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"मोदी-योगी युति" : फ़ेसबुक से लेकर फ़ैज़ाबाद तक क्यों हार रहे हैं लिबरल्स

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सुशोभित सक्तावत

जब 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा जा रहा था और चुनावी माहौल में होने वाली सुपरिचित सांप्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता बहस राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में थी, तब मैंने कहा था कि इन दोनों से परे इस चुनाव में नरेंद्र मोदी "एस्प‍िरेशन" की राजनीति कर रहे हैं। तब एक "सेकुलर" मित्र, जो अनेक अन्य सेकुलर मित्रों की तरह अब "अमित्र" हो चुके हैं, ने "एस्प‍िरेशन" का पाठ "इंस्प‍िरेशन" की तरह करते हुए कहा था कि आप नरेंद्र मोदी को "प्रेरणास्पद" नेता भला कैसे कह सकते हैं।

तब मैंने उन्हें याद दिलाया था कि मैंने "एस्प‍िरेशन" शब्द का इस्तेमाल किया है, "इंस्प‍िरेशन" शब्द का नहीं, ठीक उसी तरह, जैसे "कुकूज़ नेस्ट" में मनोरुग्णालय का बुद्ध‍िजीवी अपने मित्रों को याद दिलाता है कि मैंने "अल्यूज़न" शब्द का इस्तेमाल किया है, "इल्यूज़न" का नहीं। "नक़्क़ारख़ाने की तूती" की तरह मनोरुग्णालय में दार्शनिक धारणाओं का निरूपण यों भी एक दूर तक जाने वाला "रूपक" है।
 
मुझे संतोष है कि तीन साल पहले लगाया गया वह अनुमान बहुत ग़लत साबित नहीं हुआ है और अब "मोदी-योगी युति" के स्थापित हो जाने के बाद वह परिघटना एक दूसरे स्तर पर चली गई है। लेकिन इससे पहले हमें यह समझ लेना होगा कि "एस्प‍िरेशन" की राजनीति से आशय क्या है।
 
मसलन यही कि योगी के राजतिलक के बाद हतप्रभ-हतवीर्य राजनीतिक चिंतन की तरफ़ से दो तरह की "थ्योरियां" सामने आ रही हैं। एक तो यह घिसी-पिटी थ्योरी कि आज नरेंद्र मोदी भाजपा का "मुखौटा" है और योगी आदित्यनाथ भाजपा की सच्चाई। जैसे कि असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि नरेंद्र मोदी भाजपा का "यूज़रनेम" है और योगी आदित्यनाथ भाजपा का "पासवर्ड"। सुधीजनों को याद आएगा कि एक ज़माने में गोविंदाचार्य ने यही बात "अटल-आडवाणी युति" के बारे में भी कही थी कि अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा का "मुखौटा" है और लालकृष्ण आडवाणी भाजपा का असल चेहरा। एक वो भी दौर था, जब आडवाणी को सांप्रदायिकता का प्रतीक माना जाता था। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व ने सांप्रदायिकता के उस प्रतीक को धूमिल कर दिया था और उसे तुलनात्मक रूप से उदारवादी साबित कर दिया था। अब योगी का मुख्यमंत्रित्व नरेंद्र मोदी को तुलनात्मक रूप से अधिक उदारवादी महसूस कराने लगा है। आप देख सकते हैं कि "सापेक्षता" का सिद्धांत यहां पर किस तरह से काम कर रहा है।
 
"मोदी-योगी युति" को लेकर दूसरी थ्योरी यह है कि मोदी ने उत्तरप्रदेश में अपना एक "काउंटर बैलेंस" स्थापित कर दिया है और अब आप देख सकते हैं कि समूचा राष्ट्रीय विमर्श मोदी और योगी पर केंद्रित हो गया है, जो कि कभी "मोदी-राहुल", "मोदी-केजरीवाल" या "मोदी-नीतीश" पर केंद्रित था। आप इसे नरेंद्र मोदी की राजनीतिक चतुराई की एक मिसाल भी कह सकते हैं कि योगी की उग्र छवि के बरअक़्स अपनी अब उदार बन चुकी छवि की बदौलत वे 2019 की वैतरणी पार करने की कोशिश करें। गोयाकि, आप अगर दिल्ली में योगी नहीं चाहते हैं तो मोदी को वोट दीजिए, चूंकि मैदान में कोई और अब है ही नहीं।
 
एक राजनीतिक टिप्पणीकार के रूप में "इंडियन एक्सप्रेस" के पूर्व संपादक श्री शेखर गुप्ता की बुद्ध‍िमत्ता का मैं हमेशा क़ायल रहा हूं और मेरा मानना है कि उत्तरप्रदेश चुनाव परिणामों के बाद हुए विमर्शों के व्यामोह में सबसे सधी हुई अंतर्दृष्ट‍ि शेखर गुप्ता की ही तरफ़ से आई है। शेखर कहते हैं कि 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद से जो "इंदिरा-युग" शुरू हुआ था, वह 1989 में राजीव की हार के बाद समाप्त हो गया। यानी 1977 के चुनाव में इंदिरा की हार और 1984 में इंदिरा की हत्या भी अंतत: "इंदिरा-युग" की ही परिघटनाएं थीं। 1989 में "मंडल" और "मंदिर" की राजनीति का उदय हुआ था, जिसके केंद्र में वीपी सिंह प्रणीत जनता दल और लालकृष्ण आडवाणी प्रणीत भाजपा थी। 1991 में नरसिंहराव-मनमोहन की जोड़ी ने आर्थिक सुधारों का सूत्रपात करके इन दो "एम" फ़ैक्टरों में एक तीसरा "एम" फ़ैक्टर जोड़ दिया : "मार्केट"। 1990 में आडवाणी की रथयात्रा का कामकाज संभालने वाले नरेंद्र मोदी ने इन तीनों परिघटनाओं की समेकित ताक़त को तभी समझ लिया था और 2014 में नरेंद्र मोदी द्वारा लड़े गए चुनाव में "मंडल", "मंदिर" और "मार्केट" तीनों ही भाजपा के एजेंडे में शामिल थे।
 
आज उसके तीन साल बाद जो एक बात मोदी के नेतृत्व में संचालित हो रही भाजपा को परिभाषित कर रही है, वो ये है कि अब उसमें अत्यंत साहसी निर्णय लेने का माद्दा पैदा हो गया है, जबकि भारतीय राजनीति में हमेशा ही साहसी निर्णयों से परहेज़ किया जाता रहा। सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी और अब योगी की घटस्थापना, ऐसे ही साहसिकता से भरे निर्णय हैं और यह ऐन वही "एस्प‍िरेशन" की राजनीति है, जिसकी ओर मैं 2014 के चुनावों के दौरान संकेत कर रहा था। दंभ, ढिठाई, आक्रामकता कभी भी भारतीय चेतना के गुण नहीं रहे। क्रिकेट में विराट कोहली और राजनीति में नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता के ऐन यही कारण हो सकते हैं कि ये उस पुरानी परिपाटी को तोड़ने के लिए हद से अधिक उद्यत और तत्पर नज़र आते रहे हैं और यह भारतीयों के लिए एक नए क़िस्म का रोमांच है।
 
शेखर गुप्ता ने नब्ज़ पर हाथ रखते हुए कहा है कि धर्मनिरपेक्षता की मोदी-शाह की परिभाषा यह है कि भारत आत्मविश्वास से भरा हिंदू राष्ट्र है और यही उसकी धर्मनिरपेक्षता है। मुसलमान अगर इसमें अपनी जगह जान लेंगे तो सुरक्ष‍ित रहेंगे। लेकिन भारत का राजा कौन होगा, यह तय करने का अधिकार अब उनके पास नहीं रहेगा।
 
जेएनयू के लिबरल्स और हिंदी साहित्य के सेकुलर्स जब तक इस बात को समझेंगे, तब तक उनके पैरों के नीचे से बची-खुची ज़मीन भी जाती रहेगी। पौरुष से भरा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अब नया राजनीतिक "पैराडाइम" है। यही नई "पोलिटिकल एस्प‍िरेशन" है। राजनीति हमेशा अपने लिए एक "नैरेटिव", एक लोकप्रिय मुहावरा रचती है। और "मोदी-योगी युति" ही भारत की राजनीति का नया "नैरेटिव" है। इसकी तोड़ करने के लिए अब आपको इसके ही क़द का कोई "नैरेटिव" लाना होगा। अन्यथा "फ़ेसबुक" से लेकर "फ़ैज़ाबाद" तक हारते रहिए, मेरे प्रिय लिबरलो!
 
आपको योगी आदित्यनाथ को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री की गादी पर बैठे देखकर कष्ट होता है? तो जान लीजिए कि इसके बीज उस "नेहरूवादी राजनीति" में छुपे हुए हैं, जो भारत-विभाजन से लेकर मुस्ल‍िम-तुष्टीकरण और अयोध्या-विवाद तक के मूल में है। यह एक ऐतिहासिक तारतम्य है। धर्मनिरपेक्षता के पुख्ता और नैतिक मानदंड अगर सन् सैंतालीस में ही स्थापित कर दिए जाते तो आज भारत में भी बेहतर शासक राज कर रहे होते। आप यह तो पता लगाने की कोशिश कीजिए महाराज कि इस विषबेल का मूल कहां पर है।

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