जम्मू। कश्मीर में एलओसी के इलाकों में हिमस्खलन से होने वाली मौतों से फिलहाल मुक्ति नहीं मिल पाई है। कल भी एक सैनिक हिमस्खलन में दबकर शहीद हो गया। आंकड़ों के मुताबिक पिछले चार सालों में डेढ़ सौ से अधिक की जान हिमस्खलन में जा चुकी है। इनमें नागरिक और सैनिक दोनों का आंकड़ा शामिल है।
आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2017 से लेकर 2020 के पहले दो महीनों तक जम्मू-कश्मीर के उच्चपर्वतीय इलाकों में 39 बड़े हिमस्खलन हुए हैं। वर्ष 2017 में 8 बड़े हिमस्खलन हुए थे। इनमें 44 लोगों की मौत हुई थी। सबसे ज्यादा 61 लोगों को अपनी जान 2019 में हुए हिमस्खलनों में गंवानी पड़ी है।
2019 में ही सबसे ज्यादा 18 बड़े हिमस्खलन हुए हैं। वर्ष 2018 में चार हिमस्खलनों में 18 मौतें हुई हैं। इससे इस साल भी मुक्ति नहीं मिल पाई है।
पाकिस्तान से सटी एलओसी पर दुर्गम स्थानों पर हिमस्खलन के कारण होने वाली सैनिकों की मौतों का सिलसिला कोई पुराना नहीं है बल्कि करगिल युद्ध के बाद सेना को ऐसी परिस्थितियों के दौर से गुजरना पड़ रहा है। करगिल युद्ध से पहले कभी कभार होने वाली इक्का-दुक्का घटनाओं को कुदरत के कहर के रूप में ले लिया जाता रहा था, पर अब करगिल युद्ध के बाद लगातार होने वाली ऐसी घटनाएं सेना के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही हैं।
अधिकांश हिमस्खलन नवंबर से अप्रैल के बीच ही होते हैं। सर्दियों में तापमान गिरने के साथ ही उच्चपर्वतीय इलाकों में हिमपात होता है। बर्फ जब गिरती है तो बहुत ही नर्म और मुलायम होती है। हिमपात के दौरान पहाड़ों पर बर्फ की एक चादर बिछ जाती है जो बर्फ की मात्रा के आधार पर मोटी या पतली होती है।
हिमपात के साथ ही यह बर्फ एक चट्टान की तरह सख्त हो जाती है। इस बीच अचानक धूप निकलने या हवा में नमी कम होने के साथ इस बर्फ पर एक और कड़ी परत जम जाती है। इस कड़ी परत पर जब दोबारा हिमपात होता है तो बर्फ टिक नहीं पाती। यह बर्फ भीतर होती है। यह नीचे खिसकने लगती है और अपने साथ पहले से ही पहाड़ पर जमी बर्फ को भी नीचे घसीटती है। इससे हिमस्खलन होता है। बर्फीले तूफान की स्थिति भी बन जाती है। ढलहान जितनी तीखी होगी, हिमस्खलन भी उतना ही तेज व घातक होगा। सामान्य तौर पर इसकी गति 300-350 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। हिमस्खलन जिस जगह जाकर थमता है, वहां बर्फ की एक मोटी परत बना देता है। इसमें दबे इंसान को अगर जल्द नहीं निकाला जाए तो उसका जिंदा बचना मुश्किल है।
अधिकतर मौतें एलओसी की उन दुर्गम चौकिओं पर घटी थीं, जहां सर्दियों के महीनों में सिर्फ हेलिकाप्टर ही एक जरिया होता है पहुंचने के लिए। ऐसा इसलिए क्योंकि भयानक बर्फबारी के कारण चारों ओर सिर्फ बर्फ के पहाड़ ही नजर आते हैं और पूरी की पूरी सीमा चौकियां बर्फ के नीचे दब जाती हैं।
हालांकि ऐसी सीमा चौकियों की गिनती अधिक नहीं हैं पर सेना ऐसी चौकियों को कारगिल युद्ध के बाद से खाली करने का जोखिम नहीं उठा रही है। दरअसल, कारगिल युद्ध से पहले दोनों सेनाओं के बीच मौखिक समझौतों के तहत एलओसी की ऐसी दुर्गम सीमा चौकिओं तथा बंकरों को सर्दी की आहट से पहले खाली करके फिर अप्रैल के अंत में बर्फ के पिघलने पर कब्जा जमा लिया जाता था। ऐसी कार्रवाई दोनों सेनाएं अपने अपने इलाकों में करती थीं।