्वों के केंद्र तीर्थराज प्रयाग में गणेशोत्सव की शुरुआत वर्ष 1957 के आसपास दारागंज निवासी अधिवक्ता रामचंद्र गोड़बोले एवं बालाजी पाठक द्वारा की गई। धीरे-धीरे इसका विस्तार हुआ। उस समय मराठी परिवार अधिक थे, किन्तु अब गिने-चुने मराठी परिवार दारागंज, कीडगंज, नैनी, झूंसी चौक, मीरापुर, करेली, सिविल लाइंस और गोविंदपुर आदि मोहल्ले में रहते हैं, जहां पर विघ्नहर्ता का पंडाल सजाया जाता है।
 
अवस्थी ने बताया कि इस बार वैश्विक महामारी के कारण प्रशासन की सख्ती के कारण श्रद्धालु घरों में ही विघ्नहर्ता की मूर्ति स्थापित कर पूजा-पाठ करेंगे। बड़े स्तर पर सजने वाले पंडाल नहीं तैयार होंगे।
 
गणेश चतुर्थी वैसे तो पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन महाराष्ट्र में इस उत्सव को लेकर लोगों में एक अलग प्रकार का उत्साह देखने को मिलता है। (वार्ता)

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