हमारे शास्त्रों की शिक्षा है कि किसी शरणार्थी को अपनाने से बड़ा पुण्य और ठुकराने से बड़ा पाप नहीं होता। पर, क्या हम आज की झूठ-फरेब भरी दुनिया में आंख मूंदकर सबको शरण दे सकते हैं! प्रस्तुत है इस लेखमाला की दूसरी कड़ी।
ऐसा भी नहीं है कि सभी शरणार्थी जान बचाने के लिए भागने वाले, दूध के धुले, भोले-भाले दया के पात्र होते हैं। वे घुसपैठिये भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, यूरोप में शरण मांगने वालों में पांचवां सबसे बड़ा समुदाय पाकिस्तानी हैं। अपराधों और आतंकवादी घटनाओं में उनके नाम अक्सर मिलते हैं। नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क की जनसंख्या में पाकिस्तानियों का अनुपात अन्य विदेशियों की तुलना में चौंकाने वाला है। उत्तरी यूरोप के इन देशों में ऐसी बर्फीली ठंड पड़ती है कि अच्छे-अच्छों के छक्के छूट जाए। यूरोप के ये सबसे ठंडे देश सबसे खुशहाल देश भी हैं। वहां पाकिस्तानियों की अधिकता अनायास ही तो नहीं हो सकती!
पाकिस्तान की इस्लामी संस्थाएं शरणार्थी प्रायोजक! : सुनने में तो यह भी आया है कि पाकिस्तान की कुछ इस्लामवादी संस्थाएं वहां के लोगों को शरणार्थी बनकर यूरोप जाने के लिए प्रेरित और प्रायोजित करती हैं। 2015 के अगस्त के अंतिम दिनों में हंगरी में जो शरणार्थी फंसे हुए थे, उनके बीच पाकिस्तानियों का विश्वास अर्जित कर उनसे बात करने वाले हिंदी भाषा के एक हंगेरियाई छात्र ने इसकी पुष्टि की है।
एक टेलीविज़न चैनल को इस छात्र ने बताया कि कई पाकिस्तानियों ने उससे कहा कि उन्हें यूरोप में इस्लाम का प्रचार करने के लिए भेजा गया है। प्रायोजक संस्थाएं ही उनकी यात्रा का ख़र्च उठा रही हैं। इन संस्थाओं से जुड़े और यूरोप में पहले से रह रहे कुछ पाकिस्तानी मोबाइल फ़ोन द्वारा उनका मार्गदर्शन कर रहे हैं। उन्हें आसानी से वीसा नहीं मिल सकता था, इसलिए वे भी दूसरे देशों के लोगों की तरह शरणार्थी बनकर आए हैं और उन्हीं के बीच रह रहे हैं।
सबके हाथों में मोबाइल फ़ोन : उन दिनों में यूरोप में सभी लोग बहुत चकित हो रहे थे कि अधिकतर युवा शरणार्थियों के हाथों में न केवल मोबाइल फ़ोन थे, वे अधिकतर समय फ़ोन को लेकर ही व्यस्त भी दिखते थे। उन्हें यूरोप पहुंचते ही मोबाइल फ़ोन के नंबर आदि कैसे मिल गए? जर्मनी पहुंचे ऐसे ही हज़ारों शरणार्थी आपस में बात कर, 31 दिसंबर 2016 वाली नववर्ष की रात, अपने पास के बड़े-बड़े शहरों में जमा हुए और नववर्ष मना रहीं हज़ारों जर्मन महिलाओं के साथ खुलकर अश्लील व्यवहार किया। जर्मन मीडिया और पुलिस ने पहले तो इस कांड की ख़बर को दबाया। पर महिलाओं के भारी प्रतिवाद के कारण दो-चार दिन बाद माना कि ऐसा हुआ है।
तुर्की, सीरिया, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान या अफ्रीकी देशों में ही नहीं, स्वयं यूरोपीय संघ के छोटे-बड़े देशों में भी ऐसी दर्जनों ट्रैवेल एजेंसियां, संदिग्ध किस्म की ग़ैर-सरकारी संस्थाएं (NGO) या अपराधी कि़स्म के मानव-तस्कर हैं, जो मोटी-मोटी रकमें ऐंठ कर पूरे के पूरे परिवारों की भी यूरोपीय देशों में घुसपैठ करवाते हैं। यूरोपीय देशों का वीसा, लंबे समय के निवास या काम करने की अनुमति पाना क्योंकि बहुत मुश्किल होता है, इसलिए अधिकांश विदेशी नागरिक शरणार्थी बनकर ही इन देशों में आते व अपने पैर पसारते हैं।
शरणार्थी कौन : यूरोप में शरणार्थी उसे माना जाता है, जो यूरोपीय संघ की बाहरी सीमा वाले किसी देश की भू-सीमा, तटरक्षक बल या अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर के आव्रजन अधिकारियों से कहे कि वह साधनहीन शरणार्थी है, उसे ''राजनीतिक शरण" चाहिए। इसके साथ ही एक लंबी-चौड़ी प्रक्रिया शुरू हो जाती है। उसे अधिकारियों को संतुष्ट करना होता है कि अपने देश में उसे अपनी नस्ल, उद्भव, धर्म, समलैंगिगता, राजनीतिक विचारधारा या किसी विशेष सामाजिक पूर्वाग्रह के कारण गंभीर भेदभाव, उत्पीड़न या जान का ख़तरा झेलना पड़ा है।
ये सभी दावे ऐसे हैं, जो विश्वसनीय लगने वाले मनगठंत वर्णनों, यूरोप पहुंचने से पहले या बाद में योजनाबद्ध तरीके से जुटाए गए सच्चे-झूठे प्रमाणों – और बात अदालत में पहुंचने पर – कुशल वकीलों व दुभाषियों की सहायता से मनवाए जा सकते हैं। सबसे निर्णायक बात यह है कि जिस देश में शरण-याचना की गई, वहां की सरकारी नीति कितनी उदार या अनुदार है। जर्मनी और ब्रिटेन इसके सबसे प्रबल उदाहरण हैं। 2015 में सीरिया से आए अधिकतम शरणार्थियों को जर्मनी न्यूनतम कागज़ी कार्रवाई के साथ लेने को तैयार रहा है, जबकि ब्रिटेन आनाकानी करता रहा है। याचक की सफलता-विफलता इस पर भी निर्भर करती है कि उसकी बातों में कितनी संगति या विसंगति है और अधिकारी एवं जज कितने सहृदय या निर्दय हैं। वकील और दुभाषिए की फ़ीस नए देश की ऩ्यायपालिका देती है।
सुख-सुविधा का लालच है सबसे बड़ा प्रेरक : शरणार्थी के तौर पर मान्यता मिल जाने के बाद हर व्यक्ति को––– यूरोपीय संघ के जिस किसी देश में वह है––– वहां तब तक रहने और काम करने का अधिकार मिल जाता है, जब तक वह स्वदेश नहीं लौटना चाहता। एक निश्चित समय-सीमा के बाद वह शरणदाता देश की नागरिकता भी प्राप्त कर सकता है। अपने मूल देश में मिली न केवल परेशानियां ही, बल्कि यूरोपीय देशों में मिलने वाली सुविधाएं और सुरक्षाएं भी लोगों को ––– जान हथेली पर रखकर ही सही ––– यूरोप की ओर भागने के लिए प्रेरित करती हैं। मानव-तस्करी एक बहुत बड़ा गोरखधंधा बन गया है। अपनी एक पुस्तक में इटली के ज्याम्पोलो मुसुमेची का कहना है कि भूमध्य सागर वाले क्षेत्र के मानव तस्कर हर वर्ष 50 करोड़ डॉलर की कमाई करते हैं।
2014-15 से मध्यपूर्व और अफ्रीकी देशों के जर्मनी पहुंचने वाले शरणार्थियों का आना अब भी चल रहा है। जर्मनी के सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, 2021 के अंत तक इन देशों के कुल मिलाकर 12 लाख शरणार्थी आ चुके थे। 2022 शुरू होते ही, 24 फ़रवरी को रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के साथ ही यूक्रेन से भी भारी संख्या में शरणार्थी आने लगे। यूक्रेन और जर्मनी के बीच केवल डेढ़ हज़ार किलोमीटर की दूरी है। इसलिए ट्रेनों, बसों और कारों से यूक्रेन से आए अब तक क़रीब 10 लाख शरणार्थी जर्मनी में दर्ज किए गए हैं। यूरोप के अन्य देशों में उनकी संख्या कुल मिलाकर लगभग 70 लाख हो गई है।
यूक्रेन की एक-चौथाई जनता बनी शरणार्थी : कहा जा सकता है कि यूक्रेन की लगभग एक-चौथाई जनता को देश छोड़कर भागना पड़ा है। जर्मनी में रह रहे यूक्रेनी शरणार्थियों का भी सारा ख़र्च सरकार उठा रही है। वे तीन वर्ष तक जर्मनी में कहीं भी रह सकते हैं, काम-धंधा कर सकते हैं और नौकरी मिल जाने पर लंबे समय तक या सदा के लिए भी जर्मनी में रह सकते हैं। उन्हें अन्य देशों के शरणार्थियों की तरह कोई औपचारिक खानापूरी नहीं झेलनी पड़ती। उनके बच्चे तुरंत स्कूलों में भर्ती कर लिए गए हैं। 18 से 64 साल के सभी यूक्रेनी पुरुषों को देश में रहकर रूसियों से लड़ना पड़ रहा है, इसलिए मुख्यतः महिलाएं, बच्चे व बड़े-बूढ़े ही जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों में पहुंचे हैं।
वैसे तो यूक्रेनियों के प्रति जर्मनी में बहुत सहनुभूति है। तब भी, मत सर्वेक्षण संस्था 'यूगॉव' (YouGov) के सितंबर 2022 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, केवल 34 प्रतिशत जर्मन जनता यूक्रेनियों की आवभगत 'अच्छा' मानती है। फ्रांस में यही अनुपात 47 प्रतिशत और पौलैंड में 45 प्रतिशत है। यानी, 50 प्रतिशत से अधिक जनता विदेशियों को शरण देते-देते ऊब गई है, इसलिए युद्धपीड़ित यूक्रेनियों को भी अपने यहां नहीं चाहती। यूरोपीय नेता अपनी जनता के इस हृदय-परिवर्तन की लंबे समय तक उपेक्षा नहीं कर पाएंगे।
शरणार्थियों के प्रति सद्भावना घट रही है : जर्मनी ही नहीं, यूरोप के सभी देशों की जनता में शरणार्थियों के प्रति सद्भावना घट रही है। उनकी बढ़ती संख्या, घुसपैठियापन, अशोभनीय व्यवहार, उन पर होने वाला भारी खर्च और उनके हाथों से कभी भी आतंकवादी हमले का डर मुख्य कारण हैं। यूरोप के किसी न किसी देश में आए दिन बम से उड़ा देने, गोली मार देने, राहगीरों पर कार या ट्रक चढ़ाकर कुचल डालने; या फिर दुकानों, ट्रेनों, ट्रामों, बसों में अचानक लोगों पर चाकू-छुरे से हमला कर उन्हें मार डालने या घायल कर देने की घटनाएं होती रहती हैं। आनाकानी के दो-चार दिन बाद पुलिस को स्वीकार करना पड़ता है कि मामला इस्लामी आतंकवाद का ही था।
एक ऐसी ही सबसे नई घटना जर्मनी में 25 जनवरी 2023 को हुई। उत्तरी जर्मनी के कील शहर से हैम्बर्ग जा रही एक ट्रेन में एक फ़िलिस्तीनी ने यात्रियों पर चाकू से अचानक हमला बोलकर दो यात्रियों की हत्या कर दी और 8 को घायल कर दिया। घायलों में तीन की हालत गंभीर बताई गई। अन्य यात्रियों ने मिलकर चाकूमार को पुलिस के आने तक रोके रखा। 33 साल का यह फ़िलिस्तीनी, जो संभवतः एक शरणार्थी है, पुलिस के लिए अपरिचित नहीं था। पुलिस की हिरासत में रहने के बाद वह 6 दिन पहले ही छोड़ा गया था। पुलिस ने उसे मनसिक दृष्टि से असंतुलित बताया। क्रुद्ध जनता को शांत करने के लिए जर्मन पुलिस शुरू-शुरू में ऐसे ही बहाने गढ़ती है।
फ्रांस, बेल्जियम तथा अन्य देशों में हुए आतंकवादी हमलों के दौर में, जर्मनी में हुए पहले आतंकवादी बमकांड का शिकार एक सिख गुरुद्वारे को बनना पड़ा था। यह गुरुद्वारा, जर्मनी के सबसे जनसंख्या-बहुल राज्य 'नॉर्थ राइन वेस्टफ़ालिया' की राजधानी ड्युसलडोर्फ से सटे 'एसन' शहर में है। वहां, 16 अप्रैल 2016 के दिन, उस समय 16-16 साल के दो मुस्लिम लड़कों ने अपने हाथ का बनाया एक बम, शाम को लगभग 7 बजे गुरुद्वारे पर फेंका और भाग खड़े हुए। इरादा तो था वहां उस दिन के विवाह समारोह को निशाना बनाना, पर उन्हें पहुंचने में कुछ देर हो गई थी और विवाह समारोह समाप्त हो चुका था। गुरुद्वारे के ग्रंथी सहित तीन ही लोग रह गए थे। तीनों घायल हो गए। ग्रंथी की हालत सबसे गंभीर थी। किंतु मृत्यु किसी की नहीं हुई। बाद के वर्षों में तो आतंकवादी ख़ूनख़राबों की कई घटनाएं हुईं।
पिछले दिसंबर में, ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ की एक बैठक हुई थी। संघ के सदस्य देशों के राजदूतों ने तय किया कि सबसे ग़रीब देश यदि चाहते हैं कि वे यूरोपीय संघ के साथ सीमा शुल्क (कस्टम ड्यूटी) रहित मुक्त व्यापार करते रह सकें, तो उन्हें अपने देश के उन नागरिकों को वापस लेना होगा, जिन्हें यूरोपीय संघ के देशों से निकाला जा रहा है। यह निर्णय ग़रीब देशों के लिए व्यापारिक सुविधा और शरणार्थियों के कारण य़ूरोपीय देशों की असुविधा के बीच पहली बार एक सीधा संबंध जोड़ता है। इस समय दुनिया के 60 ग़रीब देशों के निर्यातों को यूरोपीय संघ में सीमाशुल्क से मुक्त रखा गया है।
रोक-टोक भी लगने लगी है : यूरोप और अफ्रीका के बीच के भूमध्य सागर क्षेत्र में इस समय ऐसे मानव तस्कर बहुत अधिक सक्रिय हैं, जो अफ्रीकी देशों के शरणार्थियों को, टूटे-फूटे जहाज़ों और बजरे-नुमा रबर की हल्की-फुल्की नौकाओं पर भेड़-बकरियों की तरह लाद कर, लहरों द्वारा इटली की दिशा में जाने के लिए कहीं भी छोड़ देते हैं। इस की रोकथाम के लिए, इटली की सरकार ने, 2022 के अंत में, एक अध्यादेश जारी किया। उसमें कहा गया है कि ऐसे शरणार्थियों को बचाने के लिए भूमध्य सागर में घूम रहे जहाज़, केवल एक बार उद्धार-कार्य कर सकते हैं। उसके तुरंत बाद उन्हें उद्धार-कार्य के किसी नए प्रयास के बिना ही, उस बंदरगाह पर लौटना होगा, जो उन्हें बताया गया होगा।
अब तक कोई उद्धारक जहाज़ जब एक बार निकलता था, तो अधिक से अधिक लोगों को डूबने से बचाने के लिए उन्हें देर तक ढूंढता था। नया नियम अंतरराष्ट्रीय सागर का़नून के विरुद्ध है। तब भी, इसका उल्लंघन करने वाले जहाज़ों को 50 हज़ार यूरो तक का ज़ुर्माना भरना पड़ सकता है। 'डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' जैसी 20 संस्थाओं के जहाज़ अफ्रीका के उन शरणार्थियों को डूबने से बचाते हैं, जो भूमध्य सागर के रास्ते से इटली जाना चाहते हैं।
अनुमान है कि अकेले 2022 में, इटली पहुंचने से पहले ही, 2000 से अधिक शरणार्थी डूबकर मर गए। ऐसा हर साल होता है। इटली परेशानी है कि वहां पहुंचने वाले शरणार्थियों को दूसरे देश लेने से साफ़ मना कर देते हैं। इसलिए अंत में उसे ही उनके रहने-जीने का सारा भार उठाना और उनकी कारस्तानियों का फल भुगतना पड़ता है। इटली की नई प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी अपने देश की इस मजबूरी का अब अंत करने पर तुली हुई हैं।
शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार : यूरोप में ऐसे लोगों और संस्थाओं की भी कमी नहीं है, जो यूरोपीय सीमाओं को उन सब के लिए खुली देखना चाहते हैं, जो स्वयं को शरणार्थी बताते हैं। ऐसे ही लोगों की एक स्वयंसेवी संस्था ने, 2021-22 में 15 देशों के 733 ऐसे लोगों से बातचीत की, जो पूर्वी यूरोप के 6 देशों की सीमाओं पर रोक दिये गए और धक्के मार कर भगा दिए गए। 'पुशबैक' कहलाने वाली इस नीति से 16,000 से अधिक संभावित शरणार्थियों के सारे सपने, बस सपने ही रह गए। अपनी आपबीती सुनाने वालों ने कहा कि पुलिस ने उन्हें मारा-पीटा और हिरासत के गंदे-संदे कमरों में ढेर सारे लोगों के साथ ठूंस दिया।
इस संस्था ने आरोप लगाया है कि 13 यूरोपीय देशों के सीमारक्षकों ने शरणार्थियों की ''खूब पिटाई की, सिर का मुंडन कर दिया और कपड़े उतरवा कर उनका यौनशोषण तक किया।'' अपनी रिपोर्ट में इस संस्था का कहना है कि इन देशों के अधिकारी उन्हें अपराधी बताने और प्रताड़ित करने का प्रयास करते हैं, जो शरणार्थियों की सहायता करना चाहते हैं। यूरोपीय संघ स्वयं, इन ''शरणार्थियों को विदेशी सरकारों द्वारा संघ को अस्थिर बनाने के एक हथकंडे के तौर पर देखता है।''
यूरोपीय संघ की बाहरी सीमारक्षक एजेंसी 'फ्रोन्टेक्स' के आंकड़े भी पुष्टि करते हैं कि अकेले 2021 में क़रीब 2 लाख लोगों ने, और 2022 के पहले 10 महीनों में 2,81,000 लोगों ने मुख्यतः ग्रीस और इटली के रास्ते से यूरोपीय संघ में अवैध प्रवेश किया। अवैध प्रवेश करने वाले घुसपैठियों को भी तब तक निकाला नहीं जा सकता, जब तक सारी क़ानूनी औपचारिकताएं पूरी नहीं हो जातीं।
शरणार्थियों और अपराधों के बीच संबंध : डेनमार्क केवल 58 लाख की जनसंख्या वाला एक छोटा-सा बहुत सुंदर और संपन्न देश है। एक अध्यन में पाया गया कि वहां रहने वाले विदेशियों में लेबनानी सबसे अधिक अपराध करते हैं। उनके बाद तुर्क, पाकिस्तानी, सोमालियन और मोरक्कन हैं। भारतीय सबसे अंत में आते हैं। अध्ययन के लिए समाज में शरणार्थियों एवं अपराधों की आनुपातिक संख्या और उनकी क़िस्मों-जैसी कई बातों को मिलाकर 450 अंको वाली एक सूचकांक (इन्डेक्स) तालिका बनाई गई। इस तालिका के अनुसार, 257 अंकों के साथ लेबनानी अपराध करने में पहले नंबर पर हैं और 192 अंकों के साथ पाकिस्तानी तीसरे नंबर पर हैं। केवल 48 अंकों के साथ डेनमार्क में रहने वाले भारतीय सबसे कम अपराध करते हैं। चोरी-डकैती और गंभीर क़िस्म के हिंसक अपराध करने वालों में उत्तरी अफ्रीकी अरब देशों और एशिया के अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया तथा इराक़ से आए लोगों का अनुपात सबसे अधिक है।
2014-15 में जर्मनी में हुए अपराधों के आंकड़े बताते हैं कि विदेशियों द्वारा बलात्कार जैसे यौन-अपराधों में अफ़गान और पाकिस्तानी सबसे आगे थे। जर्मनी से भी अधिक उदार, अपने कल्याणकारी क़ानूनों के लिए प्रसिद्ध स्वीडन का हाल यह है कि वहां 40 ऐसे विदेशी कुनबे हैं, जो संगठित ढंग से अपराध करने के विचार से ही आए थे। इन कुनबों के माता-पिता अपने बच्चों को शुरू से ही अपराध करने के गुर सिखाते हैं। नवंबर 2021 तक स्वीडन के प्रधानमंत्री रहे स्तेफ़ान ल्यौफ़वन कहा करते थे कि ये कुनबे शरणार्थी नहीं थे। किंतु, सितंबर 2020 में, एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने माना कि हां, वे शरणार्थी बनकर ही आए थे।
सड़कों पर ''गैंग वॉर'' होने लगे हैं : स्वीडन उन देशों में से एक है, जहां प्रति 1 लाख जनसंख्या पर सबसे अधिक बलात्कार होते हैं। 2014-15 में वहां बलात्कार की सज़ा पाने वाले 58 प्रतिशत अपराधी विदेशी थे। उस समय उसकी जेलों में एक-तिहाई से अधिक क़ैदी भी विदेशी थे। उनमें से 40 प्रतिशत पश्चिमी एशिया के अरब-इस्लामी और अफ्रीकी देशों से आए थे और 45 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान से। इस स्थिति में अब भी कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। अब तो वहां के शरणार्थिंयों और आप्रवासियों के आपराधिक गिरोहों के बीच सड़कों पर ''गैंग वॉर'' तक होने लगे हैं, जिनमें गोलियां भी बरसाई जाती हैं और जानें भी जाती हैं।
सच तो यह है कि जर्मनी, इटली, बेल्जियम, फ्रांस, नीदरलैंड और स्वीडन जैसे यूरोपीय देशों में विदेशियों से घृणा करने वाली घोर दक्षिणपंथी पार्टियों के अभ्युदय और शक्तिशाली बनने का मुख्य कारण ही यही है कि इन देशों की उदरवादी सरकारें शरणार्थियों की रोकथाम करने में विफल रही हैं। उन्हें शरण देना, अंधराष्ट्रवादी घोर दक्षिणपंथी पार्टियों की शक्ति बढ़ाने का पर्याय बन गया है। इन देशों में आम चुनावों के बाद कई बार महीनों या वर्षों तक नई सरकार नहीं बन पातीं, क्योंकि शरणार्थियों की विरोधी राष्ट्रवादी पार्टियों का साथ ठुकराने से बाक़ी पर्टियों के पास आवश्यक बहुमत नहीं जुट पाता। शरणार्थिंयों की आवभगत के समर्थक वामपंथी इसे समझ नहीं पाते कि जब शरण देना मरण बनने लगे, तो भला कब तक कोई देश शरण देता रहेगा!