नई दिल्ली। कुछ लोग तमाम मुश्किलों के बावजूद बेहतरी की उम्मीद नहीं छोड़ते और व्यवस्था को बदलने के प्रण के साथ अपने प्राणों को भी दांव पर लगाने से पीछे नहीं हटते। मां गंगा की अविरल धारा को बहाल करने निकले स्वामी सानंद ऐसे ही लोगों में से एक थे।
उत्तरप्रदेश के छोटे से कस्बे कांधला में 1932 में जन्मे गुरुदास अग्रवाल का आईआईटी प्रोफेसर से गंगा पुत्र संत स्वामी सानंद बनने का सफर उनके मशीनी ज्ञान से रूहानी संकल्प की कहानी सुनाता है। रूड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग के स्नातक गुरुदास उर्फ जीडी अग्रवाल ने 1950 में उत्तरप्रदेश सिंचाई विभाग से अपने करियर की शुरुआत करते हुए नौकरी की और फिर उच्च शिक्षा के लिए आईआईटी, कानपुर चले गए। वहां से पीएचडी करने विदेश गए और वापस आकर आईआईटी, कानपुर में सेवाएं देने लगे।
17 वर्ष तक वहां सेवाएं देने वाले जेडी ने वर्ष 1977 में किसी विवाद के चलते आईआईटी, कानपुर में डीन ऑफ फैकल्टी और एन्वायरनमेंट इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख से इस्तीफा दे दिया और कानपुर से दिल्ली चले आए। उन्होंने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में सदस्य सचिव के रूप काम किया और यहां से पर्यावरण में आती गिरावट और नदियों में बढ़ता प्रदूषण उन्हें परेशान करने लगा। उन्होंने पर्यावरण के संरक्षण से जुड़ी कुछ संस्थाओं के साथ काम किया और प्रदूषण की जांच में काम आने वाले कुछ उपकरण भी बनाए।
इस दौरान गंगा की धारा को अविरल बनाने की ललक उनके हर काम पर भारी पड़ने लगी और कुछ समय तक चित्रकूट स्थित महात्मा गांधी ग्रामीण विश्वविद्यालय में सेवाएं देने के बाद जीडी अग्रवाल वर्ष 2008 में पूरी तरह से गंगा के पुनर्जीविनीकरण अभियान से जुड़ गए। गंगा संरक्षण के लिए अब तक उन्होंने 5 उपवास किए और यह उनकी 5वीं तपस्या थी, जो प्राणघातक रही।
संन्यास की राह पर निकले स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के नए नामकरण वाले प्रो. जीडी अग्रवाल के नाम पर कई उपलब्धियां हैं। आईआईटी, कानपुर के एक विद्वान और समर्पित प्रोफेसर के रूप में हों, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव हों या राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के सलाहकार हों, उनकी प्रतिभा और गहरी समझ ने उन्हें हर जगह सम्मान दिलाया।
चित्रकूट के एक छोटे से कमरे में एक स्टोव, एक बिस्तर और एक अटैची में दो-चार जोड़ी कपड़ों की सादगी और स्वावलंबन को संजोकर केवल ज्ञान बांटने वाले और पर्यावरण को बेहतर बनाने की जिद ठाने ग्रामोदय विश्वविद्यालय में मानद प्रोफेसर के रूप में भी प्रो. अग्रवाल ने खूब प्रतिष्ठा बटोरी।
एक संन्यासी और एक गंगापुत्र के रूप में प्रो. अग्रवाल का दृढ़ निश्चय ही था कि सरकार उत्तरकाशी पर 3 बांध परियोजनाओं को रद्द करने को विवश हुई और भगीरथी उद्गम क्षेत्र को पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील घोषित किया गया। सतही और भूगर्भ जल विज्ञान के क्षेत्र में देश के सर्वोच्च विज्ञानियों में शुमार प्रो. अग्रवाल के मार्गदर्शन में अलवर समेत देश के कई भागों में डार्क जोन को व्हाइट जोन में बदलने में सफलता मिली।
दरअसल प्रो. जीडी अग्रवाल के लिए गंगा की निर्मलता और अविरलता विज्ञान का विषय नहीं, बल्कि आस्था का विषय रहा। वे कहते थे कि गंगा उनकी मां है और वे मां के लिए अपनी जान दे सकते हैं। अपनी धुन का पक्का बेटा गंगा के जल की धारा अविरल रखने की अपनी मांग के साथ 22 जून को एक बार फिर अनशन कर बैठा और 11 अक्टूबर को अपनी देह त्याग दी। (भाषा)