भारत की कीर्ति-पताका फहराने का सबसे पहला काम करने वाले नरेन्द्र नाथ (जिन्हें हम स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानते हैं) ने किया। उन्होंने सबसे पहले भारतीय मेधा और सांस्कृतिक सम्पन्नता का झंडा अमेरिका में फहराया था। तब से उनकी विरासत को हजारों भारतीयों ने वहां आगे बढ़ाया है।
विवेकानंद आज से करीब 121 साल पहले अमेरिका के शिकागो गए थे और वहां धर्म संसद को संबोधित कर भारतीय संस्कृति की धूम मचा दी थी।
भारत में भी हाल ही में 150वीं जयंती मनाई गई थी। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए अमेरिका जा रहे हैं। मोदी की अमेरिका यात्रा के संदर्भ में विवेकानंद प्रसंग इसलिए जरूरी है कि मोदी विवेकानंद को अपना आदर्श मानते हैं, खुद को उनका शिष्य भी कहते हैं। वे वेल्लूर मठ में काफी समय तक रहे हैं।
हालांकि तब से लेकर अब तक हमारी प्राथमिकताएं बहुत बदल गई हों, मेधा और सम्पन्नता के मानक बदल गए हों लेकिन जो चीज नहीं बदली है वह है भारत की 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना और वेदों का यह उद्घोष कि 'आनो भद्रा क्रवतु यंतु विश्वसत:' ' (संसार के सर्वश्रेष्ठ विचार चारों दिशाओं से हमारे पास आएं), अब थोड़ा सा बदल गया है। इसलिए हम कह सकते हैं कि संसार के सारे क्षेत्रों के सर्वश्रेष्ठ विचारों के साथ-साथ उपलब्धियां भी हमारे पास आएं और हम इसका उपयोग कर अपने देश को फिर से सोने की चिडि़या को बनाने के काम में लग जाएं।
जब स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका में भारत के स्वाभिमान और सांस्कृतिक सम्पन्नता का अलख जगाया था, तब हम अंग्रेजों के गुलाम थे। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुंचा।
उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत 'मेरे अमेरिकी भाइयो एवं बहनो' के साथ करने के लिए जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था और तब पहली बार पश्चिमी जगत ने जाना कि दुनिया में भारत भी एक देश है।
विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धांत का जो आधार विवेकानंद ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूंढा जा सके। विवेकानंद को युवकों से बड़ी आशाएं थीं और आज के युवकों के लिए इस ओजस्वी सन्यासी का जीवन एक आदर्श है।
वहां पर स्वामीजी कहना था कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।
उनका कहना था कि मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथ्रुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।
स्वामी जी ने अमेरिका में जिस नई दुनिया को साकार स्वरूप देने का विचार दिया था, प्रधानमंत्री मोदी अपने संयुक्त राष्ट्र और मेडिसन स्क्वायर के भाषणों में फिर से रेखांकित करेंगे। आशा की जाती है कि मोदी की स्वामी जी के कथन- 'उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए' के सर्वोत्कृष्ट विवेक को सारी दुनिया के भारतीयों को आत्मसात करने को कहेंगे। ऐसा करके वे अमेरिका के उस लांछन और आशंका को मिटा सकेंगे जो कि भारतीय इतिहास में गोधरा दंगों के नाम पर उनके नाम के साथ चिपका हुआ है।
इसी के साथ स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है, लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिए। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है। यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिए दम्भ या बड़बोलापन नहीं था वरन यह एक वेदांती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी जोकि ना केवल तब प्रासंगिक थी, वरन आज के समय में यह और भी अधिक प्रासंगिक है।
अगले पन्ने पर, सवा सौ करोड़ भारतीयों की आशाओं के केंद्र...
आज जमाना नरेन्द्र नाथ (स्वामी विवेकानंद) से आगे जा चुका है और इसलिए आज के युग में नरेन्द्र मोदी ने जन्म लिया है और यह संयोग की बात नहीं है कि आज वे सवा सौ करोड़ भारतीयों की आशाओं के केन्द्र हैं। ऐसा माने जाने के हर संभव कारण हैं कि वे अमेरिका में पूरे निरपेक्ष भाव से भारत के हितों से संबंधित फैसले लेंगे। सबसे पहले मोदी को यही विश्वास दिलाना होगा कि अमेरिका द्वारा उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान वीजा न दिए जाने को वे भूल चुके हैं और अब वे सवा सौ करोड़ लोगों की आबादी वाले देश के नेता हैं। इसलिए जब देशहित की बात आती है तो उनके लिए अमेरिकी सरकार का अतीत का आचरण अधिक मायने नहीं रखता है।
उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि अमेरिका शिक्षा, विकास, तकनीक और नवाचार के मामले में दुनिया में अव्वल देश है और अगर भारत को इन क्षेत्रों में प्रगति करना है, तो हमें अमेरिकी इस मामले में बहुत कुछ सिखा सकते हैं। उच्च शिक्षा, शोध और नवाचार के मामले मे दोनों देशों को करीबी संबंध रखने होंगे। दोनों ही देश इन मामलों में और भी करीब आएंगे।
दुनिया की एकमात्र महाशक्ति की जीडीपी हमारी जीडीपी की तुलना में नौ गुना ज्यादा है और इसी तरह प्रति व्यक्ति आय के मामले में वह हमसे 33 गुना आगे है। यह देश दुनिया में लोगों की प्रगति को बढ़ाने के लिए वांछित उद्ममवृत्ति में भी सबसे आगे है। इस क्षेत्र में भारत इससे बहुत कुछ सीख सकता है। मोदी को डेमोक्रेट और रिपब्लिकन नेताओं को विश्वास दिलाना होगा कि भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग की बढ़ोतरी से भारत ही नहीं वरन अमेरिका भी लाभान्वित होता है। वहां रोजगार के अवसर पैदा होते हैं और अमेरिकी कंपनियों को अपेक्षाकृत कम कीमत पर कुशल कामगार मिलते हैं। इसलिए अमेरिका की सूचना और संचार व्यवस्था को भी भारतीय मेधा की जरूरत है और भारतीय इस क्षेत्र में अपना दमखम दिखा चुके हैं।
दोनों देशों में प्रतिरक्षा और ऊर्जा सहयोग को लेकर काफी बातचीत होती रही है। पिछले माह ही अमेरिकी रक्षा मंत्री चक हेगल ने भारत का दौरा किया था और उस समय दोनों पक्षों ने एक नए प्रतिरक्षा समझौते को लेकर बातचीत हुई थी। मोदी की यात्रा के दौरान इस तरह का कोई समझौता, रक्षा तकनीक के हस्तांतरण संबंधी प्रयास, कोई साकार रूप ले सकता है। दोनों देशों के बीच साझेदारी को बढ़ाकर भारतीय प्रतिरक्षा उद्योगों के स्वदेशीकरण को गति देने का कार्यक्रम भी बन सकता है। इसके साथ ही, रक्षा तकनीक और कारोबार प्रयासों को भी बढ़ाए जाने के बारे में आगे बातचीत होगी।
इस समय दोनों देशों के बीच जिन क्षेत्रों को लेकर बातचीत होती रही है, उनमें कारोबार और निवेश, प्रतिरक्षा और सुरक्षा, शिक्षा, विज्ञान और तकनीक, साइबर सिक्योरिटी, उच्च तकनीक, सिविल न्यूक्लीयर एनर्जी, अंतरिक्ष तकनीक और अनुप्रयोगों तथा अन्य बहुत से क्षेत्रों में सहयोग के मामले शामिल थे। इन सभी क्षेत्रों में सहयोग को एक नई दिशा दिए जाने की जरूरत है। असैन्य परमाणु समझौता एक ऐसा विषय है, जो कि पूरी तरह से अंजाम तक नहीं पहुंच सका है इसलिए यह मोदी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इसे पूरी तरह से सक्रिय अवस्था में पहुंचाए। विदित हो कि द्विपक्षीय असैन्य परमाणु समझौता जुलाई 2007 में पूरा किया गया था और अक्टूबर 2008 में इस पर हस्ताक्षर भी कर दिए गए थे और नवंबर वर्ष 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की सरकारी यात्रा के दौरान दोनों सरकारों ने घोषणा की थी कि समझौते के क्रियान्यवयन के सभी कदम उठाए जा चुके हैं।
लेकिन, ऐसा होने से पहले दोनों देशों के बीच संबंधों में खटास आ गई थी और भारत में आम चुनाव की तैयारियों के चलते कोई अहम फैसला नहीं लिया जा सका, लेकिन अब उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मामले पर कोई निर्णायक कार्रवाई की जा सकेगी। इसी तरह से प्रतिरक्षा सहयोग, उत्पादन और तकनीक हस्तांतरण के क्षेत्र में दोनों पक्षों के बीच कोई बात बनेगी। निवेश, आर्थिक साझेदारी और द्विपक्षीय मामलों पर सहयोग और सहकारिता का नया दौर देखने को मिलेगा, ऐसी भी उम्मीद की जा सकती है।