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यहां राजा श्रीराम को पुलिस हर रोज देती है सलामी

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, बुधवार, 1 अप्रैल 2020 (12:50 IST)
ललितपुर। बुंदेलखंड की अयोध्या के तौर पर प्रसिद्ध ओरछा दुनिया का ऐसा इकलौता मंदिर है जहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की पूजा राजा के रूप में होती है और स्थानीय  नियमित रूप से अपने राजा को सलामी देकर दिन की शुरुआत करती है।

ललितपुर-झांसी राजमार्ग पर स्थित मंदिर के पट इन दिनों कोरोना वायरस (Corona virus) के कारण देशव्यापी लॉकडाउन के चलते श्रद्धालुओं के लिए बंद हैं लेकिन राजा राम की आरती, पूजा अर्चना, भोग लगना एवं प्रतिदिन सुबह एवं शाम उन्हें पुलिस द्वारा सलामी देना आज भी निरंतर जारी है। इस दौरान मंदिर में मात्र पूजा करने वाला पुजारी और द्वार पर सलामी देने वाला पुलिस का सिपाही ही मौजूद रहता है।

ओरछा धाम को दूसरी अयोध्या के रूप में मान्यता प्राप्त है। यहां पर रामराजा अपने बाल रूप में विराजमान हैं। यह जनश्रुति है कि श्रीराम दिन में यहां दरबार लगाते हैं और रात्रि में अयोध्या में विश्राम करते हैं। शयन आरती के पश्चात उनकी ज्योति भगवान हनुमानजी को सौंपी जाती है, जो रात्रि विश्राम के लिए उन्हें अयोध्या ले जाते हैं।

पुराणों में वर्णित है कि आदि मनु सतरूपा ने हजारों वर्षों तक शेषशायी भगवान विष्णु को बालरूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की। भगवान विष्णु ने उन्हें प्रसन्न होकर आशीष दिया और त्रेता में श्रीराम, द्वापर में श्रीकृष्ण और कलियुग में ओरछा के श्रीराम ने राजा के रूप में अवतार लिया। इस प्रकार मधुकर शाह और उनकी पत्नी गणेशकुंवर साक्षात दशरथ और कौशल्या के अवतार थे। त्रेता में दशरथ अपने पुत्र का राज्याभिषेक न कर सके थे, उनकी यह इच्छा भी कलियुग में पूर्ण हुई।

स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार श्रीराम के अयोध्या से ओरछा आने की एक मनोहारी कथा है। एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह ने अपनी पत्नी गणेशकुंवर से श्रीकृष्ण की उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा, लेकिन रानी रामभक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। क्रोध में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि अगर तुम इतनी रामभक्त हो तो जाकर अपने श्रीराम को ओरछा ले आओ।

इस पर रानी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरंभ की। इन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधना रत थे। संत से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना दृढ़ होती चली गई, लेकिन रानी को कई महीनों तक रामराजा के दर्शन नहीं हुए। अंतत: वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने के उद्देश्य से सरयू की मझधार में कूद पड़ी।

यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें रामराजा के दर्शन हुए। रानी ने उन्हें अपना मंतव्य बताया। रामराजा ने ओरछा चलना स्वीकार किया लेकिन उन्होंने तीन शर्तें रखीं, एक- यह यात्रा पैदल होगी, दूसरी यात्रा केवल पुख्य नक्षत्र में होगी, तीसरी रामराजा की मूर्ति जिस जगह रखी जाएगी वहां से पुन: नहीं उठेगी। खुशी से प्रफुल्लि होकर रानी गणेशकुंवर ने राजा नरेश मधुकरशाह को संदेश भेजा कि वो रामराजा को लेकर ओरछा आ रहीं हैं।

राजा मधुकरशाह ने रामराजा के विग्रह को स्थापित करने के लिए करोड़ों की लागत से चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया। जब रानी ओरछा पहुंचीं तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल में रख दी। यह निश्चित हुआ था कि शुभ मुहूर्त में मूर्ति को चतुर्भुज मंदिर में रखकर इसकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाएगी लेकिन राम के इस विग्रह ने चतुर्भुज जाने से मना कर दिया।

मान्यता है कि राम यहां बाल रूप में आए और अपनी मां का महल छोड़कर वो मंदिर में कैसे जा सकते थे। भगवान श्रीराम आज भी इसी महल में विराजमान हैं और उनके लिए बना करोड़ों का चतुर्भुज मंदिर आज भी वीरान पड़ा है। यह मंदिर आज भी मूर्ति विहीन है। यह भी एक संयोग है कि जिस संवत् 1631 को रामराजा का ओरछा में आगमन हुआ, उसी दिन रामचरित मानस का लेखन भी पूर्ण हुआ।

जो मूर्ति ओरछा में विद्यमान है उसके बारे में बताया जाता है कि जब राम वनवास जा रहे थे तो उन्होंने अपनी एक बाल मूर्ति मां कौशल्या को दी थी। मां कौशल्या उसी को बाल भोग लगाया करती थीं। जब राम अयोध्या लौटे तो कौशल्या ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी थी। यही मूर्ति गणेशकुंवर को सरयू की मझधार में मिली थी। यहां राम ओरछाधीश के रूप में मान्य हैं।

रामराजा मंदिर के चारों तरफ भगवान हनुमान जी के मंदिर हैं। छड़दारी हनुमान, बजरिया के हनुमान, लंका हनुमान के मंदिर एक सुरक्षा चक्र के रूप में चारों तरफ हैं। ओरछा की अन्य बहुमूल्य धरोहरों में लक्ष्मी मंदिर, पंचमुखी महादेव, राधिका बिहारी मंदिर, राजामहल, रायप्रवीण महल, हरदौल की बैठक, हरदौल की समाधि, जहांगीर महल और उसकी चित्रकारी प्रमुख है।

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