नई दिल्ली। निष्क्रिय इच्छामृत्यु के मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले के 4 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने लिविंग विल (Living Will) पर अपने 2018 के दिशा-निर्देश में संशोधन करने पर मंगलवार को सहमति जताई। न्यायालय ने कहा कि यह विधायिका पर है कि वह उपचार बंद कराने का निर्णय लेने वाले मरणासन्न रोगियों के लिए कानून बनाए।
लिविंग विल से आशय मरीज के उस अनुरोध से है, जिसमें वह अपना इलाज बंद करने का चयन करता है। शीर्ष अदालत के आदेश के बावजूद लिविंग विल दर्ज कराने के इच्छुक लोगों को जटिल दिशानिर्देशों के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधायिका के पास प्रासंगिक कानून बनाने के लिये अधिक कौशल और जानकारी के स्रोत हैं। न्यायालय ने कहा कि वह लिविंग विल पर अपने दिशा-निर्देशों में सुधार तक खुद को सीमित रखेगा।
न्यायमूर्ति केएम जोसफ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि दिशा-निर्देश में केवल मामूली फेरबदल हो सकता है, अन्यथा यह वर्ष 2018 के उसके खुद के निर्णय की समीक्षा करने जैसा हो जाएगा।
यह भी कहा गया कि आगे का निर्देश केवल सीमित क्षेत्र में लागू हो सकता है, जहां लाइलाज रोग से पीड़ित मरीज इतने बीमार हैं कि वे यह भी बताने की स्थिति में नहीं हैं कि इलाज रोक दिया जाए।
इस पीठ में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस, न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय, न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार भी शामिल थे।
पीठ ने कहा कि हम यहां केवल दिशा-निर्देश में सुधार पर विचार करने के लिए हैं। हमें अदालत की सीमाओं को भी समझना चाहिए। निर्णय में स्पष्ट कहा गया है कि विधायिका द्वारा एक कानून बनाये जाने तक...विधायिका के पास बहुत अधिक कौशल, प्रतिभाएं और ज्ञान के स्रोत हैं। हम चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञ नहीं हैं। इसमें हमें सावधान रहना होगा। भाषा Edited by Sudhir Sharma