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हैदराबाद एनकाउंटर : बलात्कार और भारत के समाज पर एक बयान

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सचिन कुमार जैन

, शनिवार, 7 दिसंबर 2019 (08:05 IST)
जब भावनाओं के झूठे-हिंसक-बर्बर उबाल से दिमाग शांत हो जाए तो थोडा सब्र से इन बिन्दुओं को पढना. इन्हें एक बार फिर से पढना; यदि आपको लगे कि इसे पढ़ लिया है, तो खुद से प्रश्न पूछना कि इन बिन्दुओं का मकसद क्या है. क्या इन बिन्दुओं का मकसद किसी पंथ या सम्प्रदाय को नीचा दिखाना है? क्या इससे भारतीयों की अस्मिता को चोट पहुंचाने का मकसद जुड़ा हुआ है? क्या इनके होते हुए आप अपने आप को एक इंसान भी मान सकते हैं? 
 
बात वर्ष २०१७ की है. इस वर्ष में हम जनवरी से दिसंबर तक के महीने शामिल कर रहे हैं. इस साल मध्यप्रदेश में ५५६२ महिलाओं (इसमें बच्चियां भी शामिल हैं) के साथ बलात्कार किया गया. आप मानते होंगे कि बलात्कार किसी दूसरे सम्प्रदाय या जाति के व्यक्ति ही करते हैं. अक्सर हम कहते हैं कि नीची जाति के लोग दुर्व्यवहार करते हैं. आखिर ये बात आई कहाँ से? यह बात आई अपने पितृसत्तात्मक और बर्बर चरित्र को छिपाने की कोशिश से. 
 
बहुत आसान है यह कह देना कि जब क़ानून और न्याय व्यवस्था इतनी खराब है तो विकल्प यही है कि चौराहे पर खडा करके आरोपी को सज़ा दे दी जाए. यानी आपने मान लिया है कि भारत की शासन व्यवस्था में बदलाव नहीं आ सकता है. यदि ऐसा है तो फिर हर किसी को क़ानून से ऊपर उठ जाने का अधिकार होगा. तब सोचिये कि समाज का चरित्र क्या होगा? फिर उसे भी खुद न्याय करने का अधिकार होगा, जिससे आपने १०० रूपए के मूलधन के एवज़ में उसकी पूरी सम्पदा हथिया ली? या जिसे उसकी जमीन-जंगल से बेदखल कर दिया गया? जिसकी मां या बहन अस्पताल ले बाहर उपेक्षा से तड़प-तड़प कर मर गयी? जिसे गाँव की बावड़ी या तालाब से पानी भरने नहीं दिया जाता है?   
 
बहुत अजीब बात है कि पिछले १० सालों में २३ बड़े-बड़े धार्मिक संतों-बाबाओं के कारनामे सामने आये, किन्तु आपका समाज तब सड़क पर नहीं निकला. आपने अपने धर्म की शुद्धि के लिए कोई अनुष्ठान नहीं किया? इसका मतलब है कि आजकल आप धर्म को परदे के रूप में इस्तेमाल करते हैं और उसके पीछे शोषण-भेदभाव-उत्पीडन करने का  जीवन जीते हैं. जरा सोचिये आपने पिछले कुछ महीनों में बलात्कारियों के पक्ष में मोर्चे निकाले हैं, क्योंकि वे आपके मज़हब के थे...इसका मतलब है मज़हब और जाति के आधार पर आप बलात्कार की अनुमति  प्रदान करते हैं!
 
भारत में वर्ष २०१७ में बलात्कार के कुल ३३६५८ मामले दर्ज हुए, इनमें से १०२२१ पीड़ितों की उम्र १८ साल से कम थी. मध्यप्रदेश में ५५९९ में से ३०८२ मामलों में बलात्कार बच्चियों के साथ हुआ. ये आंकड़े हमारे समाज के चरित्र को निर्वस्त्र करते हैं. 
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आप जानते हैं कि बलात्कार किसने किया है. नहीं जानते क्या? मैं बताता हूँ. वर्ष २०१७ में मध्यप्रदेश में ५५६२ बलात्कार के मामलों में ५४२४ मामलों में बलात्कार करने वाला व्यक्ति कोई परिचित ही था. यानी केवल १३८ मामलों में किसी अनजाने व्यक्ति ने बलात्कार किया. इनमें से भी ५९३ मामलों में बलात्कार करने वाला व्यक्ति पीड़ित महिला के परिवार का ही व्यक्ति था. 
 
भारत में सबसे ज्यादा बलात्कार परिवार में, परिवार या परिचित लोगों के द्वारा ही किये जाते हैं और भारत की परंपरा है कि बलात्कार की घटना को छिपाया जाए क्योंकि इससे "कुल की मर्यादा और इज्ज़त" में कमी आती है. परिजन औरत या बच्ची को समझाते हैं कि किसी से कुछ मत बोलना यदि पुलिस पूछे तो कहना कि कुछ नहीं हुआ! अगर तूने सच बोल दिया तो खानदान की इज्ज़त चली जायेगी. फिर अपने परिवार का क्या होगा. तुम्हारे भाई-बहन से कोई शादी करेगा? बलात्कार तो हो ही गया, अब इससे तेरी इज्ज़त तो लौटेगी नहीं. लेकिन अगर सच बोलेगी तो पूरे परिवार की इज्ज़त चली जायेगी. जरा सोचिये कि इस तरह की स्थितियों के बाद बड़ी हिम्मत से दर्ज कराये गए मामलों से पता चलता है कि ९० प्रतिशत से ज्यादा मामलों में परिवार या परिचय के लोग आरोपी के रूप में दर्ज होते हैं. जिन मामलों में बलात्कार के प्रकरण या रिपोर्ट ही दर्ज नहीं हुई, यह तय है कि वे सभी परिवार-कुलीन कुलों के ही मामले होंगे. ॉ
 
मध्यप्रदेश से आगे बढ़ते हिन् तो उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए बलात्कार के ४२४६ मामलों में से ३८१६ मामलों में आरोपी कोई परिचित ही है. २६१ मामलों में परिवार के सदस्यों ने ही बलात्कार किया. महाराष्ट्र में १९३३ बलात्कारों में से १७७२ परिचित व्यक्ति के द्वारा किये गए. राजस्थान में ३३०५ मामलों में २९०४ मामलों में आरोपी परिचत ही हैं. 
 
वर्ष २०१७ में भारत में दर्ज हुए बलात्कार के ३२५५९ मामलों में से ३०२९९ यानी ९३.१ प्रतिशत मामलों में आरोपी परिचित या परिवार का ही व्यक्ति थी. २२६० आरोपी अपरिचित थे जबकि ३१५५ आरोपी उसी परिवार के सदस्य थे. 
 
इसका मतलब है कि गड़बड़ दूसरे समुदाय या अपरिचित में नहीं है; आपने हमेशा स्त्री को अपना उपनिवेश बनाने की कोशिश की है और ये बलात्कार उसी कोशिश में अपनाई गयी रणनीति का हिस्सा होते हैं. आपको पता है कि बलात्कार हो रहा है और आपको यह भी पता है कि बलात्कार कोई अपना ही कर रह है. इसके बाद जब आप किसी रुखसाना, दिशा, प्रीती, श्रद्धा के मामले में बहुत भावुकता का प्रदर्शन करते हैं, तब यह साफ़ नज़र आता है कि आप अपना अपराध छिपाने की कोशिश भर कर रहे हैं. आपको डर है कि कहीं आपकी कहानी खुल न जाए. जब आप बलात्कार के लिए फांसी की मांग करते हैं, तो वस्तुतः आप अपने बर्बर मर्दवादी चरित्र पर संवेदनशील चेहरा चढाने की कोशिश कर रहे होते हैं. आप बलात्कार को एक घटना मानते हैं, जबकि बलात्कार एक लगातार चलने वाला जातिवादी लैंगिक और पूँजी को पूजने वाली संस्कृति का ऐसी प्रक्रिया होती है, जो सत्ता और ताकत का भाव बनाए रखने के लिए संचालित की जाती है. आप इसे एक घटना बना कर अपने काम में जुट जाते हैं. 
 
आप फांसी या खूनी मुठभेड़ के पक्ष में उत्सव इसलिए नहीं मनाते क्योंकि कोई बर्बर बलात्कारी मारा जाता है. वास्तव में आप फांसी-फांसी-मुठभेड़-मुठभेड़ इसलिए चीखते हैं ताकि इस समाज को सभ्य बनाने की कोशिश करने वालों को डराया जा सके. सत्ता भी आपके साथ होती है तो यदि कोई तर्क या तथ्य की बात करता है, तो आप उसका भी एनकाउन्टर करवा सकते हैं. 
 
यदि आप वास्तव में उद्वेलित हैं तो आपने संसद में यह सवाल क्यों नहीं पूछा कि हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था क्या कर रही है? उसका सच भी बड़ा डरावना है. उन्नाव के बलात्कार के मामले में आप देख ही चुके हैं (यदि आपकी आँखे खुली होंगी और उन आँखों की नसें दिमाग से ठीक-ठीक जुडी हुई होंगी तो) बलात्कार की शिकार एक बच्ची के पूरी परिवार की ह्त्या कर दी जाती है. किसी अन्य मामले में अदालत आरोपियों को जमानत देती है और आरोपी पीड़ित लड़की को चाकू से गोदते हैं और उसे ज़िंदा जला देते हैं. ऐसे में आप कैसे भारत माता की जय का नारा लगा लेते हैं? इसके लिए इतनी निम्नस्तरीय जहरीली ऊर्जा कहाँ से लाते हैं आप? आप मूल सवाल क्यों नहीं पूछते कि जब हर १०० में ५० बच्चे के साथ बचपन में ही लैंगिक उत्पीडन, बलात्कार और हिंसा हो रही है, तो उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ रहा होगा? कम से कम अध्ययन तो यही बताते हैं कि जिनके साथ बचपन में शोषण होता है और उन्हें फिर सही संरक्षण-परामर्श नहीं मिलता है, वे आगे चल कर अपराधी-बलात्कारी बन सकते हैं. आप अपने घरों में बच्चों को इंसान बनाने की पहल नहीं करना चाहते हैं, इसलिए मुठभेड़ पर ताली बजा रहे हैं. आप मर्दवादी समाज को मानव समाज में तब्दील नहीं होने देना चाहते हैं, इसलिए ख़ूनी न्याय का समर्थन करते हैं. अगर आप सचमुच कुछ बदलना चाहते हैं, तो पहले खुद को बदलिए और बच्चों के साथ होने वाले बलात्कार को रोकिये, उन्हें जातिवाद और साम्प्रदायिकता से बाहर निकालिए. उनके मुंह में अपनी नाकामी और डर का कपड़ा मत ठूंस दीजिये. उन्हें सच बताने दीजिये कि किसने उनके साथ बलात्कार किया है? आप चुप हैं, इसलिए आपके बच्चे भी बलात्कार के शिकार हैं या होंगे! यह एक चक्र है, इसके मुठभेड़ या फांसी से नहीं तोड़ा जा सकेगा.  
 
भारत में ३१ दिसंबर २०१६ की स्थिति में अदालतों में परीक्षण के लिए ११७४५१ प्रकरण लंबित थे. १ जनवरी २०१७ से शुरू हुए साल में इस संख्या में २८७५० की संख्या और जुड़ गयी. यानी इस साल में बलात्कार के १४६२०१ मामलों का परीक्षण होना था. लेकिन इसमें से केवल १८०९९ मामलों में ही परीक्षण पूरा हुआ.  
 
इसके बाद का सच यह है कि जिन १८०९९ मामलों में परीक्षण पूर्ण हुआ, उनमें से केवल ५८२२ में ही कोई अपराधी साबित हुआ. यानी केवल एक तिहाई मामलों में ही साबित हुआ कि बलात्कार के मामले में कोई अपराधी भी है. बाकी के मामलों यह साबित हुआ कि बलात्कार हुआ किन्तु बलात्कारी कोई नहीं है. ये कैसी न्याय व्यवस्था है? यदि आपके मन में भावुकता है और आप औरत के प्रति सम्मान का बहाव रखते हैं, तो जरा न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाईये कि ये क्या हो रहा है? आप जानते हैं कि पहली बार बलात्कार होने के बाद कानूनी व्यवस्था में बच्चियों और औरतों के साथ बार-बार दुर्व्यवहार होता है. उनका परिवार और हमारी कानूनी व्यवस्था उसके घाव पर बार-बार आक्रमण करती है ताकि वह टूट जाए. मामला एक बलात्कार से शुरू होता है, और एक जीवन की सैकड़ों मौतों तक जाता है. जरा अपने आप से पूछिए कि आप अपने पथ-सम्प्रदाय में औरत के साथ हुए अपमान या लैंगिक दुर्व्यवहार में उसके पक्ष में कितनी बार खड़े हुए हैं? या तय किया है कि केवल फांसी और मुठभेड़ के तमाशे पर ही ताली बजायेंगे. क्या आपने खुद कभी हिंसा-अपमान-बलात्कार-शोषण के चक्र को तोड़ने की कोई कोशिश की है?  
 
अब समाज चाहता है कि बलात्कार के आरोपी को तुरंत मृत्युदंड दिया जाना चाहिए. इसका मतलब है कि समाज ने यह सिद्धांत बना लिया है कि जिस बच्ची या स्त्री के साथ लैंगिक उत्पीड़न/बलात्कार हो; उसकी हत्या भी हो जाना चाहिए क्योंकि बलात्कार के आरोपी को भी इतना तो पता रहेगा ही कि इस अपराध के बाद उसे मृत्यु दंड मिलेगा. ऐसे में उसके बचने का यही रास्ता है कि वह बलात्कार के बाद बच्ची या औरत की हत्या भी कर दे. इससे कई आरोपी बच भी जायेंगे. यह भी होगा कि जैसा हमारा समाज है (जिसमें परिचित लोग ही ज्यादा आरोपी हैं), उसमें बलात्कार के मामले दर्ज ही न करवाएं जाएँ, क्योंकि तब समाज-परिवार को यह पता रहेगा कि इससे आरोपी को मृत्यु दंड मिलेगा. आखिरी बात यह कि जब आपकी जांच प्रणाली में सामान्य सजा के होते हुए ही पुलिस मामले साबित नहीं होने दे रही है, तो मृत्यु दंड की स्थिति में क्या होगा? क्या वास्तव में सही जांच होगी? जब जांच की व्यवस्था ही ध्वस्त है, तब सजा मृत्यु दंड की हो यह ७ साल की, कितना फर्क पड़ेगा? क्या बलात्कार और लैंगिक शोषण करने वाला चरित्र बदलना संभव नहीं है? क्या आप इतने मासूम हैं कि आपको यह नहीं पता कि भारत में ज्यादातर मामलों में बलात्कार का मामला ही दर्ज नहीं होता है. एक स्त्री के साथ हुए दर्दनाक हादसे पर हमारी क़ानून और न्याय व्यवस्था में बड़ा व्यापार फलता-फूलता है. फांसी की सज़ा से इस व्यापार में जरूर वृद्धि हो जायेगी. जरा पहले पुलिस और अदालत को दुरुस्त की कर लीजिये.   जब वह साल (वर्ष २०१७) ख़तम हुआ, तब तक १४६२०१ मामलों में से केवल १८०९९ मामलों का ही परीक्षण पूर्ण हुआ और ३१ दिसंबर २०१७ को ८७.५ प्रतिशत यानी १२७८६८ मामले अदालत में लंबित रह गए. जिनमें अगले साल और ज्यादा मामले जुड़ गए. हमने एक मामले में इतना हल्ला-गुल्ला और भयभीत करने वाला व्यवहार किया कि बाकी के मामलों में न्याय की मांग यूँ ही दम तोड़ गयी. 
 
आदरणीय, आपने कोई कोशिश नहीं की! आपको लगता है बन्दूक की गोली से न्याय होता है; नहीं आदरणीय, बन्दूक की गोली से न्याय नहीं होगा. न्याय केवल क़ानून और संविधान के जरिये होना चाहिए. पहले अपनी क़ानून व्यवस्था से सवाल पूछना और उसकी निगरानी करना सीखिए. यह तो सुनिश्चित कीजिये कि अभी जिस ७ साल की यह आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान है, उतनी तो अपराधी के नसीब में जाए. अगर आज आप क़ानून और संविधान को हाशिये पर धकेलते हैं, तो यह भी जान लीजिये कि आप कल किसी और को खुद निर्णय ले लेने और सजा दे देने का अधिकार भी दे रहे हैं. फिर न कहियेगा कि ऐसा क्यों हो गया. आदरणीय बलात्कार और बलात्कारी तो परिणाम है, समस्या का कारण नहीं! समस्या का कारण है बच्चों के साथ शोषण, मानव सभ्यता के मूल्यों पर ताकत और सत्ता के इच्छा का नियंत्रण, शिक्षा के माध्यम से हिंसा का विस्तार, समाज का हिंसक मर्दवादी चरित्र, वैज्ञानिक सोचा का अभाव (जो कारण जानने की समझ छीन लेता है) और राज्य का अन्यायपूर्ण होना।
 
मुझे आज बहुत डर लग रहा है. मुझे पुलिस, अदालत या मंत्री या किसी अपराधी से डर नहीं लग रहा है; मुझे डर लग रहा है आपके वहशीपन से. क़ानून के राज को ख़तम करने के आपके लक्ष्य से। 
 

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