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दुनिया को बचाना है, तो हमें शाकाहारी बनना ही पड़ेगा

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राम यादव

(विश्व शाकाहार दिवस (World Veg Day) विशेष)
दुनिया अब तक कम से कम इस बात के लिए भारतीयों को विस्मयभरे सम्मान की दृष्टि से देखती थी कि वे शाकाहारी होते हैं, ज़िंदा रहने के लिए जीवहत्या नहीं करते। किंतु अब, विशेषकर पश्चिमी जगत को, इस बात से हैरानी हो रही है कि भारतीय भी मांसाहार के मोहजाल में फंसते जा रहे हैं। मांसाहार को वे बड़े गर्व से आधुनिकता, संपन्नता और अपना आहार चुनने की स्वतंत्रता से जोड़ने लगे हैं। यहां तक कि अपनी ‘गऊमाता’ के मांसभक्षण में भी भारतीय अब कोई दोष नहीं देखना चाहते!

पिछले कुछ वर्षों में हुए सर्वे यही बताते हैं कि भारत को एक शाकाहारी देश मानना अब मिथक बन गया है। ‘राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑफ़िस’ (एनएसएसओ) के 2011-12 के आंकड़े दिखाते हैं कि उस समय भारत में करीब 8 करोड़ लोग, यानि औसतन हर 13 में से एक भारतीय, गोमांस या भैंस का मांस भी खा रहा था। इन 8 करोड़ लोगों में सात प्रतिशत सवर्णों, यानी ब्राह्मणों सहित सवा करोड़ हिंदू थे। बाद के वर्षो में हुए तीन बड़े सरकारी सर्वे कहते हैं कि भारत में शाकाहारियों का अनुपात अब केवल 23 से 37 प्रतिशत के बीच रह गया है। यानी, देश में मांसाहारियों का अब भारी बहुमत हो गया है।

हिंदू सबसे बड़ा मांसाहारी समुदायः अमेरिका में रहने वाले मानवशास्त्री बालमुरली नटराजन और भारत में उनके अर्थशास्त्री सहयोगी सूरज जैकब का एक अध्ययन कहता है कि भारतीय शाकाहारियों का 23 से 37 प्रतिशत अनुपात भी ‘सांस्कृतिक-राजनैतिक दबाव’ के कारण बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। अप्रैल 2018 में प्रकाशित उनके अपने अध्ययन के अनुसार, सच्चाई यह है कि अब केवल 20 प्रतिशत भारतीय ही शाकाहारी हैं। हिंदू अब सबसे बड़ा मांसाहारी वर्ग बन गए हैं। तेलंगाना के 98.7,  पश्चिम बंगाल के 98.55 और आंध्र प्रदेश के 98.25 प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं। यही नहीं, 2018 तक 18 करोड़, यानी क़रीब 15 प्रतिशत भारतीय गोमांसभक्षी थे– सरकारी दावे की अपेक्षा 96 प्रतिशत अधिक! इस बीच मांसाहारियों का अनुपात और अधिक बढ़ गया होगा। केरल में तो गोमांस खाने के पक्ष में सड़कों पर भारी प्रदर्शन तक हुए हैं।

भारतीय लोगों के स्वास्थ्य के बारे में अपने एक विश्लेषण में ‘इंडिया-स्पेन्ड’ का कहना है कि 80 प्रतिशत भारतीय पुरुषों और 70 प्रतिशत महिलाओं को यदि हर सप्ताह नहीं, तब भी बार-बार किसी न किसी मांसाहार का चस्का लगा करता है। पिछले कुछ ही वर्षों में शाकाहार की अपेक्षा कहीं महंगे मांसाहार के प्रति तेज़ी से बढ़ रहे इस मोह का अर्थ है कि आलोचक कुछ भी कहें, भाजपा के शासनकाल में लोगों की आय निश्चित रूप से बढ़ी है। आय के साथ संपन्नता का बढ़ना सराहनीय तो है, किंतु मांसाहार के बढ़ते हुए वर्चस्व को लोगों के स्वास्थ्य को गिराने और भूमंडल का तापमान बढ़ाने वाले ख़तरे के रूप में भी देखा जाना चाहिए। इस ख़तरे को समझने के लिए हमें विज्ञान में हुई नई खोजों और उन पश्चिमी देशों के अनुभवों पर नज़र डालनी होगी, जहां के लोग अपने स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के प्रति चिंता के कारण मांसाहार त्यागने लगे हैं।

पश्चिमी देश शाकाहारी बन रहे हैः सवा आठ करोड़ की आबादी वाला जर्मनी जनसंख्या की दृष्टि से यूरोप का सबसे बड़ा और संपन्नता की दृष्टि से भी एक सबसे अग्रणी देश है। यूरोप में सर्वोच्च जीवनस्तर वाले देशों के एक सर्वे में वह 2016 में तीसरे नंबर पर था। पूरी तरह मांसाहारी संस्कृति और परंपरा वाले जर्मनी में अब कम से कम 10 प्रतिशत, यानी 80 लाख लोग पूरी तरह शाकाहारी बन गए हैं। कुछ तो इतने विशुद्ध या कट्टर शाकाहारी बन गए हैं कि वे दूध-दही-मक्खन जैसी उस हर चीज़ से परहेज़ करते हैं, जो पशुओं या मधुमक्खियों जैसे जीव-जंतुओं से जीवहत्या के बिना मिलती हैं। ऐसा केवल जर्मनी में ही नहीं, पूरे पश्चिमी जगत में हो रहा है। इसके पीछे स्वाद से अधिक स्वास्थ्य, पर्यावरण प्रदूषण और बढ़ते हुए तापमान को लेकर चिंता है।

कठोर निरामिषों के लिए 1944 में अंग्रेज़ी में ‘वीगन’ नाम का एक नया शब्द गढ़ा गया था। इस बीच जर्मनी ही नहीं, सभी पश्चिमी देशों में फैल रहे ‘वीगन-वाद’ को, जनसाधारण के खान-पान की आदतों में परिवर्तन लाने की एक ऐसी नई विचारधारा भी कहा जा सकता है, जो शाकाहार को भी पूर्णतः अहिंसक बनाने के आंदोलन का रूप लेने लगी है। सुपर बाज़ारों में ‘वीगन-वादियों’ के लिए अलग से स्टैंड बनने लगे हैं और उनके लिए विशेष रेस्त्रां भी खुलने लगे हैं।

मांसाहार के पक्ष में तर्कः मांसाहार के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि हमारा शरीर पशु-पक्षियों के मांस के रूप में वह सब लगभग बना-बनाया पाता है, जो उसे अपनी ऊर्जा और शारीरिक विकास के लिए चाहिए। हर मांस उस जैविक संरचना से बहुत मिलता-जुलता है, जो हमारे शरीर की अपनी जैविक संरचना भी है, जबकि पेड़-पौधों की जैविक संरचना बहुत भिन्न होती है। मांस में अनेक प्रकार के अमीनो ऐसिड (अमीनो अम्ल), अनसैचुरेटेड फ़ैटी ऐसिड (असंतृप्त वसा अम्ल), विटामिन बी वर्ग के कई विटामिन और लौह (आयरन), जस्ते (ज़िंक) जैसे अनेक खनिज तत्व भी होते हैं जो हमारे शरीर के लिए बहुत आवश्यक हैं। हमारा 20 प्रतिशत शरीर प्रोटीन से बना होता है और प्रोटीन अमीनो ऐसिड से बनता है।

यह भी कहा जाता है कि मांस में इन सभी चीज़ों का घनत्व वनस्पतियों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है। हमारा शरीर जैविक संरचना में काफ़ी समानता के कारण जिस सीमा तक मांसाहार को पचा कर सोख लेता है, उसी सीमा तक वह शाकाहार को पचा कर सोख नहीं कर पाता। इस संदर्भ में एक आम उदाहरण यह दिया जाता है कि 100 ग्राम गोमांस में आधा मिलीग्राम लोहा होता है, जबकि लोहे की इसी सूक्ष्म मात्रा को पाने के लिए हमें 700 ग्राम पालक खाना होगा। हमारे शरीर का 70 प्रतिशत लोहा लाल रक्तकणों और हीमोग्लोबिन तथा मांसपेशियों की मायोग्लोबीन कोशिकाओं में रहता है।

यह सच है कि हमारी आंतें किसी मांस में निहित 20 प्रतिशत तक लोहा सोख लेती हैं, जबकि दालों और अनाज़ों में निहित लोहे की वे केवल तीन से आठ प्रतिशत मात्रा ही सोख पाती हैं। लेकिन इस मात्रा को भोजन के साथ ऐसे फल आदि खाने से बढ़ाया जा सकता है, जिनमें विटामिन सी की अधिकता हो। यानी, लोहे के लिए मांस खाना ज़रूरत कम, बहाना अधिक है।

शाकाहार में भी सभी विकल्प हैं: मांसाहार के कुछ फायदों के बावजूद जर्मनी के आहार-विशेषज्ञों की संस्था ‘डीजीई’ की सलाह है कि वयस्कों को एक सप्ताह में 600 ग्राम से अधिक मांस नहीं खाना चाहिए। इस संस्था के आहार वैज्ञानिक मार्कुस केलर कहते हैं, ‘वास्तव में समझबूझ के साथ जुटाये गए शाकाहार से भी सभी आवश्यक पोषक तत्व मिल सकते हैं। उदाहरण के लिए उनमें उच्च रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) और रक्तवसा (कोलेस्ट्रोल) को घटाने वाले और पाचनक्रिया पर अनुकूल प्रभाव डालने वाले ऐसे माध्यमिक (सेकेंडरी) पदार्थ भी हो सकते हैं, जो केवल शाकाहार में ही संभव हैं।’

‘डीजीई’ के विशेषज्ञों का कहना है कि शाकाहार में भी उन विटामिनों और सूक्ष्म मात्रा वाले खनिज तत्वों के विकल्प उपलब्ध हैं, जिन्हें मांसाहार की विशेषता बताया जाता है। उदाहरण के लिए पालक में लोहा ही नहीं कैल्शियम भी होता है। यही कैल्शियम करमसाग (अंग्रेज़ी में केल) और बथुआ (अरूगुला) में भी होता है। दालों से भी लोहे की सारी कमी पूरी की जा सकती है। आयोडीन के लिए आयोडीन वाला नमक लिया जा सकता है। जस्ता (ज़िंक) मिलेगा गेहूं और जौ के चोकरदार आटे तथा कुम्हड़े (कद्दू) के बीज में। विटामिन बी2 और विटामिन डी के लिए मशरूम (खुमी, कुकुरमुत्ता) का उपयोग किया जा सकता है।

यूरोप-अमेरिका में हुए अध्ययनः अमेरिका में हारवर्ड विश्वविद्यालय के महामारी विशेषज्ञों ने 12 लाख लोगों पर हुए 20 अध्ययनों का विश्लेषण किया। 2012 में उन्होंने बताया कि गाय, भैंस, भेड़, बकरी और सूअर जैसे जानवरों के लाल रंग के मांस (रेड मीट) को य़दि औद्योगिक ढंग से प्रसंस्कृत (प्रॉसेस) किया गया है, तो ऐसे मांस की प्रतिदिन केवल 50 ग्राम मात्रा भी हृदयरोगों की संभावना 42 प्रतिशत और मधुमेह (डायबिटीज) की संभावना 19 प्रतिशत बढ़ा देती है। अनुमान है कि ऐसा संभवतः नमक, नाइट्रेट और उन अन्य पदार्थों के कारण होता है, जो प्रसंस्करण के दौरान मांस में मिलाये जाते हैं।

यूरोप में पांच लाख से अधिक लोगों के बीच एक दीर्घकालिक अध्ययन में पाया गया कि जो लोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी इत्यादि वाले ‘प्रोसेस्ड रेड मीट’ के बजाय घर में पकाए गए सादे ‘रेड मीट’ के रसिया हैं, वे भी अपने आप को सुरक्षित नहीं मान सकते। उन्हें आंत का कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है। ‘यूरोपियन पर्स्पेक्टिव इनवेस्टिगेशन इनटू कैंसर’ (यूरोपीय कैंसर संभावना जांच/EPIC) नाम के इस अध्ययन में पाया गया कि जो लोग प्रतिदिन 100 ग्राम ‘रेड मीट’ खाते हैं, उनके लिए आंत का कैंसर होने का ख़तरा 49 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।

शाकाहारी प्रायः दीर्घजीवी होते हैं: जर्मनी के गीसन विश्वविद्यालय, हाइडेलबेर्ग के परमाणु शोध संस्थान और जर्मन स्वास्थ्य कार्यालय ने 1980 वाले दशक में शाकाहार के लाभ-हानि के बारे में एक-दूसरे से अलग तीन बड़े अध्ययन किए। वे यह देख कर चकित रह गए कि शाकाहारियों का रक्तचाप और शारीरिक वज़न बहुत अनुकूल पाया गया। उन्हें कैंसर और हृदयरोग होने की संभवना बहुत कम थी और उनके दीर्घजीवी होने की संभावना उतनी ही अधिक।

लंदन के ‘स्कूल ऑफ़ हाइजिन ऐन्ड ट्रॉपिकल मेडिसिन’ ने भी 11 हज़ार शाकाहारियों के साथ 12 वर्षों तक चला एक ऐसा ही अध्ययन किया। इन शाकाहारियों की तुलना एक ऐसे ग्रुप के लोगों से की गई, जो मांसाहारी थे, पर उनका रहन-सहन और सामाजिक दर्जा शाकाहारियों जैसा ही था। इस अध्ययन के परिणाम भी, 1980 वाले दशक में जर्मनी में हुए, ऊपर वर्णित परिणामों जैसे ही निकले।

शाकाहारियों की मृत्यु दर मांसाहारियों से कमः लंदन के शोधकर्ताओं ने पाया कि शाकाहारियों में रक्तचाप, रक्तवसा (कोलेस्ट्रोल) और यूरिक ऐसिड (मूत्राम्ल) का स्तर मांसाहारियों से बेहतर निकला। उनके हृदय और गुर्दे (किडनी) मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ थे। शाकाहारियों के बीच मृत्यु दर मांसाहारियों की अपेक्षा 20 प्रतिशत कम और कैंसर के मामले 40 प्रतिशत कम देखी गई। अध्ययनकर्ताओं ने यह भी कहा कि अध्ययन में शामिल शाकाहरियों में विटामिन, प्रोटीन या खनिज तत्वों जैसी किसी भी महत्वपूर्ण चीज़ का अभाव नहीं था। उनका स्वास्थ्य औसत से कहीं बेहतर था।

अमेरिका के राष्ट्रीय कैंसर संस्थान (NCI) ने पाया है कि मांसाहार कैंसर, हृदयरोगों, सांस की बीमारियों, लकवे (ब्रेनस्ट्रोक), मधुमेह (डायबेटीस), अल्त्सहाइमर (विस्मृति रोग), यकृत (लीवर) और गुर्दे (किडनी) की बीमारियों जैसी कम से कम नौ प्रकार की बीमारियों का कारण बन सकता है।

पाचनतंत्र के बैक्टीरियाः अमेरिका की ही ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क’ के शोधकर्ताओं को सामान्य शाकाहारियों और ‘वीगन’ कहलाने वाले परम शाकाहारियों के पाचनतंत्र की आंतों में, मांसाहारियों की आंतों की अपेक्षा ऐसे बैक्टीरिया अधिक मात्रा में मिले, जो आंतों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। हमारे शरीर के पाचनतंत्र में एक किलो से कुछ अधिक ही विभिन्न प्रकार के ऐसे सूक्षम जीवाणु भी होते हैं, जो भोजन को पचाने में सहायक बनते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो प्रकिण्वन क्रिया (फ़र्मन्टेशन) लायक फलों या अन्य खाद्यपदार्थों को गला कर विटामिन बी12 भी बना सकते हैं। यह एक ऐसा विटामिन है, जो अन्यथा केवल मांस में ही मिलता है। कई दूसरे अध्ययनों से यह बात बार-बार सिद्ध हो चुकी है कि मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होने तथा गुर्दे (किडनी) या पित्ताशय (गालब्लैडर) में पथरी बनने की संभावना कम होती है।

एक ऐसी भी खोज है, जो विचित्र और अविश्वसनीय भले ही लगे, पर सच हैः चेक गणराज्य में प्राग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जानना चाहा कि शाकाहारी और मांसाहारी महिलाओं तथा पुरुषों के शरीर की गंध में भी क्या कोई अंतर होता है। उन्होने पाया कि अंतर होता है। शाकाहारी पुरुषों-महिलाओं के शरीर की ही नहीं, उनके पसीने की गंध भी मांसाहारी पुरुषों-महिलाओं की अपेक्षा सुखद होती है! मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में देखा गया कि शाकाहरियों का हृदय अपेक्षाकृत जल्दी द्रवित होता है और मांसाहारियों में हिंसाभाव कुछ ज़्यादा ही होता है।

संतुलित शाकाहारी भोजनः सवाल उठता है कि क्या अच्छे स्वास्थ्य और लंबे जीवनकाल के लिए शाकाहारी होना ही पर्याप्त है? पश्चिमी देशों के डॉक्टरों और आहार विशेषज्ञों का कहना है कि मात्र शाकाहारी भोजन ही सब कुछ नहीं है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए संतुलित शाकाहारी भोजन होना चाहिये।

संतुलित शाकाहारी भोजन का अर्थ है, भोजन में दाल-चावल, साग-सब्ज़ी और रोटी ही नहीं, अदल-बदल कर दूध-दही, फल-फूल, कंदमूल इत्यादि का भी स्थान होना चाहिए। इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि किस खाद्यपदार्थ में कौन-सा विटामिन है, कितना प्रोटीन है और कौन-सा खनिज तत्व किस चीज़ से मिलेगा। उदाहरण के लिए दालों से सबसे अधिक प्रोटीन, फलों और सब्ज़ियों से सबसे अधिक विटामिन और सूखे मेवों से सैचुरेटेड फैट (संपृक्त वसा) मिलती है। प्रोटीन की औसत दैनिक आवश्यकता 50 ग्राम के बराबर बतायी जाती है, जो दालों से आसानी से पूरी की जा सकती है।

यह भी देखना चाहिए कि किस चीज़ को किस तरह पकाया जाए कि उसके विटामिन, प्रोटीन इत्यादि बने रहें, नष्ट न हों। काली चाय, कॉफ़ी और चॉकलेट से बचना तथा प्याज़ और लहसुन का अधिक उपयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये चीज़ें लोहे के अवशोषण में बाधा डालती हैं। शाकाहारी होने के साथ-साथ सिगरेट और शराब जैसी चीज़ों से दूर रहना, खुली हवा में चलना-फिरना और थोड़ा-बहुत व्यायाम करना भी अच्छे स्वास्थ्य और लंबी आयु के लिए ज़रूरी है।

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