केरल में बाढ़ से हाहाकार मचा हुआ है। बाढ़ में अब तक 300 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। केरल के इतिहास के 100 वर्षों में ऐसी बाढ़ कभी नहीं आई है। सरकार और सेना राहत कार्यों में जुटी हुई है।
सरकार ने केरल के लिए 500 करोड़ का राहत पैकेज घोषित किया है। राज्य के 12 जिलों में 3.14 लाख लोग बेघर हो चुके हैं। इन्हें 1,568 राहत शिविरों में रखा गया है। केरल में बाढ़ के चलते 80 हजार लोग विस्थापित हुए हैं। इनमें अकेले एर्नाकुलम के अलुवा के 70 हजार लोग शामिल हैं।
बाढ़ से केरल में 8 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। सेना की 16, नौसेना की 28 और एनडीआरएफ की 58 टीमें राहत व बचाव कार्यों में जुटी हैं। भारी बारिश के चलते पिछले दिनों राज्य में छोटे-बड़े 80 बांधों के गेट खोलने पड़े। लेकिन इस बीच एक बात सामने आई है कि क्या इतनी बड़ी त्रासदी को रोका जा सकता था? पर्यावरणविदों ने इस त्रासदी के लिए खराब नीति-निर्णयों की ओर इशारा किया है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक मानसून से प्रभावित अधिकांश क्षेत्रों को पश्चिमी घाट के विशेषज्ञों के पैनल ने संवेदनशील बताया था। यह रिपोर्ट माधव गाडगिल, इकोलॉजिस्ट और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु में सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज के संस्थापक की अध्यक्षता वाली एक टीम ने तैयार की थी।
रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिमी घाटों के 1,40,000 किलोमीटर क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण की जरूरत के मुताबिक 3 जोनों में बांटा जाना चाहिए था। समिति ने इन इलाकों में खनन और निर्माण कामों पर प्रतिबंधों की सिफारिश की थी। रिपोर्ट पहली बार 2011 में सरकार को सौंपी गई थी, लेकिन केरल सरकार ने समिति की रिपोर्ट को खारिज कर दिया और इसकी किसी भी सिफारिश को नहीं अपनाया।
अगर इस रिपोर्ट पर अमल किया गया होता तो आज केरल का मंजर कुछ और ही होता। मीडिया में माधव गाडगिल ने इसे 'मानव निर्मित आपदा' बताते हुए कहा कि केरल में हालिया बाढ़ और भूस्खलन के लिए गैरजिम्मेदार पर्यावरणीय नीति को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।