पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन का कहना है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और चीन में भारत के पहले राजदूत के.एम. पणिक्कर में एक बात समान थी कि दोनों की नीतियों की आज भी आलोचना होती है और वे अपना बचाव नहीं कर सकते, क्योंकि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। इतिहासकार नारायणी बसु द्वारा लिखित पणिक्कर की जीवनी 'ए मैन फॉर ऑल सीजन्स' के विमोचन के अवसर पर सोमवार को 'इंडिया इंटरनेशनल सेंटर' में मेनन ने कहा कि पणिक्कर की प्रतिष्ठा को काफी नुकसान हुआ।
उन्होंने कहा कि नेहरू को 1962 के लिए दोषी ठहराया जाता है, लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि 'बाकी सब क्या कर रहे थे?' 'कोई और अपना काम क्यों नहीं कर रहा था?' जो व्यक्ति इस दुनिया में नहीं है वह अपना बचाव नहीं कर सकता इसलिए वे उसे दोषी ठहराते हैं, ऐसा करना बहुत आसान है। फिर किसी और को सुधार करने, बदलाव करने या कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती। मेनन ने कहा कि मुझे लगता है कि यही बात पणिक्कर और चीन नीति पर भी लागू होती है।
मेनन खुद भी 2000 से 2003 तक चीन में राजदूत रहे थे। उन्होंने कहा कि बलि का बकरा बनाना आसान है और बलि का बकरा समाज के लिए उपयोगी होता है, विशेषकर नौकरशाही के लिए। अप्रैल 1948 में पणिक्कर को चीन में राजदूत नियुक्त किया गया। 1 साल बाद देश में कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली। चीन की नई सरकार के साथ उनकी भूमिका बेहद विवादास्पद रही, उन पर तिब्बत में चीनी सैन्य अभियान के बारे में नेहरू को गुमराह करने का आरोप लगा।
चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण किया। चीन की 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मी' ने अक्टूबर 1950 में तिब्बत में प्रवेश किया जिसके परिणामस्वरूप तिब्बत अंतत: चीन गणराज्य में शामिल हो गया। मेनन ने पणिक्कर के बचाव में कहा कि चीन नीति पर पणिक्कर की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचने का एक कारण यह था कि हम पहले से ही जानते थे कि कहानी का अंत कैसे होगा? समस्या यह थी कि उन्हें नहीं पता था कि कहानी आगे क्या मोड़ लेने जा रही है। सच कहूं तो उनमें से किसी को भी नहीं पता था।
चीन में पणिक्कर के राजदूत रहने के दौरान के समय का जिक्र करते हुए मेनन ने उस दौर को अराजकता और अनिश्चितता से भरा बताया, क्योंकि नई कम्युनिस्ट सरकार को भारत ने अब तक मान्यता नहीं दी थी। उन्होंने कहा कि दिल्ली में और जमीनी स्तर पर पूरी तरह से भ्रम की स्थिति थी, जो पणिक्कर के राजनयिक अनुभव की कमी एवं सीमित खुफिया स्रोतों के कारण और भी बदतर हो गई थी।
मेनन ने कहा कि वह एक पेशेवर राजनयिक नहीं थे इसलिए वह लोगों के प्रति संदेहपूर्ण नहीं थे। उन्होंने यह भी कहा कि कैसे तिब्बत में चीन के कदम के दौरान पणिक्कर को जानकारी के लिए चीनी अधिकारियों पर निर्भर रहना पड़ा था और उनके पास सत्यापन के लिए कोई वैकल्पिक माध्यम नहीं था। मेनन ने बसु की किताब का हवाला देते हुए बताया कि कैसे तिब्बत के बारे में भारतीय राजनयिकों को दिए जाने वाले निर्देश लगभग हर हफ्ते बदलते रहते थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इस मुद्दे पर सरकार का रुख लगातार बदल रहा था।(भाषा)