जम्मू। दाद देनी पड़ती है उन भारतीय जवानों की जो करगिल तथा कश्मीर के उन पहाड़ों पर अपनी डयूटी बखूबी निभा रहे हैं जहां कभी एक सौ तो कभी डेढ़ सौ किमी प्रति घंटा की रफ्तार से बर्फीली हवाएं चलती हैं। ऐसे में भी वे सीना तान पाकिस्तानी जवानों के साथ साथ प्रकृति की दुश्मनी का भी सामना करते हैं।
चौंकाने वाली बात यह है कि भयानक सर्दी तथा खराब मौसम के बावजूद इन क्षेत्रों में टिके हुए जवानों के लिए यह अफसोस की बात हो सकती है कि सर्दी में इन स्थानों पर तैनाती का उनका 20वां वर्ष है और अभी तक वे सहूलियतें भारतीय सेना उन्हें पूरी तरह से मुहैया नहीं करवा पाई है जिनकी आवश्यकता इन क्षेत्रों में है। हालांकि सियाचिन हिमखंड में यह जरूरतें अवश्य पूरी की जा चुकी हैं।
इसके प्रति सेनाधिकारी आप शिकायत करते हैं। कुछ दिन पहले जब इस संवाददता ने इन क्षेत्रों का दौरा किया तो सेना के जवानों को उन कमियों से जूझते हुए देखा गया जिनके लिए आग्रह पिछले कई सालों से लगातार किया जा रहा है। हालांकि सरकार इसे मानती है कि करगिल की चोटियों पर कब्जा बरकरार रखना सियाचिन हिमखंड से अधिक खतरनाक है।
यह सच है कि हवा के तूफानी थपेड़े ऐसे की एक पल के लिए खड़ा होना आसान नहीं। तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे। ऊपर से भीषण हिमपात के कारण चारों ओर बर्फ की ऊंची-ऊंची दीवार। लेकिन इन सबके बावजूद दुश्मन से निपटने के लिए खड़े भारतीय जवानोें की हिम्मत देख वे पहाड़ भी अपना सिर झुका लेते हैं जिनके सीनों पर वे खड़े होते हैं।
कश्मीर सीमा की एलओसी पर ऐसे दृश्य आम हैं। सिर्फ कश्मीर सीमा पर ही नहीं बल्कि करगिल तथा सियाचिन हिमखंड में भी ये भारतीय सैनिक अपनी वीरता की दास्तानें लिख रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि वीरता की दास्तानें सिर्फ शत्रु पक्ष को मार कर ही लिखी जाती हैं बल्कि इन क्षेत्रों में प्रकृति पर काबू पाकर भी ऐसी दास्तानें लिखी जा रही हैं।
अभी तक कश्मीर सीमा की कई ऐसी सीमा चौकियां थीं जहां सर्दियों में भारतीय जवानों को उस समय राहत मिल जाती थी जब वे नीचे उतर आते थे। 20 वर्ष पूर्व तक ऐसा ही होता था क्योंकि पाकिस्तानी पक्ष के साथ हुए मौखिक समझौते के अनुरूप कोई भी पक्ष उन सीमा चौकियों पर कब्जा करने का प्रयास नहीं करता था जो सर्दियों में भयानक मौसम के कारण खाली छोड़ दी जाती रही हैं।
लेकिन करगिल युद्ध के उपरांत ऐसा कुछ नहीं हुआ। नतीजतन भयानक सर्दी के बावजूद भारतीय जवानों को उन सीमा चौकियों पर भी कब्जा बरकरार रखना पड़ रहा है जो करगिल युद्ध से पहले तक सर्दियों में खाली कर दी जाती रही हैं तो अब उन्हें करगिल के बंजर पहाड़ों पर भी सारा साल चौकसी व सतर्कता बरतने की खातिर चट्टान बन कर तैनात रहना पड़ रहा है। और इस बार स्नो सुनामी ने उनकी दिक्कतों तो बढ़ा दिया मगर हौंसले को कम नहीं कर पाया।