प्रणब मुखर्जी के ट्विटर अकांउट पर नजर डालेंगे तो पता चलेगा कि उन्हें 381.4k लोग फॉलो करते हैं, लेकिन उनकी फॉलोइंग सूची में एक भी शख्स नहीं है, यानी प्रणब मुखर्जी किसी को फॉलो नहीं करते थे।
सोशल मीडिया पर यह उनकी निजी आजादी थी, लेकिन बहुत हद तक प्रणब मुखर्जी राजनीति में भी ठीक ऐसे ही थे। सख्त और सिद्धांतवादी। अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। सिर्फ अपनी बनाई लाइन, अपनी शर्त पर चलने वाले व्यक्ति और राजनेता।
जिंदगीभर अपनी पार्टी कांग्रेस में रहने के बावजूद उन्होंने अपनी शख्सियत को मिटने नहीं दिया, शायद यही वजह रही होगी कि विपक्ष की तरफ से भी उन्हें भरपूर सम्मान मिला।
उनकी इसी शख्सियत की वजह से 07 जून 2018 में एक बेहद चौंकाने वाली घटना घटी। अपनी पार्टी कांग्रेस की विचारधारा के ठीक विपरीत धारा वाली हिंदूवादी राजनीतिक पार्टी भाजपा के थिंक टैंक आरएसएस मुख्यालय नागपुर का निमंत्रण स्वीकार किया और संघ के मंच से भाषण दिया।
जब संघ की तरफ से प्रणब दा को निमंत्रण दिया गया तो पूरे देश की नजरें उनके जवाब पर टिकीं रही कि आखिर वे क्या जवाब देंगे। जाहिर था ज्यादातर लोगों की राय थी कि वे कम से कम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आयोजन में तो नहीं ही जाएंगे।
कांग्रेस और खुद प्रणब की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी अपने पिता की संघ मुख्यालय में उपस्थिति से असहज नजर आई थींं। उन्होंने पिता के फैसले पर असहमति जताते हुए संघ पर निशाना भी साधा था। शर्मिष्ठा को यकीन था कि उनके पिता संघ मुख्यालय नहीं जाएंगे, लेकिन जवाब चौंकाने वाला था, उन्होंने संघ के निमंत्रण को न सिर्फ स्वीकारा उस मंच से अपनी बात भी कही।
अपनी चुप्पी तोड़कर उन्होंने कहा था, इस बारे में कई लोगों ने पूछा, लेकिन मैं जवाब नागपुर में दूंगा।
संघ के दीक्षांत समारोह के मंच पर जब प्रणब मुखर्जी खड़े हुए तो उनके भाषण का सभी को इंतजार था, सवाल था कि आखिर एक कांग्रेस राजनेता और पूर्व राष्ट्रपति आरएएस जैसे संगठन के मंच से क्या बात कहेंगे?
अपनी पहली ही पंक्ति में उन्होंने सारे संशय दूर कर दिए, प्रणब मुखर्जी ने कहा,
मैं राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर बोलने आया हूं। देश के लिए समर्पण ही देशभक्ति है। हमारे संविधान में राष्ट्रवाद की भावना बहती है। यहां कोई एक भाषा या एक धर्म नहीं है। सहनशीलता ही हमारा आधार है। और भारतीयता ही हमारी पहचान है।
विविधता में संवाद की बहुत गुंजाइश है। इससे ही देश को ताकत मिलती है। हमारे देश में 122 भाषा और 1600 बोलियां हैं। लोकतंत्र की प्रक्रिया में सबकी भागीदारी जरूरी है। आज हम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। गुस्सा बढ़ रहा है, इस पर काबू की जरूरत है।
उन्होंने आगे जो बात कही उससे एक पल के लिए लगा कि कोई स्वयंसेवक ही यह बात कह रहा है। लेकिन शायद ऐसा नहीं था, क्योंकि यह सबकी बात थी, उन्होंने कहा,
राष्ट्रवाद किसी भी देश की पहचान होती है। हम विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में देखते हैं। यही हमारी राष्ट्रीयता है। ह्वेनसांग और फाह्यान ने हिंदुओं की बात की है। हम कई सदियों से ऐसा ही सोचते हैं। चाणक्य ने अर्थशास्त्र लिखा। अगर कोई भेदभाव है तो वो सतह पर होना चाहिए। हमारी संस्कृति एक ही रही है। इतिहासकार कहते हैं कि विविधता में एकता ही देश की ताकत है।
मैं राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की बात करने आया हूं। तीनों को अलग-अलग रूप में देखना मुश्किल है। राष्ट्रीयता को असहिष्णुता के तौर पर परिभाषित करना हमारी पहचान धुंधली करता है। यही भारत की ताकत भी है।
यह अंडरलाइन करना जरूरी होगा कि चाहे कोई कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो, अपनी पार्टी लाइन से ठीक उलट सोचने वाले संगठन के मंच पर जाकर भाषण देने का जोखिम कोई नहीं उठाएगा। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने ऐसा किया, और अपनी बात को इतनी स्पष्टता के साथ रखा कि आरएसएस को भी भ्रम नहीं हुआ और गैर-आरएसएस और भाजपाई को भी निराशा नहीं हुई। क्योंकि उनकी सोच में राजनीति से बेहद ऊपर उठकर राष्ट्र के भाव का प्रतीक था।
उन्होंने राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता और वसुधैव कुटुम्बकम को जिस तरह परिभाषित किया उसके भीतर पूरे भारत के 130 करोड़ नागरिक समाहित थे, उसके बाहर उन्होंने किसी को नहीं रखा। उनकी सोच में भारत से बाहर कोई नहीं था।
31 अगस्त 2020 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का निधन हो गया।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अनुभूति है, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)