तिब्बत को लेकर पंडित नेहरू की गलतियां और 1962 में चीन का भारत पर हमला
चीन ने 20 अक्टूबर, 1962 को ही भारत पर अकस्मात हमला क्यों किया
Pandit Nehrus mistakes regarding Tibet : पहले भाग में आपने पढ़ा कि दलाई लामा को कब और कैसे भारत में शरण लेनी पड़ी। अब हम पढ़ेंगे कि तिब्बत के प्रश्न पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने क्या ग़लतियां कीं, चीन ने 20 अक्टूबर, 1962 को ही भारत पर अकस्मात हमला क्यों किया और दलाई लामा के सामने अब क्या मजबूरियां हैं? पढ़ें आलेख का शेष भाग....
माओ की शंकाएं : चीन एक ऐसे समय में तिब्बत को हड़पने में लगा था, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत के बाद ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन जैसे उपनिवेशवादी देश अपने उपनिवेशों को आज़ाद कर रहे थे। उपनिवेशों के अंत के इसी दौर में भारत भी स्वतंत्र हुआ था। भारत के कम्युनिस्ट और वामपंथी कुछ भी कहें, चीनी कम्युनिस्ट तानाशाह माओ त्सेतोंग को भारत की स्वतंत्रता रास नहीं आ रही थी। भारत का यदि विभाजन न हुआ होता और पाकिस्तान नाम का एक नया देश न बना होता, तो उस समय भारत की जनसंख्या भी लगभग उतनी ही थी, जितनी 1940 वाले दशक में जितनी चीन की थी। माओ को डर था कि भारत, चीन का प्रतिस्पर्धी बन सकता है। तिब्बत पर भारत की धाक जम सकती है।
एक लोकतंत्र होने के नाते दुनिया में भारत के प्रति समर्थन और सद्भाव, कम्युनिस्ट तानाशाह माओ त्सेतोंग और उनके चीन की अपेक्षा कहीं अधिक था। माओ को यही बात चुभ रही थी। वे भारत और उसके तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की नहीं, अपनी और अपने चीन की प्रशंसा चाहते थे।
नेहरू की खुशफहमी : दूसरी ओर, नेहरू के मन में माओ और चीन को लेकर एक ऐसी खुशफहमी थी कि वे भारत के हितों की बलि देकर भी माओ को खुश रखना चाहते थे। 1950 वाले दशक के आरंभ में जब नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित वॉशिंगटन में भारत की राजदूत थीं, तब अमेरिका ने उन के माध्यम से स्पष्ट संकेत दिया था कि भारत यदि चाहे, तो सुरक्षा परिषद में ताइवान वाली स्थायी सीट उसे दी जा सकती है। उसी दशक के मध्य में सोवियत संघ (रूस) ने मॉस्को में सीधे नेहरू से कहा था कि यदि वे चाहें, तो भारत के लिए रूस, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 6ठीं स्थायी सीट बनाने का भी प्रयास कर सकता है। नेहरू ने दोनों बार यह कहकर मना कर दिया कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट भारत से पहले चीन को मिलनी चाहिए।
चीन उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ का न तो सदस्य था और न ही सदस्यता पाने के लिए उत्सुक था, जबकि भारत इस विश्व संस्था का एक संस्थापक सदस्य था। 1954 में संयुक्त राष्ट्र के केवल क़रीब 70 देश ही सदस्य देश थे, इसलिए उन्हें समझा-बुझा कर सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों वाली सीटों की संख्या 5 से बढ़ाकर 6 कर सकना बहुत मुश्किल नहीं रहा होता। आज यह सदस्य संख्या 193 है। समय के साथ अमेरिका का रुख बदला। चीन का विरोध करने के बदले उसे खुश करने के विचार से अमेरिका ने 1971 में, संयुक्त राष्ट्र संघ में ताइवान की सदस्यता और सुरक्षा परिषद में उसकी स्थायी सीट उससे छीनकर चीन को दिलवा दी।
'पंचशील समझौते' में 'तिब्बत को चीन का क्षेत्र' बताया : नेहरू अपने जीवनकाल में माओ और उनके चीन से कुछ अधिक ही सम्मोहित थे। किसी युद्ध की स्थिति में अमेरिका और ब्रिटेन की सहायता भी नहीं चाहते थे। 29 अप्रैल, 1954 को भारत और चीन ने पेकिंग में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के उन दिनों बहुचर्चित 'पंचशील समझौते' पर हस्ताक्षर किए। भारत-चीन संबंधों के इतिहास में इस समझौते में पहली बार तिब्बत का उल्लेख 'चीन का तिब्बत क्षेत्र' बताते हुए किया गया है। यानी, नेहरू ने मान लिया था कि तिबब्त कोई स्वतंत्र देश नहीं, चीन का ही एक भूभाग है। नेहरू ने उसी 1954 में, 19 से 31 अक्टूबर तक चीन की यात्रा भी की। तब भी उन्हें या तो पता नहीं चला, या वे जानना ही नहीं चाहते थे कि तिब्बत की जनता चीनी अत्याचारों से किस बुरी तरह कराह रही है।
चीनी अत्याचारों से विचलित दलाई लामा, प्रधानमंत्री नेहरू की 1954 की लंबी चीन यात्रा के बाद, 1956 में पहली बार भारत में थे। वे पंडित नेहरू से भी मिले। उन्हें तिब्बत में हो रहे असह्य चीनी अत्याचारों के बारे में बताया और अनुरोध किया कि उन्हें भारत में राजनीतिक शरण दी जाए। किंतु नेहरू ने दलाई लामा का अनुरोध ठुकरा दिया। उन्हें डर था कि दलाई लामा को शरण देने से उनके मित्र माओ त्सेतोंग बौखला जाएंगे। निराश दलाई लामा के पास तिब्बत वापस लौटने कि सिवाय कोई चारा नहीं बचा।
अमेरिका तिब्बतियों की सहायता कर रहा था : चीन से लड़ने-भिड़ने पर उतारू तिब्बतियों की भारत तो सहायता नहीं कर रहा था, पर अमेरिका गुप्त रूप से कर रहा था। अमेरिकी गुप्तचर सेवा CIA, विद्रोही तिब्बतियों की सहायता के लिए आवश्यक चीजें जुटाने और रसद पूर्ति का काम कर रही थी। कई विद्रोहियों को अमेरिका के कोलोराडो राज्य के पहाड़ों के बीच बने शिविरों में, छिप-छिपाकर गुरिल्ला युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग दी जा रही थी। 1960 वाले दशक में अमेरिका तिब्बतियों को हर साल 10,70,000 डॉलर के बराबर सहयता दे रहा था।
दूसरी ओर, 1954 का बहुप्रशंसित 'पंचशील समझौता' भारत के लिए 'भेड़ के भेष में भेडिया' सिद्ध होने लगा। चीन 'मैकमहोन लाइन' वाली सीमा को ठुकराते हुए भारतीय क्षेत्रों को अपना बताकर उन पर दवा करने लगा। 6 जून, 1962 को 'पंचशील समझौते' का अंत हो गया। यह बात समझ से परे है कि मानव जाति के इतिहास में जिस माओ त्सेतोंग की सनकों के कारण चीन में सबसे अधिक लोगों को मरना पड़ा– कम से कम 6 करोड़ लोगों को– उसकी नृशंसता के प्रति पंडित नेहरू अज्ञान या भ्रम में कैसे रहे! वे 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' के झांसे में कैसे आ गए!
1962 का चीनी हमला : नेहरू को होश तब आया, जब चीन ने 20 अक्टूबर, 1962 को भारत पर अकस्मात हमला कर दिया। ठीक एक महीने बाद, 20 नवंबर को युद्ध को एकतरफा तौर पर रोक कर चीन ने अपने सैनिक वापस भी बुला लिए। इतिहासकारों का मानना है कि माओ त्सेतोंग इस सीमित युद्ध द्वारा पंडित नेहरू को उनकी औकात दिखाना और 3 वर्ष पूर्व दलाई लामा को भारत में शरण देने की जुर्रत करने का कड़वा पाठ पढ़ाना चाहते थे। भारत पर हमले के लिए माओ ने ठीक वही समय चुना, जब अमेरिका के पास के क्यूबा में रूसी परमाणु मिसाइलें तैनात किए जाने से, रूस और अमेरिका के बीच युद्ध की नौबत आगई थी। सारी दुनिया का ध्यान क्यूबा-संकट पर केंद्रित था।
माओ ने संभवत : सोचा कि क्यूबा-संकट की आड़ लेकर भारत को हेठा दिखाने का यही सुनहरा मौका है। यही हुआ भी। क्यूबा-संकट के कोलाहाल में भारत पर चीनी आक्रमण की चीख-पुकर 'नक्कार खाने में तूती की आवाज़' की तरह दब गई। नेहरू ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनडी से सहायता मांगी, पर कैनेडी की प्राथमिकता रूस जनित क्यूबा संकट से निपटना था। कैनडी केवल सांकेतिक सहायता भेज सके। भारत हारा। क़रीब एक हज़ार भारतीय सैनिक शहीद हुए। 10 हज़ार को चीन ने बंदी बनाया। वह सीमा विवाद आज भी ज्यों का त्यों है।
आधे तिब्बत का चीन में विलय : तिब्बत को बहुत पहले ही डकार चुके चीन ने, दुनिया को भरमाने के लिए तिब्बत को 1965 से अपना एक 'स्वायत्तशासी क्षेत्र' कहना शुरू कर दिया। यही नहीं, तिब्बत के आधे से अधिक भूभाग को उससे काटकर अपने ऐतिहासिक भूभाग में मिला लिया; कहने लगा कि वह तो सदा से चीन का ही भूभाग रहा है। तिब्बती जनता को चीन-भक्त बनाने और तिब्बती रहन-सहन की संस्कृति को त्याग देने के लिए जनता पर तरह-तरह के अत्याचार होने लगे।
1965 ही वह वर्ष भी था, जब माओ के आदेश पर पूरे चीन में, तथाकथित 'सांस्कृतिक क्रांति' नाम का, स्कूली बच्चों और युवाओं का एक देशव्यापी महाहिंसक अभियान छेड़ दिया गया। 'रेड गार्ड (लाल प्रहरी)' कहलाने वाले स्कूली छात्रों और युवाओं ने तिब्बतियों को ही नहीं, पूरे चीन में ऐसे लाखों-करोड़ों लोगों को मारा-पीटा और कई बार मार भी डाला, जो माओ के वहशी कम्युनिज़्म से असहमत थे। 'लाल प्रहरियों' ने स्वयं अपने माता-पिता, शिक्षकों-प्राध्यापकों, किसानों और मज़दूरों तक को सड़कों पर दौड़ा-दौड़ा कर मारा-पीटा। यह सब लगभग 10 वर्षों तक चला।
धर्मनिष्ठा अपराध के समान : चीन में किसी धर्म के प्रति निष्ठा आज भी एक अपराध के समान है। बौद्ध-धर्मी तिब्बती क्योंकि बहुत अधिक धर्मनिष्ठ होते हैं, इसलिए चीनी अधिकारी उन्हें ही अपनी भड़ास का सबसे अधिक शिकार बनाते हैं। उनकी दिमागी धुलाई करने और उन्हें चीन-भक्त बनाने के लिए, महीनों या वर्षों तक पुनरशिक्षा शिविरों में डालकर उनसे रट्टा लगवाया जाता है। लोगों पर नज़र रखने के लिए हर जगह माइक और कैमरे लगे हुए हैं। इसीलिए, अब इक्के-दुक्के तिब्बती ही कभी-कभार भारत की तरफ भाग पाते हैं। पकड़ लिए जाने पर ऐसी-ऐसी अमानुषिक यातनाएं दी जाती हैं कि मौत ही मुक्ति लगने लगती है। मौत को ही चीनी अत्याचारों से मुक्ति मानने और तिब्बत की दुर्दशा की तरफ़ दुनिया का ध्यान खींचने के लिए, पेकिंग में हुए 2008 के ओलंपिक खेलों के समय, 160 तिब्बती युवकों ने ओलंपिक स्टेडियमों के सामने अपने आप को आग लगाकर, खड़े-खड़े या दौड़ते हुए आत्मदाह कर दिया। दुनिया ने इसे भी जल्दी ही भुला दिया।
तब भी, कुछ ऐसे तिब्बती और ग़ैर-तिब्बती भी हैं, जो बाहरी दुनिया को बताया करते हैं कि तिब्बत में क्या हो रहा है। अमेरिकी संसद की ओर से वित्तपोषित कुछ मीडिया इन गोपनीय स्रोतों से मिली ख़बरों को प्रचारित-प्रसारित भी करते हैं। वॉशिंगटन में स्थित 'रेडियो फ्री एशिया' तिब्बती जनता की ऐसी ही एक आवाज़ है। उसके तिब्बती विभाग के प्रमुख, काल्देन लोदोए ने एक फ्रांसीसी टेलीविज़न चैनल को बताया कि तिब्बत में तो यह संभव ही नहीं है कि कोई अपना मुंह खोले। लेकिन, चीन में उनके सहकर्मी, पीड़ितों के वकीलों या परिजनों से - गोपनीयता बरतते हुए- टेलीफ़ोन द्वारा बात कर लेते हैं। सीधे तिब्बत के भीतर से कोई जानकारी प्राप्त कर सकना, उत्तरी कोरिया में ऐसा कर सकने से भी अधिक दूभर है। उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्ट उत्तरी कोरिया को दुनिया का सबसे अधिक 'बंद देश' माना जाता है।
तिब्बत की स्थिति के बारे में संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट : इंग्लैंड-अमेरिका जैसे पश्चिमी देश चीन के विरुद्ध वैसे तो कोई राजनीतिक कर्रवाई आदि नहीं करते, पर वे तिब्बतियों की सहायता के लिए धन उपलब्ध करते हैं और उनके लिए काम करने वाली मानवाधिकार संस्थाओं की भी सहायता करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से तिब्बत की स्थिति के बारे में समय-समय पर रिपोर्टें पेश की जाती हैं। ऐसी ही एक रिपोर्ट में चीन पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं कि क़रीब 10 लाख तिब्बती बच्चों को उनके परिवारों से छीनकर, बहुत दूर-दराज़ के गांवों में बने चीनी भाषा के बोर्डिंग स्कूलों में ज़बरदस्ती रखा गया है।
अपने घर और समाज से दूर रहने के कारण तिब्बती बच्चे अपनी भाषा और सभ्यता-संस्कृति से कट जाते हैं। अधिकतर 5 साल की आयु में ही उन्हें उनके घरों से उठा लिया जाता है और उनके दिमागों में राजनीतिक प्रचार भरा जाता है। रिपोर्ट में इसे तिब्बतियों के साथ भेदभाव करने और उनके बच्चों को चीनी समाज में 'ज़बर्दस्ती घुलाने-मिलाने (बलात स्वांगीकरण/ एसिमिलेशन)' की नीति का एक उदाहरण बताया गया है। कहा गया है कि तिब्बती भाषा व संस्कृति को चीन मिटा देना चाहता है। रिपोर्ट के फ्रांसीसी प्रेक्षक-लेखक ने चीन की इस नीति को 'सांस्कृतिक जनसंहार' घोषित किया है।
दलाई लामा की मजबूरी : दूसरी ओर, चीन की बहुत थोड़े ही समय में धुंआधार आर्थिक-तकनीकी प्रगति एक ऐसी वास्तविकता बन गई है, जिसे सारी दुनिया को ही नहीं, दलाई लामा को भी स्वीकार करना पड़ रहा है। अब वे तिब्बत की स्वतंत्रता के बदले कोई बीच का रास्ता निकालने की बात करने लगे हैं। कहते हैं कि तिब्बत का चीन से पूरी तरह अलग हो सकना संभव नहीं लगता। स्वतंत्रता के बदले चीन के भीतर ही रह कर 'स्वायत्तता (ऑटोनॉमी)' शायद बीच का रास्ता हो सकता है। उनके अनुयायी पहले तो इस सुझाव को निगल नहीं पा रहे थे। किंतु, धीरे-धीरे उन्हें भी बीच के रास्ते वाल यह सुझाव जंचने लगा है।
पर, चीन को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि दलाई लामा और उनके अनुयायी स्वतंत्रता चाहते हैं या स्वायत्तता। चीनी नेताओं के लिए दोनों पूर्णतः अस्वीकार्य हैं। उन्हें दोनों में चीन की निंदा और तिब्बत को चीन से अलग कर देने का षड्यंत्र दिखता है। चीन के हृदयहीन नेताओं को इंतज़ार है उस दिन का, जिस दिन दलाई लामा अंतिम सांस लेंगे। 6 जुलाई 2025 के दिन 90 वर्ष के हो रहे दलाई लामा भी जीवन के अंत का सत्य जानते हैं। चीनी नेताओं ने संकेत दिए हैं कि 'दलाई लामा' कहलाने वाला तिब्बतियों का अगला धर्मगुरु, नास्तिक चीनी सरकार घोषित करेगी।
शंकाएं और कामनाएं : दलाई लामा ने भी शंका जताई है कि उनके न रहने पर हो सकता है कि तिब्बतियों के दो दलाई लामा हों। एक दलाई लामा तो निश्चित रूप से चीन की सरकार की पसंद का होगा और दूसरा शायद भारत सहित अन्य देशों में रहने वाले आम तिब्बतियों की पसंद का होगा। वैसे तो उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। पर, जनवरी में नई दिल्ली में अपनी नई पुस्तक के संदर्भ में उन्होंने कहा कि बहुतेरे पश्चिमी लोग तिब्बती बौद्ध धर्म में तो रुचि लेते हैं, पर 'तिब्बत को रजनीतिक समर्थन और सहायता देने से कतराते हैं। चीनी महाशक्तिवाद और विस्तारवादी दावों को कोई चुनौती नहीं देना चाहता। तिब्बत और चीन में मानवाधिकारों के हनन की बात भी लोग स्वीकार करते हैं, पर इससे आगे नहीं जाते।'
दलाई लामा का कहना है कि 'हम अपने अस्तित्व के संकट में हैं। सदियों से रह रही हमारी जनता का उत्तरजीवन, संस्कृति, भाषा और धर्म दांव पर लगा है। अपने देश पर स्वराज के अधिकार से हमें सदा के लिए वंचित नहीं किया जा सकता।...मैं वास्तव में एक वैश्विक या पंथनिरपेक्ष नैतिकता पर आधारित मौलिक मानवीय मूल्यों के सशक्तीकरण में योगदान देना, अंतरधार्मिक समझ-बूझ एवं मेल-मिलाप को सशक्त बनाना और भारत के प्राचीन ज्ञान-प्रज्ञान को एक बड़े पैमाने पर प्रतिष्ठत करने में सहयोग देना चाहता हूं। (यह लेखक के अपने विचार हैं, वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)