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लीच, खुफिया एजेंसी रॉ का एक विवादित ऑपरेशन

हमें फॉलो करें लीच, खुफिया एजेंसी रॉ का एक विवादित ऑपरेशन
, बुधवार, 6 दिसंबर 2017 (14:49 IST)
ऑपरेशन लीच रॉ का एक ऐसा ऑपरेशन रहा है जोकि कुछेक कारणों से विवादास्पद रहा है। इसके कारण विदेशों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि भी प्रभावित हुई लेकिन जब येन केन प्रकारेण अपने उद्देश्य को पूरा करना हो तो कुछेक मामलों में ऐसे विवाद होना स्वाभाविक है। 
 
उल्लेखनीय है कि भारत शुरू से ही दक्षिण एशिया में लोकतंत्र की बहाली और मित्र देशों की सरकारों की मदद करता रहा है। भारत के पड़ोसी बर्मा (म्यांमार) में पहले फौजी शासन था। वहां लोकतंत्र की स्थापना के लिए रॉ ने वहां के विद्रोही गुट काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (केआईए) की मदद की। 
 
रॉ ने उनको हथियार तक उपलब्ध कराए लेकिन बाद में जब केआईए से संबंध खराब हो गए और उसने पूर्वोत्तर के बागियों को हथियार एवं प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। तब रॉ ने बर्मा के इन बागी गुटों के सफाए के लिए ऑपरेशन लीच चलाया। 1998 में छह शीर्ष बागी नेताओं को मार दिया गया और 34 अराकानी गुरिल्लों को गिरफ्तार किया गया।
 
बाद में, इन विद्रोही गुरिल्लों ने भारत सरकार पर उनके साथ धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया। करीब 31 गुरिल्लों को गिरफ्‍तार कर भारत लाया गया था और उन पर मुकदमा चलाया गया था और भारत की एक जेल से वर्ष 2011 में बर्मा के इन 31 'विद्रोहियों' को रिहा कर दिए गया था। इन लोगों को 1998 में सेना के एक 'विशेष अभियान' में अंडमान द्वीप पर गिरफ्तार किया गया था।
 
जेल से रिहा होते समय इन सभी ने सफेद रंग की टीशर्ट पहनी थी जिस पर बर्मा के संघर्ष से जुड़ा लोगो लगा हुआ था। भारत ने इन सभी नागरिकों को 12 साल से अधिक समय तक जेल में रखने के बाद रिहा करने का फैसला वर्ष 2011 में सात अप्रैल को लिया था और इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग को जानकारी भी दी थी।
 
इतना ही नहीं, सरकार ने इन सभी कैदियों को भारत में रहने का परमिट दिया। ये सभी अगले एक साल तक दिल्ली में रहेंगे जिसके बाद उन्हें उनकी पसंद के किसी तीसरे देश में भेज दिया गया। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग ने कैदियों की रिहाई के भारत सरकार के इस कदम का स्वागत किया था और उम्मीद जताई थी कि इसी समूह के जो तीन लोग अभी भी जेल में हैं उन्हें भी जल्दी ही रिहा कर दिया जाएगा।
 
यह मामला काफी पेचीदा भी रहा है और इसमें आतंकवाद, भारत बर्मा संबंध, अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप और जासूसी के मामले भी शामिल हैं। मामला नौ फरवरी 1998 का है जब भारतीय सेना के तीनों अंगों ने मिलकर अंडमान के लैंडफॉल द्वीप पर ऑपरेशन लीच के नाम से एक संयुक्त अभियान किया और 73 लोगों को गिरफ्तार किया। इस अभियान को ऑपरेशन लीच नाम दिया गया था।
 
अभियान में छह लोग मारे गए थे और एक साल के बाद पता चला कि गिरफ्तार 73 में से 37 तो मछुआरे हैं जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया। बाकी बचे 34 लोग जो बर्मा के नागरिक थे, इन पर बांग्लादेश के कॉक्स बाजार के जरिए भारतीय सीमा में हथियार लाने और उत्तर पूर्व के चरमपंथी संगठनों को हथियार की आपूर्ति करने का आरोप लगाया गया था।
 
ये आरोप गिरफ्तारी के छह वर्ष बाद लगाए गए यानी यह सभी लोग छह साल बिना किसी मामले के जेल में रहे। इन विद्रोहियों ने आगे चलकर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से उन्हें रिहा करने की अपील की थी और ब्रिटेन के हथियार सौदागर पीटर ब्लीच का उदाहरण दिया था जिन्हें भारत में सिर्फ दो साल की सजा के बाद छोड़ दिया गया था।
 
वर्ष 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर संज्ञान लेते हुए इन कैदियों को कोलकाता लाने और सुनवाई शुरू करने का आदेश दिया था। सुनवाई शुरू हुई और सेशन कोर्ट में मामले में फैसला 10 जुलाई 2010 को सुनाया गया। फैसले में इन सभी 34 नागरिकों को विदेशी अधिनियम का उल्लंघन करने के आरोप में तीन साल की सजा दी गई थी।
 
सुनवाई के दौरान कई नई जानकारियां सामने आईं और पता चला कि ये सभी विद्रोही मूलत: भारत की खुफिया संस्था रॉ को मदद किया करते थे। विद्रोही अपनी गिरफ्तारी के बाद शुरू से ही भारत सरकार पर डबल क्रॉसिंग का आरोप लगाते रहे थे। जबकि रॉ के पूर्व अधिकारियों ने अखबारों में लेख लिखकर यह साबित करने की कोशिश की थी कि ये विद्रोही मूलत स्वतंत्रता सेनानी हैं और भारत के मददगार भी रहे थे।
 
यह सभी विद्रोही नागरिक बर्मा के अराकान प्रांत के अलगाववादी सगंठन नेशनल यूनिटी पार्टी ऑफ अराकान के सदस्य थे जिनमें 34 में से 31 को रिहा किया गया था। सुनवाई के दौरान ही संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग ने इसमें हस्तक्षेप भी किया और 2009 में इन सभी के लिए सर्टिफिकेट जारी कर कहा कि यह 34 लोग अब शरणार्थी आयोग की निगरानी में रहे थे।
 
इस वर्ष जनवरी, 2010 में आयोग ने भारत सरकार से अनुमति लेकर इन सभी लोगों से इंटरव्यू किया ताकि उनके शरणार्थी स्टेटस को और बेहतर बनाया जा सके। अप्रैल, 2011 में जब आयोग ने इन सभी को पूर्ण रूप से शरणार्थी का दर्जा दे दिया तो भारत ने इनको रिहा करने का निर्णय लेते हुए इसकी जानकारी आयोग को दी थी और इन्हें भारत में रहने का अधिकार दिया था। इस अवधि के बाद यह किसी भी तीसरे देश में जाकर बस सकते थे।

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