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स्वतंत्रता बरकरार रखने के लिए रुका नहीं है कुर्बानियों का सिलसिला

हमें फॉलो करें स्वतंत्रता बरकरार रखने के लिए रुका नहीं है कुर्बानियों का सिलसिला

सुरेश एस डुग्गर

, मंगलवार, 14 अगस्त 2018 (23:00 IST)
अंबाला का विक्रमजीत सिंह 5 साल पहले सेना में भर्ती होने के बाद कश्मीर में शहादत पा गया। सात महीने पहले उसकी शादी हुई थी। पत्नी 3 माह की गर्भवती है। ऋषिकेश के हमीर सिंह ने भी कश्मीर में कुर्बानी दी है। गुमानीगर का विकास गुरंग, राजस्थान का भूप सिंह गुर्जर, फरीदाबाद का यशपाल, बीएसएफ का सीताराम उपाध्याय और न जाने कितने नाम उस फहरिस्त में आज शामिल हैं जिन्होंने कश्मीर में अपनी कुर्बानी दी है। स्थानीय युवकों की संख्या भी सैंकड़ों में है जो 30 साल से फैले आतंकवाद तथा पड़ौसी मुल्क के साथ 71 सालों से पैदा हुए वैमनस्य के कारण अपनी जानें खो रहे हैं।
 
आज जबकि भारत 72वां स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए उन हजारों स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रहा है जिन्होंने आजादी के आंदोलन में शिरकत की थी तो ऐसे में उन शहीदों को याद करना भी लाजिमी बनता है जो इस आजादी को बरकरार रखने की खातिर पिछले 71 सालों से अपने प्राण न्यौछावर कर रहे हैं।
 
आजादी के बाद पाकिस्तान के साथ होने वाली चार जंगों तथा चीन के साथ हुई लड़ाई में शायद ही इतने सैनिक शहीद नहीं हुए थे जितने की आज कश्मीर का आतंकवाद लील रहा है। देश के अन्य हिस्सों में फैला आतंकवाद भी सैनिकों की जानें ले रहा है और अगर इन कुर्बानियों को देश की आजादी को बरकरार रखने के लिए दी जा रही शहादतों के तौर पर निरूपित किया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
 
देखा जाए तो देश की आजादी को बचाने की जंगें ज्यादातर जम्मू कश्मीर में ही लड़ी गई हैं क्योंकि पाकिस्तान ने चार बार देश के टुकड़े करने की नापाक कोशिशें की हैं वर्ष 1947, 1965, 1971 तथा 1999 में। पर उसे हर बार मुंह की खानी पड़ी है। इन जंगों में फतह का परचम लहराने में देश के सैनिकों ने अपनी कुर्बानियां दी हैं जिन्हें भूला नहीं जा सकता।
 
ऐसा नहीं था कि 1947 में आजादी मिल जाने के बाद देश की स्वतंत्रता पर मंडराता खतरा खत्म हो गया था बल्कि वह आज आतंकवाद के भस्मासुर की भांति मुंह बाए खड़ा है। पहले यह खतरा पाकिस्तान तथा चीन के साथ युद्धों के रूप में सामने आ चुका है।
 
यही कारण है कि आजादी के बाद भी स्वतंत्रता को बचाए रखने की खातिर कुर्बानियां देने का सिलसिला थमा नहीं है। करगिल युद्ध को ही लें 550 के करीब जवानों और सैनिक अधिकारियों की शहादत के जख्म अभी भी ताजा हैं। यह तो था आंकड़ा सीमा और एलओसी पर जान देने वालों का। जबकि कश्मीर में पिछले 30 सालों से फैले आतंकवाद में शहादत पाने वालों का आंकड़ा भी कम चौंकाने वाला नहीं है।
 
आधिकारिक रिकार्ड के मुताबिक, 6500 से अधिक सुरक्षाकर्मी कश्मीर में आतंकियों से होने वाली लड़ाई में शहादत पा चुके हैं। इसमें वह आंकड़ा शामिल नहीं है जिन्होंने इस अरसे में एलओसी तथा इंटरनेशनल बार्डर पर सीमा पार से होने वाली गोलीबारी, बैट हमलों तथा अन्य प्रकार के हमलों में अपनी जानें गंवाई हैं। गैर सरकारी तौर पर यह आंकड़ा एक हजार से अधिक है।
 
यह सच है कि 1947 में मिली आजादी को बरकरार रखना बहुत मुश्किल हो रहा है। पड़ौसी मुल्क हमारी स्वतंत्रता पर लगातार खतरा पैदा किए जा रहा है। वह आतंकियों के रूप में इस खतरे को भारत की स्वतंत्रता पर पिछले 30 सालों से मंडराए हुए है। इस अरसे की घटनाओं पर एक नजर दौड़ाएं तो यह खतरा अब सिर्फ कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश के प्रत्येक हिस्से में है और यह कई जगह रौद्र रूप दिखा चुका है।
 
इतना जरूर था कि कश्मीर को भारत के साथ मिलाए रखने की जंग में सिर्फ देश के विभिन्न हिस्सों से भर्ती हुए सैनिकों ने ही कुर्बानियों नहीं दी हैं बल्कि जम्मू कश्मीर के सैंकड़ों युवाओं ने भी शहादत का जाम पिया है। इसमें उन 515 एसपीओ अर्थात विशेष पुलिस अधिकारियों की शहादत को नहीं भुला जा सकता जो मात्र कुछ रूपयों की खातिर इस कार्य में जुटे हैं तो एक हजार से अधिक ग्राम सुरक्षा समितियों के सदस्यों की कुर्बानी भी याद रखनी पड़ती है जो पुलिस और सेना के जवानों से पहले आतंकियों का सामना करते हुए अपनी जानें गंवाते रहे हैं। सिर्फ और सिर्फ देश की आजादी को बरकरार रखने की खातिर।
 

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