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बदलाव ही है अब कांग्रेस की 'जरूरी मजबूरी', सचिन-सिंधिया एंगल बनेगा टर्निंग पाइंट

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संदीपसिंह सिसोदिया

, मंगलवार, 25 अगस्त 2020 (15:50 IST)
कांग्रेस के कुनबे की कलह फिलहाल थम-सी गई है। कार्यसमिति की बैठक में 24 अगस्त को दिनभर चले हाई वोल्टेज पॉलिटिकल ड्रामे से हुए डैमेज को कंट्रोल करने और बिखरते कुनबे को एकजुट करने के लिए सोनिया गांधी ने कुछ समय के लिए पार्टी की बागडोर अपने ही हाथों में रखी है। 
 
इसके बावजूद वैभवशाली अतीत से भरे इस राजनैतिक दल में अंदर ही अंदर सुलगते सवालों के जवाब ढूंढना न केवल कांग्रेस बल्कि गांधी परिवार के भविष्य के लिए बेहद जरूरी हो गया है। 'चिट्‍ठी बम' ने इस मामले को और गरमा दिया है। 
चिंता या चुनौती : सोनिया गांधी को लिखे इस पत्र में पार्टी के भीतर शीर्ष से लेकर नीचे तक बड़े बदलाव की बात कही है। बताया जा रहा है कि जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को पत्र लिखा है, उनमें पांच पूर्व मुख्यमंत्री, कांग्रेस वर्किंग कमेटी के कई सदस्य, मौजूदा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शामिल हैं। 
 
सूत्रों के मुताबिक करीब 5 माह पहले दिल्ली में एक केरल के एक वरिष्ठ नेता के घर हुई एक डिनर पार्टी में इस संबंध में चर्चा हुई थी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पत्र लिखने वाले कई नेताओं ने गुलाब नबी आजाद के घर पर इस संबंध में बैठक भी की थी।
 
इस घटनाक्रम में गुलाम नबी आज़ाद और कपिल सिब्बल ने जिस तरह से आपत्ति ज़ाहिर की वो कांग्रेस में कभी नहीं हुआ। इस पूरे घटनाक्रम ने बता दिया कि अब कांग्रेस पार्टी दो धड़े में बंट चुकी है। यह 'शिकायत' थी या 'बगावत' इसका जवाब आने वाले दिनों में ही मिल सकेगा क्योंकि बाद में दोनों ही नरम पड़ गए।   
 
सच्चाई या तंज : इसके पहले कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने कहा था कि किसी गैर-गांधी को अब पार्टी का नेतृत्व संभालना चाहिए। सियासी गलियारों में अब माना जा रहा है कि इस पत्र के बाद ही उनका यह बयान आया होगा। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में हुए घटनाक्रम को देखते हुए प्रियंका के इस बयान के कई मायने हैं।
 
इतना ही नहीं स्वयं राहुल गांधी ने 2019 में अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते हुए किसी ग़ैर गांधी परिवार वाले नेता को पार्टी की कमान सौंपने की वकालत की थी।
 
आमने-सामने : देखा जाए तो इस समय कांग्रेस को संभालने वाले उम्रदराज 'क्षत्रप' न सिर्फ सत्ता बल्कि पार्टी का फुल कंट्रोल अपने ही हाथ में रखना चाहते हैं। सत्ता और ताकत के इस खेल में दिलचस्प तथ्य है कि यूपीए-2 के समय से ही कांग्रेस में बुजुर्ग बनाम युवा आमने सामने होते रहे हैं। 
 
उल्लेखनीय है राहुल गांधी ने 2013 में मनमोहन सरकार के एक अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया था। इसके बाद योजना आयोग (अब नीति आयोग) के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने दावा किया था कि राहुल की इस हरकत से दुखी मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना चाहते थे। 
 
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने दोषी जनप्रतिनिधियों को चुनाव लड़ने के खिलाफ फैसला दिया था। इस फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए यूपीए सरकार ने अध्यादेश जारी किया था। जिस पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे बकवास बताते हुए कहा था कि इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए।
 
जहां कांग्रेस के युवा तुर्क अपने नए तौर-तरीकों और तेवर से भाजपा जैसे शक्तिशाली राजनैतिक दल का सामना करना चाहते हैं और वहीं अनुभवी और मंजे हुए उम्रदराज नेता परंपरागत तौर तरीके और अपने वर्चस्व को बनाए रखते हुए पुरानी राजनीतिक चालों के ही भरोसे आगे बढ़ना चाहते हैं।   
 
सबसे बड़ा सवाल : सॉफ्ट हिंदुत्व के जरिए राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों में जो भी बढ़त हासिल की थी वो अब दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। कांग्रेस के भीतर चल रही 'राजनीति' और 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था, जिसके बाद सोनिया गांधी को एक साल के लिए पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। 
 
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी कांग्रेस का नेतृत्व करने को अनिच्छुक हैं, राहुल के करीबी लोगों का मानना है कि वे सिर्फ अपनी शर्तों और बदलाव के साथ ही अब यह जिम्मेदारी लेंगे। 
 
देखा जाए तो इस समय केवल वो ही ऐसे नेता हैं जो हर मुद्दे पर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। पिछले कुछ महीनों से वो कभी कोविड तो कभी अर्थव्यवस्था और कभी चीन को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर लगातार हमलावर रहे हैं।
 
दरअसल, यह उनकी अपनी शैली है, इस तरीके से राहुल साबित करना चाहते हैं कि वे दूसरे नेताओं जैसे सरकार से दबने वालों में से नहीं हैं। एक लीडर में साहस होना बेहद जरूरी है। लेकिन कई मामलों में उनसे भी गलतियां हुई है। 
कहां हुई चूक : मध्यप्रदेश में उनके निकट सहयोगी और प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस का चेहरा रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया का भाजपा में चले जाना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। लेकिन राजस्थान में समय रहते मामले को संभाल लिया गया और सचिन पायलट को उन्होंने और प्रियंका ने दूसरा सिंधिया नहीं बनने दिया। 
 
दोनों ही मामलों में प्रदेश के कद्दावर नेताओं जैसे कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और अशोक गेहलोत सत्ता का मोह नहीं छोड़ पाए और युवाओं को मौका देने में ऐतराज करते रहे, नतीजे में मप्र में सत्ता 'हाथ' से फिसल गई और राजस्थान में जैसे-तैसे सरकार बची। दोनों ही प्रदेशों के स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर भी रोष है कि जिनके चेहरे को सामने रखकर सारी मेहनत हुई उन्हें ही हाशिए पर भेज दिया गया।
 
इस समय राहुल गांधी भी यह बात जानते हैं कि कांग्रेस पार्टी में ना नेतृत्व की कमी है, ना क्षमता की और ना ही अनुभवी लोगों की, लेकिन नए चेहरों को मौका दिए जाने की जरूरत है। 
 
दो धड़ों में बंटी पार्टी : कांग्रेस में युवा बनाम बुजुर्गों की यह दूरी साफ दिखने भी लगी है। जहां इस पूरे मामले में यूथ कांग्रेस, सचिन पायलट, सलमान खुर्शीद, असम प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रिपुन बोरा, महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बाला साहेब थोराट और पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने का समर्थन किया है। 
 
वहीं कमलनाथ, अशोक गेहलोत, कर्नाटक कांग्रेस के प्रमुख डीके शिवकुमार सहित कई वरिष्ठ इस बात के पक्ष में दिखाई दिए कि पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथों में ही रहे। 
 
परिवर्तन है जरूरी : यह तो साफ है कि कहीं न कहीं अब देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में नेतृत्व की लड़ाई अपने चरम पर पहुंच चुकी है। फिलहाल गिरती सेहत के बावजूद सोनिया गांधी ने कुछ समय के लिए इस संघर्ष को टाल दिया है, लेकिन यदि अब कांग्रेस में बदलाव नहीं हुआ तो कार्यकर्ताओं, खासतौर पर युवाओं को पार्टी में रोके रखना मुश्किल होगा। 

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