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स्वामी विवेकानंद ने भारत को धर्मों में बांटकर कभी नहीं देखा

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, सोमवार, 11 सितम्बर 2017 (10:07 IST)
'मुझको ऐसे धर्मावलम्बी होने का गौरव है, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने पृथ्वी की समस्त पीड़ित शरणागत जातियों को तथा विभिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलंबियों को आश्रय दिया है।'- विवेकानंद (शिकागो भाषण से अंश)
 
स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में 11 सितंबर, 1893 को आयोजित विश्व धर्म संसद में जो भाषण दिया था उसकी प्रतिध्वनि युगों-युगों तक सुनाई देती रहेगी। आज स्वामीजी के भाषण को 125 साल पूरे हो रहे हैं।
 
स्वामी विवेकानंद जब तक नरेंद्र थे बहुत ही तार्किक थे, नास्तिक थे, मूर्तिभंजक थे। रामकृष्ण परमहंस ने उनसे कहा भी था कि कब तक बुद्धिमान बनकर रहोगे। इस बुद्धि को गिरा दो। समर्पण भाव में आओ तभी सत्य का साक्षात्कार हो सकेगा अन्यथा नहीं। तर्क से सत्य को नहीं जाना जा सकता। विवेक को जागृत करो। विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस की बातें जम गईं। बस तभी से वे विवेकानंद हो गए। फिर उन्होंने कभी अपनी नहीं चलाई। रामकृष्ण परमहंस की ही चली।
 
स्वामीजी ने तो 25 वर्ष की उम्र में ही वेद, पुराण, बाइबल, कुरआन, धम्मपद, तनख, गुरुग्रंथ साहिब, दास केपीटल, पूंजीवाद, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, साहित्य, संगीत और दर्शन की तमाम तरह की विचारधाराओं को घोट दिया था, लेकिन हमारे आज के युवा तो 25 वर्ष की उम्र तक भी स्वयं के धर्म, देश और समाज के दर्शन और इतिहास को किसी भी तरह से समझ नहीं पाते....।  
 
सचमुच ही भारत आज तक पीड़ित लोगों की शरण स्थली बना हुआ है। ईरान में जब इस्लाम की आंधी चली तो पारसियों के लिए भारत ही एकमात्र शरण स्थली बना। रोमन जाति के अत्याचार से तंग आकर लाखों यहूदियों ने दक्षिण भारत में शरण ली थी। चीन ने जब तिब्बत पर हमलाकर ‍तिब्बतियों पर अत्याचार किए तो भारत ने ही उन्हें शरण दे रखी है। कभी राजशाही तो कभी माओवाद से तंग आकर नेपाल के लाखों लोग आज भी भारत में स्वयं को हर तरह से महफूज समझते हैं।
 
लेकिन आज ईरान में सुरक्षित नहीं है भारतीय। तिब्बत और नेपाल में नहीं रह सकता भारतीय। ऑस्ट्रेलिया में रोज हमले होते हैं। स्वामी विवेकानंद 1947 तक जीवत रहते तो भारत का बंटवारा होते देखते उन लोगों द्वारा जो शुद्ध रूप से भारतीय ही थे। विदेशी भूमि की बात तो छोड़ो, भारत में ही भारतीय स्वयं को कुछ प्रांतो में असुरक्षित महसूस करने लगा है। भारत से अलग हो गए हिस्से, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं को पलायन करना पड़ रहा है। आश्चर्य की जो लोग हिंदुओं को भगा रहे हैं वे भी तो भारतीय ही है।
 
यह देश का दुर्भाग्य है कि संत, महात्मा, विचारक और भगवानों को भी अब जातिगत और पार्टिगत आधार पर बांटा जाने लगा है। यह देखकर और सोचकर दुख होता है कि स्वामी विवेकानंद, बाबा आंबेडकर और महात्मा गांधी को देश की जनता के बीच बांट दिया गया है। भारत में ही भारत को बांटे जाने का कुचक्र तो अंग्रेज काल से ही चला आ रहा है, लेकिन खुद भारतीय ही प्रांतवादी, जातिवाद और धर्म के नाम पर लोगों को बांटने लगे हैं।
 
यदि भाजपा या विद्यार्थी परिषद के किसी कार्यक्रम या पोस्टर पर स्वामीजी का फोटो छप गया है तो कांग्रेसी लोग अपने किसी कार्यक्रम या अधिवेशन में स्वामीजी के पोस्टर का उपयोग नहीं करते हैं। महात्मा गांधी को आप कांग्रेस पार्टी को छोड़कर किसी भी अन्य पार्टी के कार्यक्रम में नहीं पाओगे। भाजपा जिस पर हाथ रख देगी वह चीज सांप्रदायिक घोषित हो जाएगी और कांग्रेस जिस पर हाथ रखेगी वह छद्म धर्मनिरपेक्ष कहलाएगी।
 
विवेकानंद, महर्षि अरविंद, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस और भगतसिंह का फोटो या पोस्टर अब कांग्रेस कार्यक्रमों में कम ही नजर आता है। राम तो भाजपा के हो गए, तो क्या कृष्ण को कांग्रेस का बना दें? बुद्ध का क्या करें, उन पर तो बसपा जैसे जातिगत राजनीति करने वाले संगठन की छाप हो चली है।
 
गत कुछ वर्षों से तथाकथित ब्राह्मणों ने ब्राह्मण एकता के नाम पर सर्वब्राह्मण समाज चलाया है और वे अपने सभी कार्यक्रमों में परशुराम का बड़ा-सा चित्र रखते हैं। न मालूम उनमें यह गलत खयाल कहां से आ गया कि परशुराम ब्राह्मणों के नेता या संत थे। अब आप ही बताइए इन गलत राह पर चल रहे लोगों का क्या करें?
 
सवाल यह है कि क्या उपरोक्त सोच में जी रहे लोगों के पक्ष में हो सकते हैं विवेकानंद? जिन्होंने भाषा, प्रांत, जाति और पार्टी के नाम पर स्वयं को और देश को बांट रखा है, क्या वे स्वामी विवेकानंद की विचारधारा के हो सकते हैं। ऐसी संस्था, संगठन या पार्टी के कार्यक्रमों में हम स्वामीजी का पोस्टर देखते हैं तो सोचते हैं कि इनको किसने यह अधिकार दिया?
 
भारत के तथा‍कथित युवाजन स्वामी विवेकानंद को अपना प्रेरणास्रोत्र मानने लगे हैं, लेकिन वे खुद कितने युवा है यह कौन तय करेगा? उन्होंने क्या पढ़ा है, क्या लिखा है और उनमें कितनी समझ है ये कौन तय करेगा? ज्यादातर युवाओं को हमने शराब पीते, गुटखा खाते, लड़कियों को छेड़ते, छल-कपट करते और गाली-गलोच करते हुए देखा है। क्या यह सब करने से ये युवा कहलाएंगे।
 
स्वामीजी ने तो 25 वर्ष की उम्र में ही वेद, पुराण, बाइबल, कुरआन, धम्मपद, तनख, गुरुग्रंथ साहिब, दास केपिटल, पूंजीवादी दर्शन, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, साहित्य, संगीत और दर्शन की तमाम तरह की विचारधाराओं को घोट दिया था, लेकिन हमारे आज के युवा तो 25 वर्ष की उम्र तक भी स्वयं के धर्म, देश और समाज के दर्शन और इतिहास को किसी भी तरह से समझ नहीं पाते....। वे तो सिर्फ धर्म और राजनीति के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा हांके जाते हैं। फिर क्यों वे विवेकानंद को मानते हैं?
 
आज का युवा नेता बनना चाहता है। स्वामीजी ने कहा था कि यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो। आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें।
 
आज का युवा तो अपने स्वार्थ के लिए किसी की भी बलि देने के लिए तैयार है फिर चाहे वह परिवार का हित हो, समाज का हित हो या राष्ट्र हित की कोई बात हो। स्वामीजी ने कहा था कि सत्य के लिए हर वस्तु की बलि दी जा सकती है, किन्तु सत्य की बलि किसी भी वस्तु के लिए नहीं दी जा सकती।
 
बहुत से युवाओं से पूछा गया कि आप विवेकानंद के बारे में क्या जानते हैं। उनमें से ज्यादातर का कहना था कि वे युवाओं के प्रेरणास्रोत्र हैं और उन्होंने शिकागो में भारतीय धर्म की पताका फहराई थी। वे रामकृष्ण परमहंस के शिष्य हैं और बहुत कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई थी। सन्‌ 1893 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन 'पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स' में अपने भाषण की शुरुआत उन्होंने 'बहनों और भाइयों' कहकर की। बस इससे अधिक ज्यादातर युवा कुछ भी नहीं जानता।
 
बहुत कम युवा इस बात का जवाब दे पाए कि उनका स्वामी विवेकानंद का असली नाम 'नरेंद्रनाथ दत्त' था और उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। मात्र 39 वर्ष की उम्र में 4 जुलाई 1902 को उनका निधन हो गया।
 
(वेबदुनिया डेस्क) 

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