लोकसभा चुनाव को 8 महीने से भी कम समय बचा है, तीन प्रमुख राज्य मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव तो सिर पर ही हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ का नीचे आना सत्तारूढ दल के लिए गंभीर चिंता का विषय है। लेकिन, मोदी की घटती लोकप्रियता के पीछे कोई और नहीं बल्कि केन्द्र सरकार के कुछ बड़े कदमों को माना जा रहा है, जिनकी वजह से आने वाले चुनाव में उन्हें मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है।
राजनीति के जानकार तो मोदी सरकार के इन फैसलों 'आत्मघाती' कदमों की संज्ञा भी दे रहे हैं। ये ऐसे बड़े फैसले हैं, जो न सिर्फ राज्यों बल्कि केन्द्र में भी भाजपा की सत्ता की ट्रेन को पटरी से उतार सकते हैं। आइए, जानते हैं आखिर केन्द्र सरकार के वे कौनसे आत्मघाती कदम हैं, जो उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं...
नोटबंदी : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8 नवंबर, 2016 की रात जैसे ही 1000 और 500 रुपए के नोट बंद करने की घोषणा की, पूरे देश में हड़कंप मच गया। उस समय लंबी-लंबी लाइनों में लगने के बावजूद लोगों ने मोदी के इस फैसले का समर्थन किया था। लेकिन, जब हाल ही में रिजर्व बैंक ने बताया कि 99.3 फीसदी राशि बैंकों में वापस आ गई, तब विपक्ष और अर्थ के जानकारों ने सवाल उठाए कि जब लगभग पूरी राशि बैंकों में आ गई तो 'काले धन' का क्या हुआ?
दूसरी ओर तमिलनाडु में छापे के दौरान 100 करोड़ नकद और 100 किलो सोना बरामद हुआ, कई अन्य स्थानों पर करोड़ों में नकदी बरामद हुई, तब भी लोगों ने सवाल उठाया कि इन लोगों के पास नए नोट कैसे पहुंचे? अब लोगों को लगने लगा है कि काला धन तो खत्म नहीं हुआ, वे बेकार में ही परेशान हुए।
जीएसटी : सरकार द्वारा जीएसटी लागू करने के फैसले ने भी लोगों को नाराज ही किया। सरकार भी जीएसटी की दरों पर स्थिर नहीं है। व्यापारी जहां इसकी प्रोसेस को लेकर नाराजी जताते रहते हैं, वहीं आम आदमी इसलिए नाराज है कि टैक्स की दरें घटने के बावजूद उसे कम कीमतों को फायदा नहीं मिला। विभिन्न कंपनियों ने या तो उपभोक्ता को टैक्स का फायदा नहीं दिया या फिर अपने प्रोडक्ट का ही दाम बढ़ा दिया। दूसरी ओर पेट्रोलियम उत्पाद आज भी जीएसटी के दायरे से बाहर हैं और इनकी कीमतें लगातार नई ऊंचाइयों को छू रही हैं। इससे भी आम आदमी का पारा चढ़ा हुआ है।
एससी-एससी एक्ट : एक पुरानी कहावत है कि चौबेजी छब्बेजी बनने गए और रह गए दुबेजी। यह कहावत SC-ST एक्ट को लेकर सरकार द्वारा उठाए गए कदम पर सही बैठती है। भाजपा सरकार ने दलित और आदिवासी वोटरों को खुश करने के लिए बहुसंख्य सवर्ण वोटों को नाराज कर दिया। जबकि, सवर्णों का बड़ा वर्ग भाजपा का समर्थक माना जाता है। कई राज्यों में सवर्ण संगठनों ने भाजपा और उसकी सरकारों के खिलाफ मोर्चा भी खोल दिया।
चूंकि अब तीर तो कमान से निकल चुका है, लेकिन यह देखना मजेदार होगा कि भाजपा आगामी विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों में किस तरह से मतदाताओं को मैनेज कर पाती है, या फिर सत्ता की नाव किनारे लगने के बजाय मझधार में ही डूब जाएगी।